जननी और जन्मभूमि के लिए बलिदान

September 1996

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सम्वत् 1727 की माघ बदी की षष्ठी थी। आज ही गोधूलि बेला में रायबा का विवाह होने को है। तानाजी आनन्द में फूले नहीं समाते। जिधर देखो उधर ही आनन्द का सागर उमड़ा रहा है। एक ओर शहनाई की मधुर ध्वनि गूँज रही थी। दूसरी ओर कुछ लोग गप-शप कर रहे थे। एक तरफ खाना-पीना चल रहा था। तानाजी काफी व्यस्त मालुम पड़ रहे थे स्वाभाविक थी उनकी व्यस्तता-आखिर उनके इकलौते बेटे का विवाह जो है। इसी बीच उनके पास एक सज्जन ने आकर कहा, “तानाजी आप एक कब आए?” “बस चला ही आ रहा हूं।” “हम समझे थे कि अब आप नहीं आएँगे। भाभी बेचारी चिन्ता में घुली जा रही थी।”

“आने को तो जी बहुत छटपटा रहा था भाई ! पर महाराज इजाजत ही नहीं दे रहे थे।”

“वाह,यह भी कोई बात है। बड़े भले हैं, तुम्हारे महाराज । पुत्र का विवाह हो और पिता को आने के लिए इजाजत न दी जाए।”

“तुम नहीं जानते भाई कि इन दिनों स्वराज्य किन विकट परिस्थितियों में है। आलमगीर देश-धर्म -संस्कृति के पीछे हाथ धोकर पड़ा है। ऐसे समय क्या हो जाय, कुछ निश्चित नहीं। इसलिए महाराज का अकेला रहना ठीक नहीं था। अन्य सरदार अन्यत्र राष्ट्र सेवा में लगे है। कल दो-तीन सरदार वापस आये, तब महाराज ने मुझे आने की अनुमति प्रदान की ।सच कहता हूँ भाई, मुझसे विदा होते समय महाराज की आंखों में आँसू आ गए थे। मेरा भी हृदय भर आया। मैंने बार-बार कहा महाराज आप निश्चिन्त रहिए, मैं विवाह के दूसरे दिन ही वहाँ से निकलकर श्रीचरणों की सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा। फिर भी महाराज के आँसू नहीं रुक सके ।”

अभी ये बातें हो ही रही थी, कि इतने में किसी ने आकर कहा, श्री शिवाजी महाराज की ओर से एक सिपाही आया है, आपसे मिलना चाहता है। तानाजी ने साश्चर्य कहा, “महाराज की ओर से सिपाही आया है? जरूर कोई विपत्ति आ पड़ी है।”

त्वरित गति से तानाजी बाहर आए। सवार ने झुककर अभिवादन किया। तानाजी ने कहा, “कहो भाई, सब कुशल तो है न ? महाराज तो आनन्द में हैं ?”

सवार ने एक खरीता तानाजी के हाथ में दिया । खरीती पड़ते ही उनका चेहरा उतर गया। निराशा, उद्वेग का प्रतिबिम्ब उनके भव्य चेहरे पर उदित हो उठा। वे चिन्ता में डूब गए। कुछ क्षणों के पश्चात् उन्होंने सवार से कहा , “ठीक है। घोड़े को छोड़ दो, भोजन कर लो, तब तक मैं भी तैयार होता हूँ।”

“नहीं सरदार, महाराज का हुक्म है कि वहाँ ठहरना नहीं, तानाजी को साथ लेकर उलटे पाँव लौट आना।”

“ठीक है तो मैं अभी चलता हूँ।” अन्दर आकर उन्होंने पूकारा, “सूर्याजी !” “आया दादा।” सूर्याजी आकर अदब के साथ खड़े हो गए। “सूर्याजी।” “आज्ञा?” “रायबा को बुलाओ, रायबा की माँ को भी बुला लेना। सबको अभी तुरन्त इसी वक्त बुला लो।

“क्यों ,क्या हुआ दादा । आपका चेहरा कुम्हलाया-सा क्यों है?”

“सब मालूम हो जाएगा । पहले सबको बुला लो।” पलक झपकते सबके सब इकट्ठे हो गए । हर एक के चेहरे पर आश्चर्य घनीभूत हो रहा था । तानाजी ने सबको एक साथ सम्बोधित करते हुए कहा ,”मैं आप सभी से क्षमा चाहता हूं। मैं अपने पुत्र के विवाह में सम्मिलित नहीं हो सकता । महाराज का पत्र आया है। माता जीजाबाई ने मुझे फौरन बुलाया है। आदेश मिला है एक क्षण की भी देरी किए बिना फौरन रामगढ चले आओ। अब मैं यहाँ एक क्षण भी नहीं ठहर सकता। आप सभी ने अपना कीमती समय नष्ट करके मेरे घर पधारने का जो कष्ट किया है, उसके लिए मैं आप सभी का चिरऋणी हूँ मेरी आप सबसे प्रार्थना है, अब आप मुझ पर दया करके महाराज की सेवा में उपस्थित होने की अनुमति दीजिए । मेरे पुत्र रायबा का विवाह आप सब मिलकर सम्पूर्ण कर दीजिए।”

सबके सब मूक हो गए । किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहें ? एक वृद्धा जो दूर के रिश्ते में तानाजी की काकी होती थी, “बोल पड़ी ,वाह यह भी कही हो सकता है। ताना तुम पागल तो नहीं हो गए हो ? अरे बेटा, तुम वर के पिता हो, तुम्हारे बिना विवाह कैसे होगा ? वर-वधू को हल्दी चढ़ चुकी है, विवाह नहीं रुक सकता । तुम कही नहीं जा सकते । आज की ही तो बात है, कल सुबह उठकर चले जाना।”

तानाजी ने कहा, “अब मेरा यहाँ एक पल के लिए भी रुकना जन्मभूमि और राष्ट्रमाता जीजाबाई के प्रति विश्वासघात करना है। अब मैं यहाँ एक क्षण भी नहीं ठहर सकता।”

एक रिश्तेदार बीच में ही बोल उठे, “किन्तु रायबा तुम्हारा इकलौता बेटा है। क्या उसका विवाह करके उसके जीवन को सुखमय बनाना तुम्हारा कर्तव्य नहीं है ?”

“ नहीं , रायबा मेरा पुत्र नहीं है। मैं स्वीकार करता हूँ, कि मैं उसका जन्मदाता पिता हूँ किन्तु वह देश की सन्तान है। मैंने उसे स्वदेश पर न्यौछावर कर दिया है।”

बुढी काकी चिल्ला उठी, “नहीं ताना, मैं तुझे हरगिज नहीं जाने दूँगी । मैं अब पका-पान हूँ , कब टपक पड़ूं कोई ठीक नहीं । रायबा का यह विवाह देखकर ““‘।”

तानाजी की पत्नी ने वृद्ध की ओर देखते हुए कहा,” अरे काकी, यह आप क्या कह रही है ? अपने सुख के लिए क्या जन्मभूमि के साथ विश्वासघात किया जा सकता है। हम लोगों ने तो जन्म भूमि पर मर मिटने की शपथ ली है। इसके लिए स्वयं को न्यौछावर कर देना अब हमारा प्रथम कर्तव्य है। माता जीजाबाई , हम सबकी माँ हैं, सारे राष्ट्र की माँ हैं, उन्होंने याद किया हैं । न मालूम कौन-सा संकट उपस्थित हो गया है। मैं सरदार को परामर्श देती हूँ कि वे एक क्षण का विलंब किए बगैर रायगढ के लिए प्रस्थान करे और माता श्री के चरणों में उपस्थित हो जाएँ।”

रायबा ने अपने विवाह के समय की कटार निकाल कर आवेश के साथ कहा, “माताजी ,पूज्य पिताजी और उपस्थित अतिथि वृन्द, मैं इस कटार को छूकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि जब तक हमारी जन्मभूमि अपना खोया हुआ गौरव पुनः वापस नहीं पा लेगी , मैं विवाह नहीं करूंगा। देश संकट में हो और मैं विवाह करके ऐश करूं। आर्य नारी का सतीत्व खतरे में हो और हम रंगरेलियाँ मनाएँ। हमारी संस्कृति सिसक रही हो और हम आराम की जिन्दगी बसर करे। इससे अधिक शर्म की बात और क्या होगी ? पिताजी, चलिए मुझे भी माता जीजाबाई के श्रीचरणों में उपस्थित करके जन्मभूमि की सेवा का अवसर दीजिए।”

रायबा की बात सुनकर सब चिल्ला पड़े, “रायबा धन्य हो, तानाजी तुम धन्य हो।हम तुमको अकेले नहीं जाने देंगे हम भी तुम्हारे साथ चलकर देश की सेवा करेंगे।”

रायबा ने कहा, “हर-हर महादेव ! “ प्रचण्ड नाद हुआ, “हर-हर महादेव !”

इसी के साथ समय की दूरी को मराठी घोड़े अपनी टापों के नीचे रौंदते हुए आगे बढ़ चले । दूर से ही उत्तर की ओर वाले बुर्ज पर पड़ी । उस पर एक वृद्धा टहल रही थी । उसकी तेजस्विनी आँखें उस किले के सामने वाले दूसरे किले पर बार-बार टिक जातीं । देखते-देखते दो अश्रुबिन्दु उनकी आँखों से लुढ़क पड़े । इसी समय बाल सूर्य कोमल किरणों ने उनके मस्तक को छूकर वन्दना की । चाँदी से सफेद बाल उन उज्ज्वल किरणों से और भी दीप्तिमान हो उठे । तानाजी ने भी उन्हें दूर से ही माथा नवाया। यही थी, स्वराज्य की जननी, मराठी वीर सपूतों की माता जीजाबाई । जिनके प्रत्येक इंगित पर महाराष्ट्र का हर एक बच्चा जन्मभूमि की बलिवेदी पर हँसते-हँसते बलिदान हो जाता था। इन क्षणों में वह विचारमग्न थी।

इसी समय उन्होंने सुना, “माँ साहिबा, तानाजी अपने पुत्र रायबा के सहित आ गया।” तानाजी और रायबा ने कहा, “ माता प्रणाम। “ और दोनों ने झुककर अपना मस्तक माँ चरणों में रख दिया। माता जीजाबाई ने गदगद कण्ठ से कहा, “आ गए ताना ! “

शिवाजी ने माता के शब्दों में कातरता का अनुभव किया । कहा-”माँ तुम्हारी वाणी कह रही है, कि तुम्हारे हृदय में दुःख के बादल उमड़ रहे है । माँ”।”

“शिवा, ताना । अब कब तक तुम्हें कष्ट दूँ। तुम्हारा सारा जीवन मैंने कंटक मय बना दिया। जो यौवन सुख में बिताना चाहिए, जिन दिनों तुम्हें ऐशोआराम करना चाहिए, वही तुम्हारे सुख के स्वर्ण दिवस मैंने नष्ट कर दिए । तानाजी , रायबा का विवाह करके ही तुम आये हो न ?”

“नहीं माँ, रायबा का विवाह मुहूर्त गोधूलि के समय का था और मैं तो प्रातः काल ही वहाँ से चल दिया और माँ रायबा ने भी प्रतिज्ञा की है कि जब तक हमारी जन्मभूमि अपना गौरव वापस नहीं पा लेती , विवाह नहीं करूंगा ।”

“हूँ, तो मैंने उसका भी सुख छीन लिया। उसका ही क्यों, ऐसे कितने ही नौनिहालों का सुख छीन लिया । कौन ऐसी माता होगी , जो जान-बूझकर अपने पुत्रों को आग में ढकेल देगी । पर मैं हूँ वही अभागिन । भावी सन्तान जब इस अतीत इतिहासों के पन्ने उलटेगी, तब कहेगी जीजाबाई ने अपने पुत्रों की बलि दी थी।”

“माँ आज तुम यह क्या कह रही हो तुमने मुझे अमर बना दिया, मेरे मित्रों को अमर बना दिया । तुम न होती माँ तो आर्य धर्म का नाम मिट जाता । आर्य कन्याओं का सतीत्व लुट जाता। भावी सन्तान जब-जब इस अतीत इतिहास के पन्ने उलटेगी, तब तुम्हारे चरणों पर उसका मस्तक झुक जाएगा । माँ, जिस पुण्यमयी कामना की साधना के लिए आपने भारत के नवयुवकों को प्रोत्साहित किया, वह सफल हो गयी । तुम अपने हृदय को निर्बल बनाओगी, तो हम किस प्रकार विजय प्राप्त कर सकेंगे ?तुम्हारे आशीर्वाद से ही तो माँ देव संस्कृति की उज्ज्वल किरणों से सारा देश आलोकित हो उठा है ।”

यकायक वृद्धा की आंखें चमक उठी । मुख तमतमा गया । शब्दों में उज्ज्वल किरणों की बात तुमने खूब कही । क्या इन किरणों के प्रकाश में आर्य नारियों के सतीत्व लूटे जाते हैं ? क्या इन्हीं के प्रकाश में किसानों की खड़ी फसलें जलाई जाती हैं ? जो ये विधर्मी करने में जुटे हैं,।” अपनी बात पूरी करते-करते उन्होंने वह सब दुःख कह सुनाया जो सिंहगढ़ के पास वाले गाँवों के लोगों ने आकर उनसे कहा था। अब तुम्हें ध्यान में आया तानाजी कि मैंने तुम्हें क्यों बुलाया है।

दोनों मराठा वीरों का मुख तमतमा उठा। आंखों से चिनगारियाँ बरसने लगीं। क्रोध से शरीर धधक उठा । म्यान से तलवार निकालकर शिवाजी माता के चरणों में झुककर बोले “कल जब पूर्व दिशा में सूर्य भगवा रोग फैलायेगा, तब इधर तुम्हारा यह बालक सिंहगढ़ पर भगवा ध्वज लहराएगा । माँ, मुझे आशीष दो।”

इसी समय तानाजी ने आवेग से कहा “ठहरो महाराज, माता ने इस आवेग से कहा सफल करने के लिए मुझे बुलाया है। माता सिंहगढ़ पर भगवा ध्वजा फहराने का पहला अधिकार मेरा हैं। क्षमा चाहता हूँ महाराज ! माताजी , यह बालक तुम्हारे श्रीचरणों की शपथ खाकर प्रतिज्ञा करता है कि कल प्रातः सिंहगढ़ में देव संस्कृति की ध्वजा फहराऊँगा। मुझे आशीर्वाद दो माँ कि मैं विजय प्राप्त करूं । “ तानाजी ने अपना मस्तक माता के चरणों में रख दिया।

जीजाबाई की आंखों में आनन्द का सागर उमड़ पड़ा । उन्होंने तानाजी के मस्तक पर हाथ रख दिया। उनके मस्तक पर आनन्दाश्रु गिरने से अभिषेक-सा होने लगा। जीजाबाई ने गदगद स्वर में कहा, “जाओ मेरे बहादुर ताना जाओ , माँ भवानी तुम्हें शक्ति प्रदान करे। जाओ मेरे लाल ! विजयी होकर लौटो।”

तानाजी का विशाल वक्ष स्थल गर्व से फूल उठा । तलवार निकालकर उन्होंने जयघोष किया, “हर-हर महादेव ।”

इसी के साथ वे अपने सैनिकों के साथ सिंहगढ़ जा पहुँचे। किले के पास पहुँचकर उन्होंने पुकार -”सूर्या जी ?“ “हाँ दादा।”

उत्तर की तरफ वाले बुर्ज की ओर से में किले पर चढ़ने की कोशिश करूंगा। तुम दक्षिण दिशा वाले बुर्ज की ओर से चढ़ो।”

बड़े भाई की आज्ञा पाकर सुर्याजी दक्षिण की ओर वाले बुर्ज की तरफ चल पड़े। उत्तर दिशा की ओर वाले बुर्ज के ठीक नीचे आकर तानाजी बोले “लगता है, मामा ,हम ठीक स्थान पर आ पहुँचे है, जसवन्ती (तानाजी की शिक्षित गोह) को ऊपर चढ़ा देना चाहिए।”

अस्सी वर्षीय शेलार मामा ने आँखों को सिकोड़कर किले की ओर देखते हुए कहा, “नहीं ताना, उधर जो दीवार है, वही हमारे कार्यं के लिए अधिक उपयुक्त होगी।”

“हाँ मामा ठीक कहते हो, आपकी बात ज्यादा सही है। “अँधेरा न होता तो मामा देखते कि उनकी बात से भाँजे का चेहरा आनन्द से खिल उठा है।

तानाजी ने जसवन्ती को हाथ में लेकर वन्दन किया और जय भवानी कहने के साथ पूरी ताकत से उसे किले पर फेंक दिया। पर अरे यह क्या ? वह ऊपर टिकी नहीं, नीचे आ गयी । तानाजी आहत होकर बोले, “अरे-रे, मामा जसवन्ती नीचे आ गयी, असगुन हुआ।”

“तुम भी क्या बात करते हो ताना । बेटा माता और मातृभूमि के लिए प्राणों की बाजी लगानी होती है। लाओ मुझे दो जसवन्ती । देखो तुम्हारा बूढ़ा मामा आज क्या करके दिखाता है।”

शेलार मामा ने जसवन्ती को हाथ में लेकर सहलाते हुए कहा, “भवानी क्या बच्चों को इस तरह निराश किया जाता है ? जाओ देवी । वे तो उसे प्राणपण से निभाएँगे ही । जसवन्ती ने शायद वृद्ध के हृदय की बात सुन ली, तभी तो वह दीवार से जाकर मजबूती से चिपक गयी और मन्द गम्भीर शब्द नाद हुआ हर-हर महादेव।

तीन सौ मराठा वीर किले पर चढ़ गए। शेष दो सौ का चढ़ना बाकी रह गया । तभी दुश्मन के एक सिपाही ने उन्हें देख लिया और बात की बात में किले में सजगता उत्पन्न हो गयी । घमासान युद्ध शुरू हो गया। शत्रु सैनिकों में से किसी ने उस रस्सी को काट दिया जिससे मराठे ऊपर चढ़ रहे थे ।

मराठा वीरो का उत्साह अवर्णनीय था। निराशा, चिन्ता और भय तो जैसे उनके दिलों में था ही नहीं । उनका सुनिश्चित विश्वास था कि संसार भर की तमाम ताकत एक तरफ हो जाय फिर भी विजय हमारी होगी ।

तानाजी और शेलार मामा मुगल सिपहसालार उदयभानु की तलाश में चले । वह इस समय सुख की नींद सो रहा था। एक सिपाही ने जाकर खबर दी कि किले पर मराठों ने आक्रमण कर दिया है। वह हड़बड़ाकर उठा और अपनी ढाल-तलवार लेकर बाहर निकल आया। महल के द्वार पर ही तानाजी से उसकी मुठभेड़ हो गयी।

हर-हर महादेव तथा जय एकलिंग के नारे लगाते हुए दोनों एक दूसरे से भिड़ गए। लड़ते-लड़ते तानाजी की ढाल टूट गयी। उदयभानु ने तानाजी को दूसरी ढाल लेने का मौका नहीं दिया। तानाजी अपने बायें हाथ पर वार झेलते रहे। अन्त में उदयभानु के एक प्राणघातक वार ने उन्हें धराशायी कर दिया। शेलार मामा चिल्ला पड़े- “उदयभानु युद्ध के नियमों से अपरिचित हो क्या ? तुम नहीं जानते कि ढाल टूट जाने पर कोई सच्चा वीर इस तरह विपक्षी पर तलवार नहीं चलाता। अच्छा ,होशियार हो जाओ।”

वह अस्सी साल का बूढ़ा उदयभानु पर झपट पड़ा । उसके वारों ने युवक उदयभानु के हौसले पस्त कर दिए। उदयभानु ने अपना सारा साहस जुटाकर शेलार मामा पर जोर का हमला किया दोनों एक दूसरे का वार खाकर स्वर्गधाम सिधारे।

अभी मराठों के हौसले पस्त होते, इतने में दक्षिण की और से सूर्याजी अपने पाँच सौ सैनिकों सहित किले के अन्दर घुस आए। फिर घमासान युद्ध शुरू हो गया। थोड़ी ही देर में शत्रु सैनिक भाग खड़े हुए । सूर्योदय के भगवा रंग के साथ ही सिंहगढ़ पर भगवा ध्वज फहराने लगा।

माता जीजाबाई प्रातःकाल से ही रामगढ के किले के बुर्ज पर खड़ी थी । सिंहगढ़ पर भगवा ध्वज को फहराते देखकर उनकी आँखों में आनन्द छलक उठा। उनके मुख से अचानक निकल पड़ा, “शाबाश ताना , तुम चिरंजीवी हो।”

सूफी संत बीबी राविया की ईश्वर भक्ति दूर-दूर तक प्रख्यात थी। वे दिन-रात प्रभु के ध्यान में मग्न रहती थी । इबलीस उन दिनों बड़ा नास्तिक था । एक दिन किसी ने उनसे पूछा-”आप इबलीस की निन्दा करती हैं या नहीं । “ राबिया बीबी ने विनीत भाव से कहा-”मुझे उपासना से ही अवकाश नहीं मिलता । फिर बुराइयाँ तो मुझमें ही सैकड़ों भरी पड़ी हैं। उनको सुधारूं या दूसरों के दोष-दर्शन में अपना समय व्यर्थ गँवाऊँ।”वह सज्जन राबिया बीबी की भक्ति से बड़े प्रभावित हुए और दूसरों की कभी भी बुराई न करने की प्रेरणा लेकर घर गये।

“नहीं माँ तानाजी चिरंजीवी नहीं अमर हो गया।”कौन ? शिवा । देखो बेटा ताना ने सिंहगढ़ जीत लिया। हाँ माँ, गढ़ जीता पर सिंह ““। कहते-कहते गला रुँध गया। मेरा सिंह , मेरा ताना, कहां गया बता ।शिवा बता। आकाश की ओर देखकर शिवाजी ने मस्तक झुका लिया। चुप क्यों हो गया शिवा ? कहाँ गया मेरा ताना बता ? बहुत परिश्रमपूर्वक शिवाजी कह सके, माँ वह वी-र-ग--ति-प्र--प्-त- ह-ए। मेरा ताना मारा गया। हाय ! दोनों हाथों से मुँह छिपाकर जीजाबाई रोने लगी ।

तभी रायबा और सूर्याजी अपने विजयी सैनिकों सहित वहाँ आ पहुँचे । माता जीजाबाई और महाराज को सम्बोधित करके रायबा ने कहा, माता जी और महाराज ,आप मेरे पिताजी की मृत्यू पर शोक कर रहे हैं । मेरे पिता जननी और जन्मभूमि पर बलिदान हो गए। उनकी मृत्यु पर शोक करना, उनकी स्वर्गवासी आत्मा के प्रति अन्याय होगा, महाराज।”

माता जीजाबाई ने भावातिरेक में छाती से लगाते हुए कहा, “धन्य हो रायबा वीर पिता के बहादुर पुत्र ऐसे ही हुआ करते हैं।” इतने में मराठा वीरों का प्रचण्ड जयनाद गूँजा ,”हर-हर महादेव’।


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