नारी जाग्रति का स्वरूप पहचानें

September 1996

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‘नारी जाग्रति’ इन दो शब्दों में पीड़ा, व्यथा, संवेदना, सहानुभूति एवं आक्रोश के अनगिनत भाव समाए हुए हैं। इन शब्दों में आधी दुनिया का सच है। इसे जब अभियान का दर्जा दिया जात है तो सच्चाई ओर मुखर हो उठती है, भाव अधिक व्यापक हो जाते हैं। इसके अंतर्गत उन प्रयासों की गणना की जाती है, जिनका उद्देश्य महिलाओं की दशा में सुधार लाना, उन्हें ऊँचा उठाना, उनकी सामाजिक स्थिति सँवारना है। पश्चिम में इस तरह की कोशिशों की शुरुआत 18 वीं सदी में हुई और पूर्व विशेषतया भारत में यह प्रक्रिया 19 वीं सदी के पूर्वार्द्ध से शुरू हुई। भले ही ये प्रयास छुट-पुट हुए, फिर भी समूची एक शताब्दी से अधिक समय बीत जाने पर भी महिला जाग्रति का कोई स्पष्ट स्वरूप, सामाजिक, साँस्कृतिक पटल पर उभर कर नहीं आ सका है। शब्दों में निहित भाव एवं सच्चाई सही ढंग से क्रियान्वित नहीं हो सकी हैं।

यह तभी सम्भव है, जब हम इसके लिए तत्सम्बन्धित देश और समाज की ऐतिहासिक, साँस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि को जानने-समझने की कोशिश करें। जिस तरह एक रोगी की दवा, दूसरे रोगी के लिए जहर साबित हो सकती है, उसी तरह एक वाले उपाय दूसरे देश और समाज में कारगर साबित होने वाले उपाय दूसरे देश और समाज में सामाजिक एवं साँस्कृतिक पतन का कारण साबित हो सकते हैं। ये बात पश्चिम एवं भारत के सम्बन्ध और संदर्भ में कही जा रही है। भारत में कार्य करने के लिए हमें यह जानना होगा कि स्थिति के कारण क्या हैं? ये कैसे उपजे? और इनके निवारण की रणनीति क्या हो? आदि सवालों पर गम्भीरता से विचार किया जाय, तभी अपने देश में नारी जाग्रति के लिए की जाने वाली कोशिशें सार्थक हो सकती हैं। वर्तमान सामाजिक संरचना का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि कतिपय प्रबुद्ध नारियों को छोड़कर अधिकांश की स्थिति किसी न किसी तरह बन्धक -सी है। इसके मूलतः दो कारण हैं अनिश्चितता और असुरक्षा। अनिश्चितता का सम्बन्ध आर्थिक क्षेत्र से है। आज की स्थिति में इस क्षेत्र में प्रायः पुरुषों का वर्चस्व है और अर्थशक्ति युग-शक्ति के रूप में पूजी जा रही है। परिणाम स्वरूप पुरुष वर्ग सरलता से उन पर शासन करने में सक्षम हो जाता है। उन्हें भी अनिश्चितता निवारण हेतु बरबस शासित होना पड़ता है।

असुरक्षा के पीछे साहस को दबा दिए जाने का भाव है। उनके मानस में सदियों से यह भाव भरा गया है कि तुम अक्षत हो, दुर्बल हो, यहाँ तक कि अबला शब्द नारी का पर्याय बन गया है। कहा जाता है लगातार सौ बार कहा गया झूठ भी सच प्रतीत होने लगता है। स्थिति ऐसी हुई इस समूचे वर्ग ने अपने को अबला मान भी लिया। इस मान्यता के कारण सुरक्षा की दृष्टि से उन्हें पुरुषों का आश्रय जरूरी हो गया। एक युग में तो यह नीति ही बन गयी कि बचपन में उनकी रखा पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र करे। नारी प्रत्येक स्थिति में रक्षणीय है। जैसे-जैसे उक्त दोनों कारणों की जड़ें गहरी होती चली गयीं महिलाओं की स्थिति बंधुआ, आश्रित की सी हो गयी। यहाँ तक कि उसका स्वतन्त्र अस्तित्व ही न रह गया। पति, पिता, पुत्र से ही उसका परिचय होने लगा। यदि मानवीय सभ्यता के ऊषाकाल की ओर लौट चलें, उस समय की सामाजिक स्थिति पर नजरें घुमाएँ, जबकि सामाजिक संरचना हो रही थी। तक यह साफ हो जाता है कि कारण क्यों उपजे, कैसे पनपे और किस तरह आज की स्थिति में बबूल के बगीचे की तरह मानवीय सभ्यता की राह में कंटक बिखेरने वाले हुए? नृतत्वशास्त्री ई.बौरग्युनन अपने अध्ययन ‘साइकोलॉजिकल एन्थ्रोपोलाजी’ में बताते हैं कि प्रारम्भ में नर और नारी दोनों ही वैचारिक, बौद्धिक, मानसिक क्षमताओं की दृष्टि से समान थे। एच कोचेटेवा का पैलियो एनाटॉमी में कहना है कि उनकी पारस्परिक शारीरिक क्षमताएँ भी झोंपड़ी बनाने आदि अनेक कार्यों में बराबर की भागीदारी रखते थे। छोटे-बड़े जैसा कोई भाव ही न था।

ए. मारशाक ने ‘रुटस ऑफ सिविल सिविलाइजेशन’ में सामाजिक संरचना के प्रारम्भिक स्वरूप को स्पष्ट किया है। धीरे-धीरे यह संरचना जटिल हुई, परिवार संस्था बनी और परिपक्व हुई। ऐसी स्थिति और गहराइयों का अध्ययन गुणों का अध्ययन गुणों और मौलिकता को आधार मानकर करना शुरू किया। पुरुषों में वीरता, कर्मठता और नारियों में करुणा और ममत्व जैसे गुणों की प्रधानता पायी गयी। सामाजिक संरचना का ताना-बाना बुनते समय आवश्यकता हुई कि श्रम व कार्यक्रम का विभाजन किया जाय।

इस विभाजन में यह ध्यान रखा गया कि प्रत्येक के मौलिक गुणों के अनुरूप उसे काम मिले। इससे दो लाभ सोचे गए, प्रथम तो व्यक्ति की अपनी मौलिक क्षमता अपनी चरम स्थिति प्राप्त करे, दूसरे समाज को उसका अधिकाधिक लाभ मिले । इसी प्रक्रिया के अंतर्गत नारी को पारिवारिक दायित्व संभालने का अवसर मिला। क्योंकि शिशु पालन, प्रशिक्षण, पारिवारिक संगठन, ममता आदि की विशेष आवश्यकता थी। पुरुष को यह जिम्मेदारी मिली कि वह परिवार के लिए सुविधा जुटाने, सुरक्षा करने का भार वहन करे।

उस समय छोटे-बड़े की भावना न थी समाज मातृ प्रधान था, वैदिक काल तक यही बात थी ।नारी के दो स्वरूप थे , एक सद्योवधू, दूसरा ब्रह्मवादिनी। सद्योवधू की जिम्मेदार थी कि वह परिवार को सुदृढ़ बनाए, समाज को सुयोग्य एवं संस्कारवान सन्तति दे। ब्रह्मवादिनी का दायित्व था कि वह नारियों की जाग्रति बनाए रखे । उन्हें कर्तव्य मार्ग पर आरुढ़ रहने के लिए प्रोत्साहित करती रहे। इसी संदर्भ में महाभारत में एक सुलभा नाम की संन्यासिनी का जिक्र आता है, जो घूम-घूम कर अपने इस दायित्व को निभाती थी । मातृ प्रधान समाज होने के कारण सन्तान का परिचय प्रायः माँ के नाम के साथ जोड़कर दिया जाता था। इतरा के पुत्र होने के कारण ऐतरेय नाम हुआ, जो बाद में उपनिषद्कार हुए। जाबाला के पुत्र होने के कारण सत्यकाम, सत्यकाम जाबाल के रूप में प्रचलित हुए।

परिवर्तित मूल्यों के अनुरूप समाज का स्वरूप भी बदला। लगातार आक्रमणों में भागीदारी, परिवार व समाज की सुरक्षा प्रदान करते रहने के कारण पुरुषों का गौरव बढ़ता गया। धीरे-धीरे स्थिति यह आयी

कि सुविधा और सुरक्षा जुटाते रहने के कारण पुरुषों ने अपने वर्चस्व को मान्यता दी। लगातार किसी कार्य व भाव को करने व स्वीकार करने से मन की संरचना उसी के अनुरूप ढलने लगती है। शरीर भी वैसा ही हो जाता है।

हुआ भी यही, कोमलता स्त्रियों का भूषण हो गयी, भीरुता को शृंगार माना जाने लगा। मध्ययुगीन अन्धकार के छापों ने इसे और बढ़ावा दिया। विकृत होती परम्पराएँ आज रूढ़ियां बन चुकी है। इन्हें तब तक नहीं तोड़ा जा सकता जब तक नारी पुनः असुरक्षा व अनिश्चितता को परे न झटक दे। अर्थात् उसका साहस उभरे व आर्थिक क्षेत्र में समानता सिद्ध करे।

नारी जागरण की क्रिया-पद्धति यही होनी चाहिए। इसके लिए इन्हीं दोनों मोर्चों पर लड़ना होगा, किन्तु इनमें से आर्थिक क्षेत्र को प्रधानता देनी होगी। क्योंकि यह सामान्य सूत्र है कि परावलम्बी कभी साहसी नहीं हो सकता। साहस के बिना सुरक्षा का भाव मिलने से रहा। आर्थिक क्षेत्र में प्रगति के लिए आवश्यक नहीं कि नौकरी ही की जाय। गृह उद्योग चलाने, उसमें निष्ठापूर्वक अपने को नियोजित करने में सफलता असंदिग्ध हो जाएगी।

गृह उद्योग, कुटीर उद्योग की परम्परा यदि नारी समुदाय के बीच चल पड़े तो यह उत्पादक-श्रम की प्रक्रिया स्वाभिमान जगाए बिना न रहेगी । आज के स्थिति में, मशीनों ,मिलों, फैक्ट्रियों के युग में ये बाते हास्यास्पद लग सकती है। हो सकता है यह भी सोचा जाय कि नारी जागरण से इसका सम्बन्ध क्या है ? किन्तु यह सोच उन्हीं की होगी जो मानव मन की संरचना से अपरिचित है। नमक आन्दोलन, दाँडी मार्च और चरखा इन सबका स्वराज्य से दूर-दराज तक का कोई सम्बन्ध नहीं था । किन्तु इनमें से प्रत्येक ने जो जन -क्रान्ति फैलाई, उससे शायद ही कोई अपरिचित हो।

ऐसा ही एक प्रयास गृह उद्योगों का है। भले ही उससे दो-तीन रुपए रोज का काम क्यों न हो; किन्तु जब खाली समय यों ही बिताने वाली महिलाएँ इसमें जुटेंगी तो न केवल उनकी श्रमशीलता बढ़ेगी, बल्कि महत्व भी जगेगा। उन्हें यह स्पष्ट अनुभव होगा कि हम भी कुछ कर सकती है।यह उभरा हुआ साहस, शिक्षा व उत्कृष्ट विचारो से मिलकर असुरक्षा के भाव को भी दूर फेंक देगा।

किन्तु इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण काम है, महिलाओं में इसके प्रति रुचि जगाना। यह कोई कम कठिन काम नहीं है। सदियों से एक ही भाव में रहते हुए उनके मन में यह जम गया है कि यह सब काम हमारे लिए नहीं है। पालतू तोते पिंजरा खोल देने पर भी नहीं उड़ते। इधर-उधर घूम-टहल कर फिर वापस आ जाते हैं। इनकी मुक्ति के लिए इतना काफी नहीं है कि पिंजड़े का दरवाजा खोल दिया जाय। कार्य तब सधेगा जब उन्हें उड़ना सिखाया जाय।

इण्डोनेशिया में इस तरह के कार्य में अग्रणी की भूमिका निभाई रेडन एडजंग कार्तिनी ‘ ने। उन दिनों इण्डोनेशिया में नारी जाति की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। उनका न कोई अधिकार था, न सम्मान । घर में उन्हें दासियों की भाँति रखा जाता। प्रतिष्ठित परिवार में जन्म लेने पर भी कार्तिनी बचपन से ही नारी की इस दयनीय दशा के प्रति दुःखी रहा करती। इसका एक कारण यह भी था कि उन्हें बारह वर्ष की अल्पायु में सिर्फ इसलिए स्कूल छोड़ना पड़ा क्यों कि वह नारी जाति की सदस्या थी। बड़ी होने पर रेडन ने अपनी दो बहिनों को साथ लेकर नारी जागरण में जुटा गयी। लेखनी वाणी, कर्मठता तीनों ही विधाएँ उन्होंने अपनायी । नारी प्रगति के लिए लेख लिखकर समाज के कर्णधारों, बुद्धिजीवियों का ध्यान इसके प्रति आकर्षित किया। घर-घर जाकर महिलाओं में शिल्प, गृह उद्योग के माध्यम से आर्थिक स्वावलम्बन हेतु रुचि पैदा की। इस सम्बन्ध में उन्हें काफी कुछ सफलता भी मिली । इसी कारण 21 अप्रैल को उनका जन्म दिन ‘नारी विकास के मोल के पत्थर’के रूप में इण्डोनेशिया में बड़ी धूम-धाम तथा सम्मान से मनाया जाता है।

ऐसा ही प्रयास भारत में किया श्रीमती उर्मिला शास्त्री ने। यों इनका जन्म कश्मीर में हुआ। बाद में गान्धीजी के संपर्क में आयी। इसी बीच धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री से विवाह भी हुआ। उन दिनों पुरुषों के सभा-सम्मेलन तो हुआ करते थे, महिलाएँ जाग उठी है, इसका बोध कराने के लिए 30 जनवरी 1930 को मेरठ में एक विशाल महिला सम्मेलन का आयोजन किया और इसकी अध्यक्षा के रूप में विचारोत्तेजक भाषण दिया। इसमें महिलाओं को जाग्रत होने का उद्बोधन था। उन्हें उठ खड़े होने की प्रेरणा थी। सन 1937 में उन्होंने मेरठ में एक महिला दस्तकारी स्कूल की स्थापना की। आरम्भ में उन्हें इस स्कूल की अध्यापिकाओं एवं प्रबन्ध खर्च अपनी गाँठ से करना पड़ा। आज यह उर्मिला दस्तकारी स्कूल के रूप में उनके कार्य के जीवन्त स्मारक के रूप में क्रियाशील है।

अभी तक किए गए ये प्रयास सराहनीय और प्रेरक तो हैं पर छूट-पुट होने के कारण अधिक व्यापक नहीं हो सके हैं। समय की माँग यह है कि व्यवस्थित, सुनियोजित रूप से महिला जागरण का प्रयास एक आन्दोलन अभियान के रूप में गतिमान हो। शान्तिकुँज और उसके संस्थापक ने समय की इस चुनौती को साहस के साथ स्वीकार किया है। इसके प्रयासों की व्यापकता और अब तक की उपलब्धियों से भारतीय जनमानस अपरिचित नहीं है। यहाँ से संचालित अभियान ने भारतीय नारी की व्यथा को समझते हुए विशुद्ध भारतीय परिवेश के लिए अपने आन्दोलन की मौलिकता प्रस्तुत की हैं। इसको और अधिक व्यापक बनाने के लिए बुद्धिजीवी पुरुषों की क्रियाशीलता का आह्वान करने के साथ इन पंक्तियों में आने का अनुरोध किया जा रहा है।

क्योंकि अनुकरण-अनुसरण मनुष्य की सहज मनोवृत्ति है। कोई भी चीज सैद्धांतिक रूप में समझ में नहीं आती है। पर उसके व्यावहारिक स्वरूप व परिणामों को देखते ही उसे सहज अपनाने का मन करता है। विज्ञान अपनी इसी विशेषता के कारण विजयी हुआ और लोगों के गले उतरा है। जैसे-जैसे इस प्रयास में तेजी आएगी, सन्तोषजनक परिणाम भी दिखाई देंगे। नर और नारी एक समान का सूत्र एक तथ्य बनकर उभरेगा। शान्तिकुँज द्वारा संचालित नारी जाग्रति अभियान से जुड़कर नारियाँ नारी जाग्रति के दो शब्दों में छुपी पीड़ा, व्यथा, संवेदना सहानुभूति एवं आक्रोश का सही भाव बोध पा सकेगी। ऐसा बोध जो पश्चिम के नारी मुक्ति आन्दोलन से एक दम अलग है। जिसे जानकर नारियाँ अपनी उस गरिमा व वर्चस्व को पा सकेगी, जिसके आधार पर उन्हें अगले दिनों बड़ी जिम्मेदारियाँ व दायित्व वहन करने है।


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