ये हत्याएँ-आखिर क्यों?

September 1996

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आखिर क्यों? क्या अपराध है उसका? जिस मासूम ने अभी दुनिया में कदम भी न रखा हो, जिस अबोध की आँखों में संसार का चित्र भी न उभरा हो, जिसका भी कोई जानी-दुश्मन हो सकता है? ये प्रश्नवाचक चिह्न अटपटे जरूर हैं, परन्तु वर्तमान समाज की क्रूर व्यवस्था का एक नग्न सत्य है। पितृ सत्तात्मक समाज पुत्र से वंश-बेल को आगे बढ़ाने की सड़ी-गली परम्परा को बदले हुए परिवेश और परिस्थितियों में भी ढोए फिर रहा है। इस रूढ़िग्रस्तता की आसक्ति ही है, जिससे प्रेरित होकर बेकसूर कन्या अपनी भ्रूणावस्था में ही माँ की कोख से जबरदस्ती खींचकर फेंक दी जाती है।

जनसंख्या नियन्त्रण के साधन के रूप में गर्भपात, भ्रूणहत्या को कानूनी, सामाजिक स्वीकृति मिलना प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मानवता के लिए एक-अभिशाप बन गया है; क्योंकि इसी की आड़ में कन्याओं की गर्भ में ही पैशाचिक हत्याएँ हो रही हैं। पुराने जमाने के इतिहास-पुराणों में, लोक-कथाओं में ऐसे राक्षस-पिशाचों का जिक्र आता है, जो छोटे बच्चों का मारकर खा जाते थे। बाल हत्यारे इन राक्षसों की कथाओं को सुनने पर हर किसी का मन घृणा से भर जाता है। अपरिपक्व भ्रूण तो बालक से भी मासूम होता है, उसकी हत्या करने वालों को क्या कहा जाए? जो इनके हत्यारे हैं, क्या उनमें सचमुच पिता का प्यार और माता की ममता स्पंदित होती है? यदि ऐसा तो शायद वे ऐसा क्रूर कर्म कभी न कर पाते।

पुत्र प्राप्ति की प्रबल इच्छा एक मृगतृष्णा ही तो है, आखिर क्या दे रहे हैं पुत्र आज अपने माता-पिता को? इस प्रश्न का उत्तर प्रायः हर घर में लड़कों द्वारा माँ-बाप की जमीन -जायदाद हथियाने के बदले उन्हें दिए जाने वाले शर्मनाक अपमान-तिरस्कार में खोजा जा सकता है। इसे मोहान्धता ही कहेंगे कि रोजमर्रा की ऐसी सैकड़ों-हजारों घटनाओं को देखने के बाद भी पुत्र प्राप्ति की लालसा नहीं मिटती। इस लालसा को मिटाए जाने के बदले कन्या को जन्म लेने के पहिले ही मिटा दिया जाता है। विज्ञान और आधुनिक तकनीकी ज्ञान जैसे- एमिनियों सेंटेसिस, अल्ट्रासाउंड स्केनिंग आदि ने इस क्रूरता को और बढ़ावा दिया है।

इस सबके परिणामस्वरूप वर्तमान समाज में गर्भपात की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रतिवर्ष साठ लाख गर्भपात कराए जाते हैं। इनमें से केवल छह लाख गर्भपात ही वैध होते हैं। इन गर्भपात ही वैध होते हैं। इन गर्भपातों में बहुलता कन्या शिशुओं की होती है। 1976-77 में यह संख्या 2,78,370 थी, जो 1986-87 में बढ़कर 5,84,218 हो गयी। 1995-96 के आँकड़े तो सर्वथा चौंकाने वाले हैं। अब तक तो इनकी संख्या 10 लाख से भी पर जा चुकी है। ये तो सरकारी आंकड़े हैं, गैर सरकारी आँकड़ों का आसानी से अन्दाजा लगाया जा सकता है। यूनीसेफ के अनुसार 10 प्रतिशत महिलाएँ विश्व जनसंख्या से लुप्त हो चुकी हैं। जिसके पीछे भ्रूणहत्या, गर्भपात आदि कुकृत्य ही मुख्य कारण हैं। इस त्रासदी के लिए दो शत्रु हैं रूढ़िवादी महिलाएँ और संकीर्ण पुरुष। भारत में एक करोड़ बीस लाख लड़कियाँ पैदा होती हैं जिसमें अस्सी लाख अपने जीवन का पन्द्रहवाँ जन्म दिन नहीं देख पातीं । इस अध्ययन के मुताबिक दुनियाभर के पिछले एक दशक में हुए 15 करोड़ अवैध गर्भपातों में से अकेले 4 करोड़ अवैध गर्भपात भारत में हुए। जिसमें 70 प्रतिशत गर्भपात गर्भधारण के 12 सप्ताह के बाद कराए गए; क्योंकि बारह सप्ताह के उपरान्त ही भ्रूण के लिंग का पता चला, कि वह बेटी है और उसका जन्मने के पहले ही गला घोंट दिया गया।

कलकत्ता के एक सम्मेलन में इस तरह के गर्भपात की निंदा करते हुए मदर टेरेसा ने कहा-हम ममता के तोहफे को मिटा नहीं सकते। स्त्री और पुरुष के बीच कुदरती समानता के लिए यह हिंसक हथकण्डा समाज के लिए पतन-पराभव की ओर ही तो चलता है। इस सारे कारनामे में पुरुष के पौरुष पर कोई टिप्पणी करने का साहस कौन करे? क्योंकि वह दुनिया के सामाजिक कारोबार का नियन्ता जो है। शायद उसने अपना वर्चस्व साबित करने के लिए पुत्र पैदा करने की वैज्ञानिक विधि भी ईजाद कर ली है। फ्राँस के एक वैज्ञानिक महोदय लड़के पैदा करने के लिए सोडियम और पोटेशियम युक्त भोजन की सलाह देते हैं। परन्तु रीनल या हाइपरटेंशन की समस्या इस आकाँक्षा से कहीं ज्यादा बलवती होती है। डॉ. रोनाल्ड ऐरीकन्स के प्रयोग से ‘Y’ क्रोमोसोम जो लड़का होने के लिए जिम्मेदार है, में कम जेनेटिक द्रव्य होने से तीव्र गति करता है। इसमें और तीव्रता लाने के लिए प्रोटीन एल्बुमीन का प्रयोग किया जाता है। उत्सर्जन के दौरान विशिष्ट लवणयुक्त घोल से शुक्राणु को तनु कर दिया जाता है, ताकि ‘Y’ क्रोमोसोम तीव्रता से बढ़कर अण्डाणु को निषेचित कर सके। यह विधि आजकल विदेशों में काफी प्रचलित हो ही है। इसकी एक विधि में शुक्राणु के घनत्व को कम करने के लिए परकोल रासायनिक द्रव्य का उपयोग किया जाता है एवं अन्य एक विधि आई.व्ही.एफ. तकनीक द्वारा भी अण्डाणु को निषेचित किया जाता है।

उपरोक्त विधियों के बारे में HEFA (Thr Human Fertilization and Embryology Authority) इंग्लैण्ड के रायल कालेज ऑफ आबस्टीकल्स एण्ड गाइनोकोलॉजी तकनीकी के विशेषज्ञों ने इन्हें मेडिकल कारण बताकर स्पष्ट किया है कि इससे आनुवांशिकी-व्यतिक्रम रोग जैसे हीमोफीलिया आदि होने का खतरा होता है। यह सब न तो हो तो भी पुत्र प्राप्ति की यह अभिलाषा, कन्याओं के प्रति नफरत से भरी होने के कारण मानवीय भावनाओं के सर्वथा खिलाफ है। साथ ही यह नजरिया हमारी आधुनिक कही जाने वाली प्रगतिशील सोच, चौतरफा तरक्की पर कई तरह के सवालिया निशान लगाती है। आज के वैज्ञानिक युग में भी इस तरह की अवाँछनीय सोच एवं कृत्य एक आश्चर्य है। इसी का परिणाम है कि 1981 की जनगणना में हजार पुरुषों के अनुपात में 935 महिलाएँ थीं जो 1981 में आकर 927 हो गयी।

अदिति और मद्रास स्कूल ऑफ सोशल वर्क ने बिहार और तमिलनाडु में बालिका शिशु हत्या पर सर्वेक्षण किया, जो दर्शाता है कि महिलाओं की संख्या कम होती जो रही है। नवीन सर्वेक्षण में मुताबिक देश के 9 राज्यों के 65 जिलों में यह लैंडिक असन्तुलन 9 इतना भयावह है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का महिला और बाल-कल्याण विभाग भी चिन्तित हो उठा है। इन 65 में से 55 जिलों में छह साल तक बच्चों में 1100 लड़कियाँ है और शेष दस जिलों में 1000 लड़कियाँ है और शेष दस जिलों में यह अनुपात 1150 और 1000 का है। उत्तर भारत में जो 60 प्रतिशत से भी ज्यादा लड़कियों की शादी 17 वर्ष पर करने से पूर्व हो जाती है। इसके बाद उनके साथ गर्भवती होने तथा गर्भपात कराने का लम्बा सिलसिला शुरू हो जाता है। विभिन्न अनुमानों के हिसाब से यहाँ 6 से 8 लाख प्रतिवर्ष भ्रूण हत्याएँ होती हैं।

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में 30 गाँवों के सर्वेक्षण से प्राप्त जानकारी के अनुसार ज्यादा से ज्यादा लड़ने प्राप्त करने की कोशिश में हर महिला ने पाँच से लेकर तेरह तक सन्तानें इकट्ठा कर डाली हैं। इन्हीं कुछ सालों में अकेले बिजनौर जिले में 84 हजार से भी अधिक कन्या भ्रूणों से छुटकारा पाया गया है। कन्या द्रोह का यह सिलसिला कन्या भ्रूण की हत्याओं तक ही सीमित नहीं है। इन अपने को इनसान कहलाने वाले पिशाचों को यदि भ्रूण हत्या में किसी तरह यदि सफलता न मिल पायी तो उन्हें कन्या को जन्मते ही मार देने में कोई संकोच नहीं। बिहार के कटिहार जिले में 1200 नवजात बच्चियां प्रतिवर्ष मार दी जाती हैं। एक दाई एक माह में तीन एवं वर्ष भर में 36 बालिकाओं को मार देती है। जब एक जिले में इन मासूम हत्याओं का यह औसत है, तो पूरे प्रदेश में 15,000 दाइयाँ इसी काम में संलग्न हैं। सर्वेक्षणकर्ताओं का अनुमान है कि इस तरह 50,000 मासूम कन्याएँ इस धरती पर आते ही मौत की गहरी नींद में सुला दी जाती थी, अब भूमिहर, ब्राह्मणों, यादव, हरिजन, आदि प्रायः सभी जातियों में होने लगी है।

मारने के तरीके तो और लोमहर्षक हैं, जहर, तम्बाकू, काला नमक, गीले तौलिए और बालू में थैले जैसे साधनों से बह जघन्य कृत्य सम्पन्न किया जाता है। 9 बच्चों की मारने वाले हत्यारे बाप से इस विषय में पूछने पर उसने बताया-”लड़कियों के कारण हमें सबके सामने सिर नीचा करना पड़ता है।” शायद सिर ऊँचा रखने के ख्याल में उसे अपने किए की, नृशंसता का कोई ध्यान नहीं रह गया। दिल्ली विश्वविद्यालय में एम.फिल.के लिए पेश थीसिस ‘द साइलेंट डेथ्स’ में बताया गया है कि इन बाल हत्यारे कंस और पूतना जैसे अमानुषिक लोगों में स्नातक व स्नातकोत्तर लोग भी संलग्न है। देश के सभी राज्यों में लड़कियों का महाविनाश देश की जलवायु के साथ खिलवाड़ करने वाले वनों की कटाई जैसा किया जा रहा है।

बर्बर मानसिकता, नृशंस अमानुषिकता का यह परिदृश्य जब भारत से उठकर विश्व के अन्य देशों में घूमता हो तो चीन, जापान, और अन्य अनेक देश भी इस में पीछे नहीं रहते। चीन की स्थिति तो और भी बदतर है। चीन की जनसंख्या 1.17 अरब है तथा प्रतिवर्ष एक करोड़ 70 लाख लड़कियाँ लापता हो जाती हैं। लड़कियों को मार देने को वहाँ वंश वृद्धि को रोकने का उपाय माना जाता है। नहीं मालुम वहाँ के निवासी अपने इस हास्यास्पद तरीके में कितने सफल हो रहे हैं? पर यह सुनिश्चित है कि वे इनसान की शकल में होने पर भी इनसानियत से वंचित हैं।

कन्या शिशु की हत्या के पीछे इस आधुनिक सोच और अत्याधुनिक तरीके की बर्बरता ने सामाजिक चेतना को झकझोर दिया है। सर्वप्रथम भारत में सन् 1870 में लार्ड मेयो ने भारत में अधिनियम आठ पारित करके कन्या शिशु की हत्या पर पाबन्दी लगायी थी। इससे पहले भी 1715 और 1804 में इस सम्बन्ध में अधिनियम बना दिए गए थे। लेकिन यह प्रभावी नहीं हो पाया। राष्ट्रीय अभिलेखागार में ऐसे दस्तावेज मौजूद हैं, जिससे पता चलता है कि उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में सात गाँवों में जाँच करने पर 104 लड़के और मात्र एक लड़की पायी गयी । इन गाँवों के सर्वेक्षण का हवाला यह स्पष्ट करता है कि उन ग्रामीणों को कन्या विवाह कभी देखने को नहीं मिला।

भारत स्वतन्त्र हो गया, पर हमारे मन अभी अपनी पुरानी सोच के गुलाम हैं। तभी तो इस पर अंकुश लगाने के लिए सन् 1988 में महाराष्ट्र विधानसभा में विधेयक पारित कर भ्रूण जल परीक्षण को अवैध घोषित कर अग्रदूत की भूमिका निभायी। सात वर्षों बाद मई 1994 में राजस्थान सरकार ने उक्त परीक्षण पर पाबन्दी लगाकर प्रशासन की सार्थकता को सिद्ध किया। तभी तो वहाँ गर्भस्थ शिशुओं का लिंग परीक्षण करने के लिए दोषी व्यक्ति को तीन माह की सजा और दस हजार जुर्माने का प्रावधान है। दूसरी बार दोषी पाए गए व्यक्ति को पाँच साल की कैद व 50,000 जुर्माना भरने का नियम बनाया गया है। पंजाब में इस तरह के अपराधी को तीन साल की कैद व जुर्माने का प्रावधान है।

इन सरकारों के अपने राज्यों में रोक लगाने से पहल 1975 में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ने गर्भ जल परीक्षण पर रोक लगा दी थी। ‘फोरम अगेंस्ट सेक्स डिटरमिनेशन एण्ड सेक्स प्री सेलेक्षन’ नाम से इन भ्रूण हत्याओं को रोकने के लिए एक फोरम भी गठित हो चुका है। अब तो केन्द्र सरकार भी जुलाई 1994 में एक बिल पास कर चुकी है। अधिनियम की धारा 312 के अनुसार अजन्मे शिशु की हत्या एक अपराध है। अपराधी को 3 वर्ष की सजा या जुर्माना भरना होता है। धारा 315 के तहत तो इस सम्बन्ध में 10 वर्ष की सजा तक का दण्ड है। इन तमाम सारे कानूनों के बावजूद मानवीय बुद्धि की कुटिलता इन कानूनों का, संविधान का मजाक उड़ाती रहती है। अपनी घिनौनी सोच की मृगमरीचिका को पकड़ने के लिए रोज अनगिनत भ्रूण हत्याएँ होती रहती हैं।

इन हत्याओं से विश्वभर के विचारशील सहमे हुए हैं। सभी एक स्तर से सोच रहे हैं, क्या हम सब मनुष्य कहलाने वाले वाकई मनुष्य हैं? ‘वुमंस ग्लोबल लीडरशिप’ के डायरेक्टर चार्चोट बंच ने कहा है-”प्रजातन्त्र, विकास, शान्ति और वातावरण की तरह नारी को पुनः परिभाषित किया जाना नितान्त आवश्यक है।” महिला विश्व सम्मेलन के यू.एन. सेक्रेटरी जनरल गरट्युड मोंगला के मतानुसार-महिलाओं के प्रति वर्तमान दृष्टिकोण इस युग की सबसे बड़ी त्रासदी है। उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक स्वतन्त्रता का अधिकार देने से भी वंचित रखना चाहते हैं। यह हमारी बर्बर मानसिकता हमारे मनुष्यत्व पर प्रश्न चिन्ह है। अच्छा हो मनुष्य जाति अपनी गरिमा पर इस सवालिया निशान को समय रहते मिटा डाले और कन्या के जन्म को अपने परिवार में देवी अवतरण की भाँति प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करे। आगामी भविष्य इन्हीं कन्याओं का है। भगवान् महाकाल अपने अटल विधान से इक्कीसवीं सदी में यही साबित करने वाले हैं-”कन्या प्राप्ति ही सौभाग्य का प्रतीक है-पत्र प्राप्ति नहीं।” यह स्थिति अवश्यंभावी है, तब अपने ऊपर हत्यारे होने का कलंक क्यों लें? किसलिए ये मासूम हत्याएँ करें?


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118