आप माँ हैं, माँ ही बनी रहें

September 1996

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माँ की ममता, पिता का प्यार ,सहेलियों का स्नेह और मधुर विनोद के सुखद वातावरण को छोड़कर बेटी बेटी अपने ससुराल आती है। यह आगमन उसके दूसरे जन्म की तरह है। बचपन के सुखद सम्बन्धों से विदा होते समय उसकी आंखों में विरह-वेदना के सागर उमड़ आते हैं। ऐसे अवसर पर माँ की स्नेहिल पुचकार और पिता के संरक्षण के समान ही वातावरण मिलना आवश्यक हो जाता है। नए घर में पदार्पण करने पर उसे पूरा वातावरण बदला नजर आता है। सभी परिजन नए-नए दिखते हैं। वहाँ वह किंकर्तव्यविमूढ़ की सी स्थिति में आ जाती है। यदि उसे वहाँ भी सास का मधुर आश्वासन मिल सके, उसका सम्मान दिया जा सके तो, नवविवाहित बहू को किंचित मात्र परायापन महसूस न होगा। वह अपने सारे दुःखों को भूलकर इस अपरिचित वातावरण में शीघ्र ही घुल- मिलकर सुख का अनुभव करने लगेगी । बहू के लिए ऐसा स्नेहिल व्यवहार उपस्थित करने का सारा श्रेय सास को रहता है। वह चाहे तो उसे अपनी बेटी बनाकर रख सकती है या इसके विपरीत दासी के समान भी । यह सब उसके प्रति भावनाओं पर निर्भर करता है।

सास केवल सास नहीं , वह वात्सल्यमयी माँ भी होती है। इस गौरवान्वित पूजनीय पद से विभूषित होती है। उसके हृदय में अपनी लड़की के प्रति अपार स्नेह भारा रहता है। वह उसके सुखों का ध्यान रखती है। पुत्री से किसी कार्य में भूल हो जाने पर, काम बिगड़ जाने पर वह उसे सहन कर लेती है। उसकी आँखों में रोष नहीं आता, उसे प्रेमपूर्वक समझा दिया जाता है। उसका सहज सरल हृदय बेटी के प्यार के रूप में ही प्रदर्शित होता है। पराए घर से आयी बहू भी किसी माँ बेटी होती हैं। वह पराई तो होती है, किन्तु सास का हृदय तो माँ का ही रहता है। उसे तो अपने हृदय में कुटिलता लाकर माँ शब्द की गरिमा कम नहीं करनी चाहिए। वास्तविक रूप से देखा जाए ओर सोचा जाए तो बहू ही जीवन भर सेवा करने वाली, गृहस्थी की भावी मालकिन परिवार के भाग्य को बनाने वाली ,पुत्र के जीवन की साथी , धर्म की पुत्री , सच्चे प्यार की पात्र तथा उत्तराधिकारी होती है।

नए परिवार में आते ही उसे इसकी कुल परम्परा , रीति -नीति , सदस्यों के स्वभाव को समझने का अवसर नहीं मिल पाता और आते ही उस पर क्षमता से अधिक भार लाद दिया जाता है। सेवा रसोई व्यवस्था तथा अन्य काम उसे ही बिना सहयोग-सहारे के करने पड़ते हैं। वह इनसे पूरी तरह परिचित नहीं रहती । फलतः जीवन के व्यवहार में, शिष्टाचार में, गृहव्यवस्था में भूल हो जाना स्वाभाविक है। ऐसे अवसर पर भूल का प्रतिफल झिड़क रोष , ताने तथा आक्षेपों के रूप में मिले तो वह दुःखी होती है, निराश हो जाती है। बहु के अन्तःकरण में भी कोमल हृदय, भावनाएँ सम्वेदनाएँ छिपी रहती है। वह कोई खरीदी गई भौतिक जड़ वस्तु नहीं, न ही दासी होती है, जिसके साथ स्नेह विहीन , बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया जाए । मानवता यही कहती है कि बहू के साथ अपने पेट से जन्मी पुत्री से भी ज्यादा प्यार किया जाना चाहिए। जो भी सास स्वयं को बहु कि माँ समझकर रहती है, उसके अनुरूप ही आचरण करती है, उसके घर में सदा-सर्वदा ही सुख की वंशी बजती रहती है।

नवविवाहिता बहू को गृहस्थी के कर्तव्यों को निभाने की योग्यता, व्यावहारिकता और जिम्मेदारी का ज्ञान न होने पर गृहव्यवस्था का भार सम्हालना एक मुसीबत का कारण बन जाता है। ऐसे नयेपन में सास-ससुर तथा अन्य सदस्यों का स्नेह ,उनकी सहानुभूति न मिल पाने की अवस्था में परिवार के दुःख का अनुभव होता है। उस परिवार के प्रति आत्मीयता नहीं जुड़ पाती । सास का दायित्व है कि बहू को अपनी बेटी के समान सभी कार्यों में प्रशिक्षण दे। उसे सहानुभूति प्रदान करे तथा यथासम्भव परामर्श सहयोग भी प्रदान करे।

बहू की छोटी-छोटी भूलों और गलतियों को पहाड़ के बराबर बताने वाली तथा इनकी चर्चा हर जगह करने वाली सास दूसरों को भी ऐसी प्रेरणा देती है। इस प्रकृति को देखकर अन्य महिलाएँ भी तमाशा देखने के लिए उसके कान भरने शुरू कर देती है। कान की कच्ची सास उस पर विश्वास कर लती है और बहू का जीवन दूभर कर देती है। किन्हीं अन्य लोगों द्वारा बहू की निन्दा की जाने पर उसे प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए । बहू का पक्ष लेकर उसकी अच्छाइयों को सामने लाकर प्रशंसा ही करनी चाहिए । निन्दक इससे आगे ऐसी बातें करना छोड़ देता है। बहू की गलती के सुधार का आश्वासन देकर उसकी इज्जत बचा लेना ही सुयोग्य सास के लक्षण है। सास के इस तरह के व्यवहार से बहू के मन में सास के प्रति सम्मान और श्रद्धा का सहज उदय होता है। अपनी बहू की निन्दा सुनकर उसमें नमक - मिर्च मिलाकर बढ़ा देने वाली सास कुटिला ही कही जा सकती है। इससे हृदय की कुटिलता ही उजागर होती रहती है।

लड़की माँ के घर लाड़ - प्यार में पली होती है। वहाँ पर भाभी द्वारा ही सभी कार्य कराये जाते हैं। भाभी की उपस्थिति में ननद रानी से कम नहीं मानी जाती । फलतः उसे गृहस्थी के कार्यों का अनुभव नहीं हो पाता। अतः उसे सहयोग तथा प्रोत्साहन देना अति आवश्यक होता है। सास का कर्तव्य है कि वह अपने अनुभवों का लाभ उसे दे। अपने संरक्षण में गृहस्थी के कार्यों में दक्ष किया जाना ही इस सम्बन्ध का श्रेष्ठ आदर्श है।

अपने घर में नए प्रगतिशील विचार वाली शिक्षित बहू के प्रवेश से सास को प्रसन्नता होनी चाहिए। उसके क्रिया-कलापों में अपना सहयोग देकर प्रोत्साहन देना तथा प्रशंसा की जानी चाहिए, न कि उससे ईर्ष्या कर उसकी निन्दा । युग के बढ़ते चरणों के साथ घर -परिवार की परम्पराओं लोगों के व्यवहारों में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। दुनिया के साथ चलने के लिए आवश्यक भी है कि उसके कदमों के साथ अपने कदम मिलाकर चलें । पुरानी रूढ़िवाद में जकड़ी सास को नवपीढ़ी के लोगों के व्यवहार पसन्द नहीं आते खास कर बहू के । यदि वे व्यवहार उसकी

बेटी करती है, तो वे क्षम्य होते हैं। उनके लिए सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं, किन्तु बहू के ऊपर प्रतिबन्ध लगाए जाते हैं।

प्रगतिशील विचारधारा वाली बहु के विचार प्राचीन रूढ़ियों के शिकंजे में फँसी सास को पसन्द नहीं आते। उसके नव आदर्शों को देखकर वह आगबबूला होती रहती है। अपने पति के साथ हँसना-बोलना, मनोरंजन करना, अध्ययन करना, पास-पड़ौस की महिलाओं के साथ वार्ता करना, उनके साथ हेल-मेल बढ़ाना तथा अन्य व्यवहार उसे फूटी आँख नहीं सुहाते। वह अपनी पुरानी रूढ़ियों को छोड़ना नहीं चाहती और बहू को भी अपने चरण-चिह्नों का अनुगमन करने के लिए बाध्य करती है। उसकी स्वाधीनता को वह किसी भी हद तक क्षमा नहीं कर पाती। इन्हीं बातों को लेकर बहु को डाँटती है तथा जमाने का रोना रोती रहती है।

किसी परिवार में मूढ-मान्यताओं के कारण भी कलह पैदा होता है। पारिवारिक, आर्थिक अभाव, गरीबी, घर में चारी, किसी की मृत्यु, धन -जन की हानि, फसल में घाटा, पढ़ाई या तरक्की में रुकावट, प्रकृति-प्रकोप, हारी-बीमारी, दुर्घटना आदि को बहू के आगमन तथा उसकी छाया के साथ जोड़ दिया जाता है। किसी सयाने या ओझा से इस बात की साक्षी भी प्राप्त करली जाती है। इस भ्रम में फँसकर बहू के अन्य गुणों पर पर्दा डालकर उसके प्रत्येक कार्य में बुराई ही देखी जाती है। उसके द्वारा कोई अच्छा कार्य सम्पन्न हो जाने पर या सफलता मिल जाने पर श्रेय स्वयं सास ले लेती है या अपनी पुत्रियों को देती है, किन्तु यदि किसी के द्वारा भी कोई काम बिगड़ जाए तो उसका सारा दोष बहु पर मढ़ दिया जाता है।

आर्थिक दृष्टि से वर एवं वधू पक्ष वालों की समानता कहीं-कहीं ही मिलती है। अक्सर बहू धनी परिवार से ब्याही जाती है या अपेक्षाकृत गरीब परिवार से। इन दोनों ही स्थितियों में सास बहू को उलाहना देती है। धनी परिवार से ब्याही बहू के ठाठ-बाठ..सभ्य व्यवहारों को देखकर उसे जलन होती है। उसे यह शंका बनी रहती है कि परिवार के अन्य सदस्यों की दृष्टि में बहू की इज्जत बढ़ न जाय, जिससे स्वयं की इज्जत कम हो जाएगी। अतः उसकी प्रगति में सहयोग देने की अपेक्षा, उसके कार्यों की निन्दा कर उसका सम्मान गिराना चाहती है। बहू को चालाक, निकम्मी, बदमिजाज, घमण्डी आदि का दोष लगाकर अन्य सदस्यों के कान भरती है। स्वयं की बड़ाई कर ढ़ींग हाँकती हैं। गरीब घर की बहू आने पर अपने धन का रोब गाँठती है तथा उसके पीहर के घर के अभावों का ताना देकर उसे तिरस्कृत करती है। हर बात पर उसका अनादर कर नौकरानी तथा उपेक्षित की तरह व्यवहार करती है। घर की व्यवस्था में उसकी सलाह नहीं ली जाती है, न ही सम्मान दिया जात है।

जबकि होना यह चाहिए कि नवदंपत्ति की भावनाओं की सन्तुष्टि के लिए उन्हें पूरा अवसर दिया जाय। उनके दाम्पत्य सूत्र को स्थायित्व देने का अवसर प्रदान कर उन्हें सजीव बनाने में अपनी ओर से पूरा प्रयास किया जाना चाहिए। बहू-बेटे का जीवन आत्मीयतापूर्ण वातावरण में व्यतीत हो रहा हो, तो अपने भाग्य की सराहना की जानी चाहिए। उनकी उन्नति-प्रगति की आशा हो तो उसमें अपनी ओर से बाधाएँ उपस्थित नहीं करनी चाहिए। इस तरह के आदर्श विचार किसी परिवार में आ जाएँ तो ये सुखों का आधार तथा प्रगति का द्वार खोलने में सहयोगी हो सकते हैं।

बहू के सामने या अन्य किसी भी व्यक्ति के सामने उसके माँ-बाप से सम्बन्धित कोई चर्चा, विवाह में लेन-देन, बारात, दहेज आदि की उखाड़ -पछाड़ कर उसके पीहर वालों का अपमान नहीं करना चाहिए और न ही उनके प्रति भर्त्सना भरी बातों का प्रयोग, हो सके तो हमेशा ही उनकी बड़ाई करते हुए उनके प्रति कृतज्ञता ही प्रदर्शित करनी चाहिए, क्योंकि उन्होंने अपने जीवन का सजीव अंश सेवा के लिए समर्पित किया है। बहू के साथ हास-परिहास भी इसी तरह शीलयुक्त किया जाना चाहिए, न कि व्यंग्योक्ति से उसके हृदय में तीर की तरह चुभने वाला । वह अपनी प्रशंसा सुनकर अच्छाई की ओर अग्रसर होती रहेगी तथा सदा ही अपेक्षाकृत अच्छा बनने का प्रयास करेगी। सास में मुँह से बड़ाई सुनकर बहू भी उसका आदर करती है, हर काम में सहयोग देती है तथा आगे बढ़कर उसकी जिम्मेदारी लेती है।

गृहस्थी का अधिकार बहू को सौंपना, उसके मन में नए परिवार के प्रति अपनत्व की भावना को परिपुष्ट करना होता है। इसके सत्परिणाम कर्तव्यों के प्रति निष्ठा में दिखाई देते हैं। प्रत्येक कार्यों में अपनी मालिकी जताना, आदेश देना तथा घर-गृहस्थी की रोजमर्रा की सामग्री को ताले में बन्द रखना अविश्वास की जड़ होती है। इससे भी बहू अपने आप को पराई ही महसूस करती रहती है और वह किसी भी काम को कर्तव्य परायणता के साथ नहीं करती । इससे सारे परिवार की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। अतः उसे धीरे-धीर गृहस्वामिनी का अधिकार सौंपना हर तरह से उत्तम है। उस पर निगरानी रखी जाए, सुझाव दिया जाए परन्तु अधिकार जमाए रखना घातक एवं हानिकारक ही सिद्ध होता है।

बहू भी कुटुम्ब का अभिन्न अंग है। भविष्य में वह घर की मालकिन बनने वाली होती है। अतः उसके हर काम में रोक-टोक करना उचित नहीं । उसकी इच्छाएँ होती हैं, भावनाएँ होती हैं, आत्मा की भूख होती है। इनको परखते हुए उसे मर्यादित स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। ताकि वह स्वयं की आत्माभिव्यक्ति कर सके, अपनी प्रतिभाओं को विकसित कर सके। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता समाप्त हो जाने पर क्षमता कुण्ठित हो जाती है, घर काटने को दौड़ता है तथा आत्मिक शक्ति नष्ट हो जाती है। नए परिवार में घुलने-मिलने से लेकर दाम्पत्य हास-परिहास तक के सभी कार्यों के लिए उचित अवसर मिलना चाहिए। इस स्वतन्त्रता में बाधा आने पर संयुक्त परिवार का विभाजन हो जाने के संकट आ जाते हैं। अतः सास को बड़ी विवेकशीलता के साथ व्यवहार करना चाहिए। यदि व बहू को बेटी के समाने प्यार से रखे और स्वयं माँ की अनुभूति करें । इस पारस्परिक अपनत्व को देने वाला, घर में सुख-शांति बनाए रखने वाला एक ही मूल मंत्र है “आप माँ है, माँ ही बनी रहें।”


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