वे प्रथम दंपत्ति

September 1996

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मैं तुम्हारे स्पर्श को पहचानता हूँ। पुरुष ने सहज स्वर से कहा। “मुझे तुमसे कोई भय नहीं और न मैं उस प्रकार चौंककर भागूँगा, जैसे तुम भागती हो।” उसने धीरे से दोनों हाथ पकड़ लिए और नेत्रों से उन्हें हटाते हुए पीछे देखा।

“सचमुच तुम बड़े निर्भीक हो।” नारी के स्वर में किंचित आश्चर्य था। “यदि कोई डायनोसौर या गुरिल्ला होता हो ?”

“डायनोसौर आँखें नहीं ढक सकता और न इस पहाड़ी पर चढ़ सकता है।” पुरुष ने हाथ छोड़ दिया था। “गुरिल्ले के हाथ तो होते हैं किन्तु वह आँखें ढ़ककर शान्त न खड़ा रहता। मैंने तुम्हें गुफा में सोते देख लिया था।”

“यदि मैं उठकर तुम्हारे सिर पर पत्थर दे मारती ?” नारी को स्वतः आश्चर्य था कि उसने ऐसा क्यों नहीं किया। उसकी आखेट भावना कहाँ चली गई थी ? “मेरे पास खूब बड़ा पाषाण भल्ल है।”

“मुझे पता है।” पुरुष ने सहज स्वर में कहा - “मैंने उसे देख लिया था, द्वार पर से। मेरे भल्ल से आधा ही तो है। मैं एकाकी ऊब गया हूं। तुमसे मित्रता करना चाहता हूँ। तुम आक्रमण कर सकती हो, यह बात मेरे ध्यान में थी। किन्तु मैंने सोचा तुम अधिक चोट नहीं पहुंचा सकोगी। सुकुमार हो तुम।”

“तुम बड़े दुष्ट हो।” नारी इस नवीन स्तुति से प्रसन्न हो गयी थी। आज प्रथम बार उसकी किसी ने प्रशंसा की थी। उसे विचित्र लगी यह स्तुति। तनिक हंसते हुए उसने कहा “मेरी गुफा तक सोते समय आ गए। भीतर झाँकते रहे। गुफा की ओर पीठ करके बैठक गए। कुशल थी कि भूख नहीं लगी थी, नहीं तो मारकर खा भी जाते।” भय से सचमुच वह सिहर उठी और दो पग पीछे हट गयी।

“मुझे माँस से घृणा है।” पुरुष ने विरक्ति भाव से एक ओर थूक दिया। “फल और जड़ें मुझे अच्छी लगती हैं और खूब मिल भी जाती हैं। आखेट तो मैं केवल डायनोसौर, गुरिल्ले और शेर जैसे उन जानवरों का करता हूँ, जिनसे मुझे आक्रमण का भय है।” अपनी भुजा उठायी उसने, सुपुष्ट मांसपेशियों पर नारी की दृष्टि आकर्षित हुए बिना न रहीं।

पुरुष की ओर प्रशंसा भरी दृष्टि से देखते हुए वह बोली, “लेकिन डायनोसौर तो बहुत बड़ा होता है, उसे कैसे मार लेते हो ? “ उसके कथन में पुरुष के पौरुष के प्रति आश्चर्य मिश्रित प्रशंसा थी। इस ओर से अनभिज्ञ पुरुष ने कहा “डायनोसौर भारी भरकम जरूर होता है, लेकिन अपने सिर पर की गई चोट को वह बर्दाश्त नहीं कर पाता।”

“ओह” नारी ने मृदु स्वर से कहा, “ मैं अवश्य चीख पड़ती, यदि तुम्हें अपनी गुफा में देख लेती।” अब तक वह समीप आकर बैठ गयी थी।

“भय की बात तो थी।” पुरुष के स्वर में आदेश का भाव था। “तुम गुफा द्वार खुला छोड़कर सो गयी थी। कोई भी शेर या गुरिल्ला भीतर घुस सकता था। ऐसा नहीं करना चाहिए।”

“सचमुच भूल हो गयी।” नारी जैसे सफाई दे रही हो। “बहुत थक गयी थी। एक हिरण के पीछे बहुत भागी थी प्रातः से। आकर लौटी और सो गयी। ऐसा कभी पहले नहीं हुआ।”

“मैं तुम्हारी गुफा देख लूँ।” पुरुष उठ खड़ा हुआ। उत्तर की उसे कोई अपेक्षा न थी। नारी उसका अनुगमन कर रही थी।

“तुम मृगचर्म पर सोती हो ?” एक विस्तीर्ण शिला पर वह फैला था। “यह है तुम्हारा भल्ल ? बहुत छोटा है और हलका भी है।” पुरुष ने उसे उठाया, उछाला ऊपर को और फिर पकड़कर यथास्थान रख दिया।

“अब मैं सोउंगा।” गुफा को उसने अधिक बारीकी से नहीं देखा। मृगचर्म पर लम्बा लेट रहा। जैसे यह उसी की गुफा हो।” तुम यदि कहीं जाने लगो तो गुफा द्वार शिलावरुद्ध कर देना।” अत्यन्त परिचित की भाँति उसने कहा।

“तुमने न तो कन्द देखे, न फल।” पुरुष के गुफा में प्रवेश करते समय तो नारी डर रही थी कि वह उसका संचय खा जाएगा। किन्तु उसकी निरपेक्षता ने उसके मन में दूसरी भावना जाग्रत कर दी। सम्भवतः यह अतिथि सत्कार का प्रथम प्रयास था इस धरती पर। “मैंने पूरा मधुछत्र ला रखा है और नारियल पात्र में झरने का शीतल जल भी है।”

“मैं तुम्हें लूटने नहीं आया था। पुरुष उठ बैठा। किंतु अब तो कुछ खिला दो।” उसने उठकर कोई वस्तु ढूंढ़ने या पाने का प्रयास नहीं किया।

“जो अच्छा लगे खा लो !” नारी अचानक ही गृहिणी हो गयी थी। उसने सब कन्द और फल पुरुष के सामने रख दिए। एक नारियल के खोपरे में मधुछत्र निचोड़ दिया और जल पात्र भी ला रखा। “मेरे लिए थोड़ा मधु छोड़ देना।”

“मैं अकेला कहाँ भोजन करने जा रहा हूँ।” नारी का हाथ पकड़कर पुरुष ने उसे भी समीप बैठा लिया। “तुम भी खाओ ! फल और कन्द बहुत हैं और मधु भी दोनों के लिए पर्याप्त है।” पहली बार पुरुष ने स्थिर बैठकर भरपेट भोजन किया।

भोजन करके लेट गया वह उसी मृगचर्म पर। लेटते ही खर्राटे लेने लगा। नारी देखती रही, देखती रही उसे और फिर अपना पाषाण भल्ल उठाकर द्वार पर जा बैठी।

“तुम्हारी गुफा छोटी है।” भली प्रकार निद्रा लेकर पुरुष उठा था। गुफा से निकलकर नारी के समीप बैठते हुए उसने कहा, “अब दोनों साथ साथ एक ही गुफा में रहें, यही अच्छा होगा। मेरी गुफा पर्याप्त बड़ी है और इससे कहीं अधिक सुरक्षित भी।”

उसी दिन सायंकाल नारी अपना भल्ल और नारियल पात्र एवं मृगचर्म लेकर पुरुष की गुफा में आ गयी। सम्भवतः उसी दिन से नारी ने स्वगृह त्याग कर पतिगृह का निवास अपनाया।

अभी भी धरती पर महाकाय डायनासौर का अभाव नहीं हुआ था। दलदलीय भूमि में वे चालीस से साठ हाथ लम्बे प्राणी जिनका रूप मगर एवं गिरगिट से मिलता जुलता था, भरे पेड़ थे। प्रायः ये झील के पन्द्रह बीस हाथ जल ही में रहते थे। जहाँ सघन लम्बी घासें उगी होतीं।

सूखी धरती पर सबसे बड़ा प्राणी था, मैग्नेशियम। यह भी डायनोसौर प्रजाति का ही था। फल एवं पत्ते इसके आहार थे। कंचे बड़े पेड़ों की तीन चार फुट मोटी डालियों को वह मूली के समान तोड़ डालता था। शेर व्याघ्र को वह इस प्रकार चीर फेंकता, जैसे हम सब प्रातः काल दातून चीरते हैं। उसके अतिरिक्त शेर, व्याघ्र, उनी भैंसे, त्रिखंगी गैंडा ये सब महाभयंकर प्राणी थे उस घोर वन में।

वृक्षों पर गुरिल्ले भरे पड़े थे और वे सब माँसाहारी जाति के थे। ये दलदल से दूर रहते थे। तीन चार हाथ लम्बे पतंगे भी अपने पैर धसाकर पशुओं का रक्त पी जाने को बहुत थे। उनकी स्फूर्ति और गति ठीक आज के जुलाहे पतिंगे सी थी। सूखी भूमि एवं खोहों में अजगर तथा दूसरी जाति के सर्पों की कमी नहीं थी।

सबसे भयंकर थी डायनोसौर की एक अन्य प्रजाति। वह पृथ्वी पर, दलदल पर और जल में समान गति करता था। यह माँसाहारी अपने से दूने तिगुने मैग्नेशियम या अन्य प्रकार के ब्राँटोसौर का सरलता से शिकार कर लेता था। उसके पंजे व्याघ्र से भी अधिक सुदृढ़ थे। दूसरे पशु इसके लिए चींटी जैसे तुच्छ थे।

दिनभर भयंकर गर्मी पड़ा करती थी। धरती ढकी थी ऊंचे वृक्षों, लताओं एवं घासों से। दलदल अधिक था। वायु में नमी भरी ही रहती थी। संध्या अल्पकालीन होती थी। रात्रि में सूची भेद्य अन्धकार को ज्येष्ठ की छाया या धूप की भांति एक से दूसरी पंक्ति को डुबाते आते देखा जा सकता था।

मानव जलप्लावन के पश्चात् आर्यावर्त में नाम को ही था। उस समय इसका नाम शाकद्वीप था। हमें पता नहीं उस समय दूसरा मानव भी वहाँ था या नहीं। हमें केवल इसी वन्यमानव का पता है, जो आज की समूची मानव प्रजाति का आदि पुरुष था। एक उजाड़ टीले पर जिसके चारों ओर खुली भूमि थी, कुछ दूर वह गुफा में रहता था। टीले में एक ही गुफा थी और गुफा के दरवाजे पर खूब सघन ऊंचा एक पेड़ था। सुरक्षा की दृष्टि से उस मानव ने यह स्थान चुना था।

वह रक्षा के लिए एक खूब भारी पाषाण भल्ल रखता था। उसकी गुफा में शेर एवं भैंस के कई कच्चे चमड़े पड़े थे। जंगल में फल, कंद एकत्र करते समय इन आक्रमणकारी पशुओं का उसने आखेट किया था। सुपुष्ट माँसपेशियाँ, वृक्षों पर चढ़ने एवं सरकने को पुट्ठे, घुँघराले काले बाल, कुछ अधिक बड़े रोम, मंदे एवं श्मश्रु, उसका साढ़े चार हाथ ऊंचा साँवला शरीर बड़ा भव्य था।

उस दिन वह कन्द लेने गया था। सहसा चौंक पड़ा। हाथ में छोटा सा भल्ल लिए, कुछ छोटा, कुछ दुर्बल यह कौन प्राणी है ? लताओं की ओट में ही रहा वह। निकट से देखने का अवकाश मिला। उसके केश अधिक लम्बे हैं। शरीर पर रोम भी नहीं, न मूँछें ही हैं और न दाढ़ी। वृक्ष पर दो ऊंचे माँस पिण्ड।

उसने लक्षित कर लिया उसका अपने शरीर से अलगाव। उसका शरीर चिकना और कोमल है। माँसपेशी जैसे है ही नहीं। पता नहीं क्यों उसे दूसरे मानव के प्रति वह आकर्षित हो गया। यह आकर्षण सजातीयता के कारण ही था सम्भवतः। जलप्लावन में वह शिशु ही था, तभी वह अकेला रह गया था। वह पुरुष स्त्री के भेद से अब तक परिचित ही नहीं था। लताओं की ओट से तनिक दूर हटकर वह उसके दृष्टि पथ में आया। निकट प्रकट होने से यदि आक्रमण कर दे तो ? वह भयभीत नहीं था , किन्तु इस सजातीय प्राणी का वध उसे अभीष्ट नहीं था। यह भी सम्भव था कि वही डरकर भाग जाये। ऐसा होने पर परिचय का पथ ही अवरुद्ध हो जाएगा।

उसने भी इसे देखा। चौंकने के पूरे लक्षण प्रकट हुए। देखता रहा एकटक वह प्राणी इसे देर तक। सम्भवतः सादृश्य एवं वैभिन्नय की तुलना कर रहा था। अचानक किलकारी मारी उसने। न जाने किन पुरातन संस्कारों अथवा ईश्वरीय प्रेरणा से उसके मन में गूँज उठी, ओह, नारी है।’ पुरुष अपने मन ही मन कह उठा। चपल है, इसीलिए और उसका कण्ठ स्वर भी कितना कोमल है। उत्तर में उसने किलकारी नहीं दी। जानता था कि इसकी गम्भीर ध्वनि से वह डर जाएगी। केवल वह हंस पड़ा। हाथ के संकेत से उसे समीप बुलाया और उसकी ओर बढ़ा। सहसा वह भाग खड़ी हुई। लम्बी छलाँगें लीं हिरण की भाँति और एक दूसरे झुरमुट में होती अदृश्य हो गयी। पुरुष ने पीछा तो किया पर व्यर्थ। उसे खेद हुआ। पता नहीं क्यों, मन अवसाद से भर गया। फल और कन्द एकत्र न कर सका। गुफा में लौट आया और अपनी शिला पर चुपचाप पड़ा रहा।

अब पुरुष नित्य उसी ओर जाने लगा, जिधर नारी दिखाई पड़ी थी। क्या वह दूसरी ओर के जंगल से परिचित है ? अथवा वह भी पुरुष को देखना चाहती है ? कौन जाने ? वह तो सदा दूर ही रहती है। हंसती है, किलकती है किन्तु बुलाने पर अपनी ओर मनुष्य को आते देखते ही भाग खड़ी होती है।

एक दिन पुरुष लताकुन्ज में छिपा बैठा रहा। समय से बहुत पहले गया था वह। वह आयी, इधर उधर देखती रही देर तक। क्या वह पुरुष को ढूंढ़ रही थी ? उसने देखकर उसके मुख पर खिन्नता के चिन्ह प्रकट हो गाए। उदास होकर लौट पड़ी। पुरुष ने चुपचाप पीछा किया। वह सीधे अपनी गुफा पर गयी। पुरुष ने निवास स्थान दूर से देखा और लौट आया। ,

तब से न जाने कितनी बार वह उसकी गुफा के द्वार तक गया होगा, पर मिला नहीं शायद वह उसे नाराज नहीं करता चाहता था। नारी के प्रथम दर्शन से ही उसके मन में कोमल भावनाएं अंकुरित हो गयी थी। जो शायद इतने दिनों में प्यार में बदल गई थीं यह धरती का पहला प्यार था। नारी भी तो उसे देखना चाहती थी, पाना चाहती थी। पर उसे तो उसका निवास भी नहीं मालूम था।

और आज जबकि वह नारी के गुफा के पास पहुँचा, तो वह सो रही थी। न जाने क्या सोचकर वह वहीं पास में बैठ गया। न जाने कितनी देर तक बैठा रहा वह। उसे पता तो तब चला, जबकि नारी ने पीछे से आकर उसकी आँखें बन्द कर लीं और फिर तो अपरिचय-परिचय में बदल गया। दूरी समीपता में बदल गई। प्यार और प्रगाढ़ हो उठा।

अब तो कितने दिन उन दोनों को साथ रहते भी बीत गए। “मेरा मन अब यहाँ नहीं लगता।” एक दिन पुरुष ने नारी से कहा। वह गुफा में पुरुष के समीप ही बैठी थी। “ यहाँ मैं दो बार अस्वस्थ हो चुका।”

“तब चलो।” नारी ने निश्चिन्त उत्तर दिया। “हम दोनों मेरी पहली गुफा में रहें या जहाँ आपकी इच्छा हो।”

“मेरी बीमारी, ओह” पुरुष का स्वर खिन्न था। “पता नहीं कहाँ कहाँ से तुम अधजले खरगोश ले आती हो।”

“तुम तो यों ही रूठ जाते हो।” पुरुष के कन्धे पर अपनी दाहिनी भुजा रखते हुए नारी ने कहा, “यह खूब स्वादिष्ट था, यह तो तुम्हीं कहा करते हो। दावाग्नि तपने दो, मैं ढेरों ला दूँगी।”

बीमारी में नारी पुरुष को छोड़कर फल एकत्र करने भी नहीं जा सकी थी। सौभाग्य से समीप के वन में दावानल धधक उठा। पुरुष को प्रथम बार आग में पका माँस मिला। वह उसका स्वाद भूल नहीं पाता था। कच्चे माँस को भी उसने मुख में डाला, किन्तु खा नहीं सका।

“मैं दावाग्नि को ढूँढूँगा।” पुरुष निश्चय कर चुका था। दावाग्नि को। नारी चौंकी, ना, ना ! कहीं उसी में फंस गए तो ? वह भय विह्वल हो उठी। इतने दिनों में उसकी प्रीति प्रगाढ़ हो उठी थी। वह पुरुष को खोना नहीं चाहती थी।

“मैं दूर रहकर ही उसे ढूँढूँगा।” पुरुष ने समझाते हुए कहा और सुरक्षित रहूँगा।”

हम खरगोश भूनेंगे। एक क्षण में नारी खिल उठी “ उसे उसी में भूनेंगे। दावाग्नि काष्ठ हो तो खाता है, हम उसे काष्ठ खिलाते रहेंगे। वह बड़ा और मोटा होकर हमें नहीं खा सकेगा और हम उसे मरने भी नहीं देंगे। हम उसे अपनी गुफा से दूर ही पालेंगे, दूसरी गुफा में।” नारी ने पूरा आविष्कार कर लिया था, अग्नि रक्षण प्रणाली का। लेकिन उसे भय था कि अपनी गुफा में पालने पर अग्नि रात्रि को सोते समय कहीं उन्हीं दोनों को न खा जाए।

“तुम्हारे लिए ढेरों कन्द और फल दो चार दिन में यहाँ एकत्र कर दूँगा और कई मधुछत्र भी।” पुरुष ने नारी के उल्लास में कोई योग नहीं दिया। पता नहीं क्यों वह आज उदासीन हो रहा था। मैं एकांकी जाऊंगा।”

एकाँकी ? नारी चौंकी। “मुझे साथ नहीं चलने दोगे ? मैं तुमसे कुछ नहीं माँगूँगी। तुम्हारे लिए फल और कन्द ला दिया करूंगी। तुम्हारे दावाग्नि को पालूँगी।” उसका गला भर आया था। पुरुष के कण्ठ में उसने दोनों भुजाएं डाल दीं।

“ऐसा कुछ नहीं !” रक्षतापूर्वक नारी के हाथों को कण्ठ से अलग करता हुआ पुरुष कह रहा था “में एकाँकी ही जाऊंगा।”

“तब मुझे मार डालो।” वह सहसा खड़ी हो गयी। पुरुष का भल्ल कोने में से उठा लायी। उसे पुरुष के सम्मुख बढ़ाकर उसके सम्मुख खड़ी गयी। नेत्रों से दो धाराएं चल रही थीं और हिचकी बंध गयी थी। पुरुष ने भल्ल लिया ही नहीं, भल्ल नारी हाथों से छूटकर धड़ाम से गिर पड़ा। वह वहीं बैठकर घुटनों में मुख छिपाकर सिसकने लगी।

“ओह, मैं तुम्हारे प्रेम के सामने पराजित हुआ।” वह सचमुच स्वयं को नारी की भावनाओं से बंधा महसूस कर रहा था। उसकी हिंस्र वृत्तियाँ भी इतने दिनों में कोमल भावनाओं में बदलने लगी थीं। “लेकिन तुमने मुझे खूब जान तो लिया है न ? उसे स्वर में आशंका का पुट था।”

“जान लिया है, तुमने खूब अच्छी तरह से शेर को, टीले को।’8 नारी ने अब समझ लिया था कि पुरुष की आशंका झूठी थी। अतएव उसके स्वर में रोष था, “मुझे तो यह जानना भर पर्याप्त था कि तुम विश्वसनीय हो, मेरे दुःख सुख के साथी हो, बस प्रेम कहो या अपनत्व उसके लिए विश्वास मात्र पर्याप्त है।” पुरुष उसकी इन भावनाओं के सामने अपनी शारीरिक बलिष्ठता के दर्प को चकनाचूर हुआ महसूस कर रहा था। उसने आज से पूरी तरह अपने को नारी के हवाले कर दिया। आज वह पूर्ण रूप से गृहस्वामिनी बन चुकी थी। वह उसका सहायक था। इस धरती पर वे प्रथम दम्पत्ति थे।


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