प्राचीन भारत की प्रगति का मर्म

September 1996

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आजकल भले ही नारी का कार्यक्षेत्र घर गृहस्थी तक सीमित कर दिया गया हो, पर प्राचीनकाल में वैसा नहीं था। सुविख्यात पाश्चात्य इतिहासवेत्ता अर्नाल्ड टायनबी के शब्दों में “आज के उन्नत और विकसित, सभ्य कहे जाने वाले देशों के लोग जिस समय नदियों और तालाबों, झरनों में घुटनों के बल झुककर जानवरों की तरह पानी पीते थे, तब भारत वासियों ने भूगोल, खगोल, विज्ञान, चिकित्सा, यंत्र विद्या के साथ गुह्य विधाओं का भी असाधारण विकास कर लिया था। आज का मानव चन्द्रमा पर पहुँचने में विज्ञान के बल पर अब समर्थ हुआ है। लेकिन भारत के प्राचीन महर्षि अपने योगबल से लोक लोकान्तरों का भ्रमण कर आते थे।” प्रश्न उठता है इतिहास में तो इसका विवरण मिलता नहीं। इसका उत्तर उक्त इतिहासकार ने इस प्रकार दिया है कि - “ भारतीय महर्षियों ने इतिहास लेखन को कभी महत्व नहीं दिया, क्योंकि उनकी दृष्टि में भौतिक घटनाओं से भी अधिक मूल्यवान दूसरी उपलब्धियाँ थीं। जिसे उन्होंने साँकेतिक भाषा में वैदिक साहित्य में सूत्रबद्ध कर दिया और उन्हें उपलब्धियों के बल पर ही हजारों वर्ष पूर्व भारत ने ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति कर दिखाई।

क्या यह प्रगति अकेले पुरुष ने की, नारी ने इसमें कोई योगदान नहीं दिया ? यदि ऐसा होता तो फिर प्रगति की चाल कछुए के समान रही होती और आज की तरह ही हम सब उसके कदम से कदम मिलाकर चलने में असमर्थ होते। प्राचीनकाल में नारियों ने पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर सहयोग किया और ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में विकास के साथ साथ समाज, राजनीति, धर्म, कानून, संगठन आदि सर्वांगीण उन्नति में पुरुष की सच्ची सहचरी बनकर रही। उसे प्रेरणा देती रही, बल प्रदान करती रही।

तभी तो प्राचीनकाल में भारतीय समाज को विश्व में सर्वाधिक उन्नत स्थिति प्राप्त है। नारी शिक्षा का आज भले अवमूल्यन किया जाता हो, भले ही उसके लिए वेद शास्त्रों और ऋचाओं - मन्त्रों तक का पाठ निशिद्ध ठहराया गया हो, लेकिन अतीत के भारत में ऐसा कोई विधि निषेध नहीं था, कि ज्ञान का क्षेत्र नारी के लिए वर्जित है और उसमें स्त्रियों को कोई भाग नहीं लेने दिया जाना चाहिए। ज्ञान क्षेत्र में नारी अनादि काल से ही नर के समान ही रही है। अनेक वेद मंत्रों के अवतरण में ऋषियों के ही नहीं, ऋषिकाओं के भी नाम मिलते हैं। नर और नारी को समान ऋषिपद प्राप्त होता था। वैदिक ऋचाओं की दृष्टा के रूप में विश्ववारा, गोधा, सरमा, अपाला, घोषा, शची, लोपामुद्रा आदि ऋषिकाओं का बड़ा सम्मानपूर्ण स्थान था। यही नहीं सर्वोच्च सप्तऋषि पद तक में नारियों को स्थान मिलता था। अरुन्धती का सप्त ऋषि पद पाना सर्वविदित है, पर आज स्थिति सर्वथा उलटी है। इन सब तथ्यों को भुलाकर महिलाओं को वेद मन्त्रों के पाठ तक का अधिकारी भी नहीं माना जाता। यह दुःख के साथ आश्चर्य की भी बात है कि जब नारियाँ वेद मन्त्रों की दृष्टाएं हो सकती हैं तो वेद मन्त्रों के पढ़ने की अधिकारिणी कैसे नहीं हो सकती हैं ? यह छोटी सी बात भी नहीं समझी जाती।

अध्यात्म और ज्ञान के क्षेत्र में नर और नारी का भेद करना किसी भी दृष्टि से युक्ति संगत नहीं ठहरता। ब्रह्म को लिंग भेद से परे माना जाता है। उसके अव्यक्त रूप को मानवी बुद्धि समझ नहीं पाती। प्राणी उसे समय सके इसलिए ब्रह्म ने स्वयं को व्यक्त किया, तो नर और नारी दोनों के रूप में प्रकट हुआ। नर के रूप में वह परम पुरुष के रूप में प्रकट हुआ तो नारी के रूप में उसे आदि शक्ति परमचेतना कहा जाता है। पुरुष और प्रकृति के जिन दो नामों से उसे जाना जाता है उनमें एक पुल्लिंग हैं, तो दूसरा स्त्रीलिंग।

शास्त्रों में ब्रह्म के तीनों रूपों को जहाँ ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहा जाता है वहीं उसे आदि शक्ति, महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली के रूप में भी व्यक्त हुई माना जाता है। पुराणों में जहाँ कहीं भी देवासुर संग्राम का वर्णन आता है, वहीं यह उल्लेख भी मिलता है कि देवता जब पराजित होने लगते थे तो देवी शक्ति किसी न किसी रूप में उनकी सहयोगिनी बनकर आगे आती है और उन्हें विजयी बनाती थी। यह सारे तथ्य नारी की दृष्टि से अध्यात्म क्षेत्र में कनिष्ठ समझने वाली मान्यता को निरस्त करते और अप्रामाणिक ठहराते हैं।

कहा जा सकता है कि यह तो मानवेत्तर अलौकिक शक्ति की चर्चा हुई। वह किसी भी रूप में व्यक्त होने के लिए लिए स्वतंत्र है और नर या नारी किसी भी रूप में क्रीड़ा कल्लोल कर सकती है। इससे नारी के ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में पारंगत होने की बात सिद्ध नहीं होती है। यह सोचना गलत है। आज तमाम प्रतिबन्धों और निषेधों के कारण नारी यदि इस क्षेत्र में अपेक्षित प्रतिभा नहीं प्रदर्शित कर पा रही है तो उसका कारण यह नहीं है कि वह सदा से अयोग्य या अक्षम रही है। वस्तुस्थिति यह है कि जिन दिनों नारी आगे बढ़ने और अपनी प्रतिभा को विकसित करने के लिए स्वतंत्र थी, उन दिनों उसने हर क्षेत्र में अपनी योग्यता और उपयोगिता की धाक जमा रखी थी।

इस तरह के असंख्य प्रमाण शास्त्रों में मिलते हैं। वेदानुशासन में जब चला जाता था, तब महिलाओं ने ऐसे ऐसे महान कार्य करके दिखाए भी हैं कि उनकी भूमिका को हटा दे तो इतिहास का स्वरूप ही बदल जाता है और वह सारहीन रह जाता है। रामायण में सीता के चरित्र को निकाल दिया जाए तो रामायण में बाकी कुछ नहीं रहता। द्रौपदी, कुन्ती, गान्धारी का चरित्र निकाल देने पर महाभारत की महत्ता क्या रह जाएगी ? पाण्डवों का सारा जीवन संग्राम ही अधूरा रह जाएगा। इसी प्रकार भागवत् में से देवकी, यशोदा और गोपियों का चरित्र हटा दिया जाए तो कृष्ण एक साधारण पुरुष बनकर रह जाएंगे। शिवजी के साथ पार्वती, विष्णु के साथ लक्ष्मी का नाम हटा लिया जाए तो इनके चरित्र आधे अधूरे रह जाएंगे।

यों कहने को नारी को अबला कहा जाता है, पर आसुरी उत्पादों के कारण जब देवतागण घबड़ा उठे तो असुरों का संहार करने में मातृशक्ति दुर्गा ही समर्थ हुई। यह तो हुई शक्ति संगठन संबंधी बात। पर समाज के अन्य क्षेत्रों में भी नारी ने महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई हैं। जब पृथ्वी पर भगवत् शक्ति के अवतरण की आवश्यकता हुई तो मनु तप करने लगे। उनका अकेले का तप सफल नहीं हुआ तो मनु पत्नी शतरूपा भी तपश्चर्या में लगीं। फलतः तप सफल हुआ और शतरूपा ने कौशल्या के रूप में राम को अपनी गोद में खिलाया।

इसी प्रकार भगवान के अवतरण हेतु द्वापर में पुनः आवश्यकता अनुभव हुई। प्राचीन उदाहरणों से सीख ग्रहण कर महर्षि कश्यप ने अपनी धर्मपत्नी अदिति के साथ तप किया। अदिति यशोदा बनीं और उन्हें पूर्ण कला के अवतार भगवान कृष्ण का पालन पोषण करने का श्रेय मिला। राम और कृष्ण भगवान हैं। अवतार सिद्धान्त के विरोधी भी उन्हें महापुरुष मानते हैं, पर जिनकी कोख से उन्होंने जन्म लिया, जिनकी गोदी में पैर पसारे, जिनका दूध पिया और जिनका संरक्षण और दुलार पाया उन माताओं का गौर व राम और कृष्ण से बढ़कर ही है, कम नहीं।

भगीरथ द्वारा गंगावतरण के लिए तपश्चर्या की कथा सर्वविदित है। पर बहुत थोड़े लोग जानते हैं कि सूखे विन्ध्याचल को हरा भरा बनाने के लिए अत्रि ऋषि की पत्नी अनुसूईया ने तपश्चर्या की और चित्रकूट से मन्दाकिनी नदी को बने के लिए विवश किया। इस उपाख्यान का उल्लेख रामचरित मानस के अयोध्याकाण्ड में भगवान राम के चित्रकूट निवास के प्रसंग में मिलता है।

सन्तति निर्माण में माता की भूमिका पिता से हजार गुना अधिक है। देवी उशिज ने अपने पुत्र कक्षिवान को अपने ही संरक्षण सान्निध्य में रखकर शिक्षा दी थी और उसे विद्वान बनाने के अतिरिक्त योग विद्या में निष्णात बनाया। योग विद्या के प्रकाण्ड विद्वान और मर्मज्ञ ऋषि पंचिशिख, जिन्होंने इस विषय पर कई ग्रन्थ लिखे हैं। उनमें महर्षि ने स्वयं स्वीकार किया है कि यह ज्ञान उन्हें अपनी माता सुलभा से मिला।

भरत जिनके नाम पर आगे चलकर इस देश का नाम ही भारत वर्ष पड़ गया, उनका पालन पोषण अकेले वनवासिनी शकुन्तला ने किया था। वह इतना पराक्रमी था कि बचपन से ही शेर के बच्चों के साथ खेलता था। निष्ठा और लगन के प्रतीक माने जाने वाले ध्रुव का पालन पोषण भी अकेले उनकी माता सुनीति ने वन में किया था। अपने शिखण द्वारा उन्होंने ऐसे संस्कार दिये कि ध्रुव ने बचपन में ही जीवन के रहस्य को पा लिया। परमात्मा की अनुभूति को धारण कर उन्होंने आगे चलकर देश को कुशल प्रशासन दिया।

लव-कुश का पालन पोषण वाल्मीकि के आश्रम में अभावग्रस्त स्थिति में सीता ने ही किया और उन्हें इस योग्य बनाया कि अजेय हनुमान तथा लक्ष्मण को भी उनके सामने पराजित होना पड़ा।

राजा शान्तनु ने जब गंगा के साथ विवाह किया तो गंगा ने यह शर्त रखी कि उनकी सभी सन्तानें सरिता तट पर ऋषि आश्रमों में भेज दी जाएंगी। इस समझौते के अनुसार सात पुत्र तो ऋषि आश्रम में भेज दिए गए, जो सातवसु के नाम से प्रसिद्ध हुए। अन्तिम आठवीं सन्तान थी भीष्म। शान्तनु के अनुरोध पर गंगा इस बात के लिए राजी हो गयीं कि राज्य संचालन के लिए उन्हें छोड़ा जाए, लेकिन उनकी शिक्षा दीक्षा स्वयं गंगा के निर्देशन में रहे। हाँ, भीष्म अपने भाइयों की तरह रहे ब्रह्मचारी ही।

ज्ञान - विज्ञान और आध्यात्मिक प्रतिभा के क्षेत्र को ही लें तो उसमें भी ऐसे ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे। महर्षि पुलोमा की पुत्री शची महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में रहकर ज्ञान - विज्ञान में प्रवीण बनी थी। उसकी साधना तथा प्रतिभा से प्रभावित होकर देवराज इन्द्र उसे माँगने के लिए पुलोमा के द्वार पर पहुँचे। वहीं ऋषि कन्या शची आगे चलकर इन्द्राणी बनी। मनु ने जब वाजपेय यज्ञ किया तो कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं दिखाई दिया जो उसे महायज्ञ का पौरोहित्य सम्हाल सके। उस स्थिति में मनु ने अपनी पुत्री और उस काल की महान मनीषी इला को यज्ञाचार्य नियुक्ति कर उस अनुष्ठान को सम्पन्न कराया।

महाराज जनक दरबार में महाविदुषी गार्गी और महर्षि याज्ञवल्क्य का शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है। इस शास्त्रार्थ में याज्ञवल्क्य को गार्गी के पाँडित्य और वैदुष्य का लोहा मानना पड़ा। उन दिनों गार्गी के समतुल्य विदग्धा, उद्दालिका, वीचावली, अनुसूया, गौतमी, यमी, सूर्या आदि विदुषियाँ भी प्रख्यात थी। इसी प्रकार आद्य शंकराचार्य और मंडनमिश्र के शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र की पत्नी देवी भारती निर्णायक बनी थीं। यह भी हो सकता था कि वे पक्षपात कर अपने पति को विजयी घोषित कर देती। लेकिन शास्त्रार्थ में प्रतिवादी की भूमिका निभाने वाले आचार्य शंकर एवं अन्य विद्वानों को देवी भारती की निष्पक्षता पर पूरा भरोसा था तथा उस महान विदुषी महिला ने अपने पर किए गए विश्वास को प्रमाणित कर निष्पक्ष निर्णय भी दिया। आचार्य स्वयं उसकी विद्वता से प्रभावित हुए और उसे देवी सरस्वती की उपमा दी। दक्षिण भारत के प्रसिद्ध ज्योतिष विद्वान भास्कराचार्य द्वारा रचित “सिद्धाँत शिरोमणि” पुस्तक का उत्तरार्द्ध उनकी पुत्री लीला द्वारा ही लिखा गया था, यह सर्वविदित है।

ज्ञान और विद्वता के क्षेत्र में ही क्यों शौर्य, साहस और पराक्रम में भी भारतीय नारी इतनी बढ़ी-चढ़ी थी कि उसे अबला कहना हास्यास्पद लगता है। शिवधनुष जो राजा जनक के महल में रखा था और अच्छे अच्छे बलवीर उसे उठा नहीं पाते थे, सीता ने उसे उठाकर दिखाया। तभी जनक को सीता स्वयंवर में यह शर्त रखनी पड़ी कि जो इस धनुष को तोड़ देगा, उसके साथ ही सीता का विवाह होगा। इन्द्र ने शम्बर से युद्ध के लिए राजा दशरथ से सहायता माँगी। दशरथ अपनी सेना सहित इन्द्र की ओर से लड़ने गए। उस युद्ध में कैकेयी भी साथ गयी थीं और अपने पति को भारी प्राण संकट से बचाया था। उसी से प्रसन्न होकर दशरथ ने दो वरदान देने का वचन दिया था।

एक बार श्रीकृष्ण से चित्रसेन गंधर्व को उसके छोटे से अपराध का बड़ा कड़ा दण्ड दे दिया। चित्रसेन अर्जुन को शरण आया। शरणागत की रक्षा का प्रण निभाने के लिए अर्जुन ने श्रीकृष्ण का सामना किया। उस समय अर्जुन के रथ का संचालन द्रौपदी ने बड़ी कुशलता के साथ किया था। कृष्णार्जुन युद्ध में यह कथा बड़े विस्तार के साथ आती है। कौटिल्य अर्थशास्त्र में धनुर्धारी महिलाओं का उल्लेख मिलता है और यह भी वर्णन आता है कि उन्हें लड़कों के समान ही शिक्षा दी जाती थी।

शौर्य और पराक्रम ही क्यों ? धर्म और समाज, संस्कृति की सेवा के लिए भी नारियों ने बढ़ चढ़ कर बलिदान प्रस्तुत किए हैं। आचार्य बृहस्पति की पुत्री देवहूति और भावभव्य की कन्या रोमशा अपने पिता तथा पति से आज्ञा लेकर विभिन्न क्षेत्रों में धर्म प्रचार के लिए गयी थीं। अभ्रण ऋषि की कन्या ने तो एक गुरुकुल भी खोल रखा था, जिसमें छात्र - छात्राओं को समान रूप से प्रवेशाधिकार थे।

नेतृत्व का जहाँ तक प्रश्न है महिलाएं उसमें भी पीछे नहीं रही हैं। इन्द्र को दिशा निर्देश तो इन्द्राणी ही देती थीं। धृतराष्ट्र तो राज्य संचालन में असमर्थ थे। यह कार्य उनकी पत्नी गाँधारी ही करती थी। ऐतिहासिक तथ्यों को देखें तो राज्यश्री, रानी पद्मावती, लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई होल्कर जैसे अगणित उदाहरण हैं। उदाहरणों का अन्त नहीं।

बात प्रतिभा प्रमाणित करने और स्वयं विकसित होने तक सीमित नहीं है। प्रतिभा से कहीं अधिक उनका त्याग है। जहाँ उन्होंने स्वयं को पर्दे के पीछे रखकर अपने पतियों को समाज निर्माण, आत्मनिर्माण में सहायता दी। धर्मपत्नी के रूप में उन्होंने अपने पतियों को अधिक योग्य बनाने और महान कार्य सम्पन्न करने में महत्वपूर्ण योगदान प्रस्तुत किए। सर्वविदित है कि महान विदुषी विद्योत्तमा का विवाह अशिक्षित कालीदास से हुआ था। विद्योत्तमा इतनी विद्वान थी कि उसने विवाह के लिए शास्त्रार्थ की शर्त रखी थी। कई विद्वान आए, उन्होंने शास्त्रार्थ किया और हार गए। अन्त में चिढ़कर छल बल से उन्होंने मूढ़ कालीदास से उसका विवाह करा दिया। विद्योत्तमा को जब इस बात का पता चला तो उसने अपने पति को उत्तेजित किया और उसमें ज्ञान के प्रति लगन पैदा की। इसके बाद उनके अध्ययन की अच्छी व्यवस्था बना दी। जिसके फलस्वरूप मूढ़मति कालीदास, महाकवि कालीदास बन गए।

इसी प्रकार रत्नावली ने अपनी सुख सुविधाओं को तिलाँजलि देकर अपने पति तुलसीदास की प्रतिभा को कामुकता से ईश्वरभक्ति की ओर मोड़ दिया। यह रत्नावली का ही सत्साहस था जिसने समाज को तुलसीदास जैसा सन्त और रामचरितमानस जैसा महान ग्रन्थ उपलब्ध कराया। स्वयं रत्नावली भी उच्च कोटि की साहित्यकार थी और उसकी लिखी कई रचनाएं इन दिनों भी उपलब्ध हैं। प्रसिद्ध विद्वान वाचस्पति मिश्र को अपने ग्रन्थ लेखन कार्य में लगे रहने देने के लिए उनकी पत्नी भामती ने उपार्जन और निर्वाह की व्यवस्था जुटाने का दायित्व स्वयं सम्हाला था। वह मूँज की रस्सी बंटती थी और उससे जो भी उपार्जन होता था उसी से अपना और अपने पति का निर्वाह चलातीं।

धर्मपत्नियों के रूप में इस तरह के अनेकानेक उदाहरण मिलते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि उन दिनों आदर्शवादी नारियाँ भोगविलास, सुविधा अथवा अपने संरक्षण के लिए विवाह नहीं करती थीं, वरन् उनका उद्देश्य अपने पतियों के महान कार्यों में हाथ बंटाना होता था। सुख सुविधाओं को लात मारकर उन्होंने अपना जीवन आदर्शों की पूर्ति के लिए किन्हीं सुयोग्य विद्वानों और कलाकारों को आजीवन अपना साथी चुनना श्रेयस्कर समझा और उनके कार्यों में महान योगदान दिया।

मैत्रेयी महर्षि याज्ञवल्क्य की पत्नी थी। वह किसी साँसारिक सुख के लिए नहीं अपितु विशुद्ध आत्म साधना के लिए उनकी सहधर्मिणी बनी। साँसारिक सुखेच्छा के बारे में उनसे पूछा गया तो उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। राजकुमारी सुकन्या ने अन्धे और अति वृद्ध च्यवन महर्षि से केवल इसलिए विवाह किया था कि वह उनकी तपस्या एवं शोध के लिए आवश्यक साधन जुटा सके। उपयुक्त सेवा सहायता कर सके। राजा अश्वपति की प्राणप्रिय पुत्री विदुषी एवं अति रूपवती पुत्री राजकुमारी सावित्री ने एक वनवासी और निर्धन युवक सत्यवान से मात्र इसलिए विवाह किया कि वह उसके वनौषधि शोध कार्य में सहायक होकर लोक मंगल के लिए महत्वपूर्ण योगदान दे सके।

इस तरह के असंख्य प्रमाण हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में आदर्शवादी नारियों ने अपनी प्रतिभा, क्षमता और योग्यता का लाभ समाज को देने के लिए बढ़-चढ़कर योगदान दिये। यह सब इसी कारण सम्भव हो सका कि उन्हें अपनी योग्यता के विकास की पूरी - पूरी छूट थी और इस तरह की व्यवस्थाएं भी समाज की ओर से बनायी जाती थीं कि वे अपनी योग्यता और क्षमताओं का विकास कर सकें। इन व्यवस्थाओं और अवसरों का लाभ उठाने में स्त्रियों भी संकोच नहीं करती थीं और अनेक माध्यम से स्वयं का विकास करते हुए समाज को भी उन विकसित क्षमताओं से लाभान्वित करती रहीं।

दुनिया की बदलती परिस्थितियों और कतिपय महान क्रान्तिकारियों के प्रयासों से देश स्वतन्त्र हुआ। स्वतंत्रता को हासिल किए लगभग पचास वर्ष भी होने जा रहे हैं। इतना समय किसी राष्ट्र को अपनी स्थिति सुधारने के लिए पर्याप्त होना चाहिए। परन्तु वैसा हो नहीं सका। विकास हुआ तो है पर गति वैसी नहीं है जैसी कि होनी चाहिए। इसका कारण एक ही है प्राचीन भारत की प्रगति का मर्म नहीं समझा गया। नारी के विकास के लिए समुचित व्यवस्थाएं नहीं बनायी गयीं। जो छुट पुट प्रयास हुए भी हैं तो सदियों से दबी दबाई गई नारियाँ उनसे लाभ उठाने में संकोच करती हैं। यह स्थिति शोचनीय ही नहीं दुर्भाग्यपूर्ण भी है। इस दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलने का एक ही उपाय है कि महिलाओं पर से इस तरह के प्रतिबन्ध हटाये जावें। उनके संबंध में अपनी मान्यता और दृष्टिकोण बदला जाए तथा इस तरह की व्यवस्था बनायी जाए जिससे स्त्रियाँ निःसंकोच अपनी क्षमता और प्रतिभा को विकसित कर सके। इस ओर प्रयत्नशील कदम, इतिहास का रुख अपनी ओर मोड़ सकते हैं और भारत पुनः अपनी उसी गौरव गरिमा को अर्जित कर सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles