द्रौपदी के प्रश्न

September 1996

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सहस्रों दीप मालिकाओं से सुसज्जित उस विशाल सभागार में द्यूतक्रीड़ा का आयोजन हुआ था। धूप-अगरु में सुवासित उस प्रेक्षागृह में दूर-दूर से कौतुकप्रिय जन आए थे। प्राचीन कुरुवंश की प्रमुख दोनों शाखाओं में आज रोचक द्यूत स्पर्धा थी। औत्सुक्य और कौतूहल के क्षण अब तक श्मशान की भयावह शान्ति में बदल गए थे।

सभागार के केन्द्र में उच्च सिंहासन पर नेत्र ज्योति ही न महाराज धृतराष्ट्र विराजमान थे। निकट ही उनकी साध्वी पत्नी गान्धारी नेत्रों पर वस्त्र पट्ट बाँधे बैठी थीं। पुत्र स्नेह में वे दोनों आँखों से ही नहीं विवेक से भी अन्धे हो चुके थे। पुत्र मोह की पट्टी दोनों के नेत्रों पर बँधी थी। अधर्म की पट्टी बाँधे रहने से उनके ज्ञान-चक्षु भी मूंद चुके थे।

अनेक प्रकाण्ड विद्वान, मनीषी, विधिमर्मज्ञ, धर्मज्ञाता, साधू पुरुषों एवं पराक्रमी राजपुत्रों से सुशोभित वह सभामण्डप जगमगा रहा था। वहाँ परम प्रतापी पितामह भीष्म थे। प्रसिद्ध धनुर्विद गुरुवर द्रोणाचार्य थे। महर्षि विदूर थे। शरद्वान पुत्र कृपाचार्य थे। इन सबमें प्रत्येक का व्यक्तित्व अज्ञान रूपी अन्धकार में प्रकाश स्तम्भ की भाँति था। एक-एक का व्यक्तित्व मणि -स्तम्भ सा जाज्वल्यमान था। ऐसा उनका नीर -क्षीर विवेक था और ऐसा उनका धर्मानुकूल आचरण था।

किन्तु........आज वे समस्त मनीषी, वे समस्त ज्ञान पुँज निस्तेज थे। आज वह राजसभा उनकी उपस्थिति में भी श्रीहीन थी। वे सब क्षुब्ध थे। अनिष्ट की काली छाया अपने डैने फड़फड़ाती जैसे सभा के चारों ओर मँडरा रही थी।

सभागृह के मध्य भाग में पाँचों पाण्डव बैठे थे। अपने ही दुर्व्यसन द्युत विलास से पराजित। उनके कभी न झुकने वाले मस्तक झुके हुए थे। चौड़े पुष्ट स्कन्ध आज शिथिल थे। वे महातेजस्वी योद्धा, अपमान से क्षुब्ध एवं असहाय को जैसे लौह पिंजर में बाँध दिया गया हो। उनके अस्त्र- शस्त्र, आभूषण एवं किरीट उतरे हुए एक ओर भूमि पर रखे हुए थे। सबसे सब राज्यश्री हीन, सत्ताच्युत, उपहास एवं अपमान के पात्र।

भयंकर नीरवता के पल थे। बीच-बीच में हलकी-सी हँसी दबी-दबी सुनायी पड़ती थी दुर्योधन की मित्र मण्डली से। वे भी प्रतीक्षारत थे। विराट सी प्रतीक्षा पूरे सभागार में छायी हुई थी सब श्वास रोके बैठे थे।

अचानक द्वार पर सामूहिक हाहाकार की ध्वनि से सज्जनगण सिहर उठे। पाण्डवों ने विचलित हो अपने हाथों से हृदय थाम लिए। सबकी दृष्टि मुख्य द्वार की ओर घूम गयी। महाराज द्रुपद की महाविदुषी युवराज्ञी तथा महापराक्रमी पाण्डवों की सती साध्वी पत्नी, इंद्रप्रस्थ की साम्राज्ञी द्रौपदी को दुशासन हाथ पकड़कर खींचता ला रहा था। पीछे-पीछे आकुल-व्याकुल सखियाँ, दास-दासी, परिचारक एवं सेवकों की रोती-बिलखती भीड़ चली आ रही थी।

छोड़ दे पापी !........ मेरे परमपूज्य श्वसुर महाराज धृतराष्ट्र की राजसभा है। इस धर्मस्थल पर अधर्म नहीं होता दुष्ट। दुराचारी छोड़! यहाँ न्यायप्रित विद्वजन बैठे हैं, वयोवृद्ध बैठे हैं- क्यों उनके कोप का भाजन बनना चाहता है नराधम! पाँचाली का स्वर प्रखर थी। “ मुझे बचाएँ तात! माता गान्धारी .......” पाँचाली दौड़ पड़ी महाराज धृतराष्ट्र एवं महारानी गाँधारी की शरण में। कितना विश्वास था उसको कि वे धर्मज्ञ हैं और वे रक्षा करेंगे। कितनी बड़ी भ्रान्ति।

राजसिंहासन की ओर भागती द्रौपदी की वेणी पकड़कर दुशासन ने तड़ित वेग से झटका दिया। वेणी खुल गयी। नील कुन्तल केशराशि लहरा गयी। वेणी में गुँथित चन्द्रमल्लिका की पुष्पामाल्य टूटकर गिर गयी। दुष्ट ने निर्ममता से पाँवों से उसे कुचल दिया। शुभ्र शेवंती चन्द्रमल्लिका की पुष्प कलिकाएँ नवतारिकाओं-सी नीले मेघ केशों से झरने लगीं।

अथाह पीड़ा से पाँचाली का हाथ तत्क्षण वेणी पर पहुँचा, किन्तु अनायास वह निश्चल हो गयी। भरी सभा में जहाँ महान् तत्वज्ञानी और धर्मज्ञ बैठे हैं! और कोई विरोध नहीं कर रहा!! कोई प्रतिवाद नहीं!!! अपमान से उसका मुखमण्डल आशक्त हो गया। क्षोभ और पीड़ा से मुख विवर्ण हो उठा। उसका कोई रक्षक नहीं?

उसने एक बार फिर सभी की ओर देखा-धर्मज्ञों, नीतिज्ञों एवं महावीरों की सभा को। सभी चुप्पी साधे थे। उसने बिलखते हुए पूछा- “क्या स्त्री मात्र वस्तु है, पदार्थ है, जिसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं, जब जो चाहे जिस तरह उपभोग करे? मैं महाराज पाण्डु की स्नुषा आपकी कन्या ही हूँ। पितामह उठिए। नारी को विवश करने वाले के हाथों को उखाड़ फेंकिये। आँचल पसार कर भीख माँगती हूँ। कुरुओं की इस राजसभा में शील का व्यापार मत होने दीजिए। उठिए, स्त्रियों की लज्जारक्षण परम्परा इस मदान्ध नीच को खड़ग से दिखा दीजिए।”

परन्तु...........

पितामह भीष्म! कुरुकुल का मेरुदण्ड! मेरुदण्ड! ऋषिवर्य वशिष्ठ का अधीत वेद शिष्य! बृहस्पति और शुक्राचार्य से शास्त्राध्ययन करने वाला पराक्रमी क्षत्रिय। च्यवन, भार्गव और मार्कण्डेय से धर्म का गम्भीर ज्ञान प्राप्त करने वाला धर्मज्ञ। शान्तनु महाराज का साक्षात गंगापुत्र। काशिराज और उग्रायुध के दाँत खट्टे कर देने वाला वीर। जिनसे धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की उन्हीं जमदग्नि पुत्र परशुराम को धर्मयुद्ध में पराजित कर, ‘सत्शिष्य गुरु से कुछ न कुछ श्रेष्ठ ही होता है’ सिद्ध करने वाला विख्यात धनुर्धारी। आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले तेज का ज्वलितपुँज । वह भीष्म भी सिर झुकाकर चुप था।

“तात् विदुर! आप महात्मा हैं, धर्मज्ञ हैं। आप ही धर्म की व्याख्या कर सकते हैं बताइए क्या नारी का कोई स्वतंत्र जीवन नहीं है। बताइए आर्य युधिष्ठिर को मुझे दाँव में लगाने का क्या अधिकार है? तात धृतराष्ट्र! आचार्य द्रोण! कृपाचार्य! गुरुपुत्र अश्वत्थामन! आर्य अमात्य! आप सब चुप क्यों हैं।” आज द्रौपदी के एक-एक स्वर में हृदय विदीर्ण करने वाली आर्तता थी। वह बिलखती हुई हाथ फैलाकर आक्रोश करती हुई प्रत्येक आसन के सामने होकर आगे सरकने लगी। “हस्तिनापुर के श्रेष्ठ पुरुषों! समराँगण में चमकने वाले वीर योद्धाओं! भारतवर्ष के तत्त्वज्ञानी मनीषियों! मैं आप सबसे पूछती हूँ, क्या आप सभी ने नारी की कोख से जन्म नहीं लिया? अरे स्त्री की कोख से जन्म लेने वाले पुरुषों! एक स्त्री का विलाप आपके पुरुषार्थ को जाग्रत नहीं कह रहा है।”

एक हाथ फैलाकर दूसरे हाथ से दुशासन को धकेलती हुई, वह एक के बाद एक आसन के सम्मुख आक्रोश करती हुई आगे बढ़ रही थी। प्रलय की महानदी में जैसे कोई देवदारु वृक्ष लुढ़कता हुआ चला जाता है। वैसे ही दुशासन उसकी विपुल केशराशि की पिण्डलियों तक लम्बी लटों के साथ लुढ़कता हुआ खिंचा चला जा रहा था। यह दुशासन के पौरुष को ज्वलन्त चुनौती थी, जिसे वह सह न सका। चिढ़कर बौखलाया हुआ दुशासन उसकी लटों को अपने हाथ के चारों ओर लपेटकर द्रौपदी की गरदन को बारम्बार झटके देने लगा।

उसने बड़ी व्यथा से अपने पतियों की ओर देख। बड़ी करुण मुद्रा में उसने युधिष्ठिर को सम्बोधित कहते हुए कहा-”आप धर्मराज कहे जाते हैं, क्या धर्म मीमांसा का सार, नारी को वस्तु समझने में है? क्या यही है धर्मशास्त्रों का निर्णय कि नारी को जुए में दाँव पर लगा दिया जाय?”

द्रौपदी के मुख से जैसे प्रश्नों की झड़ी निकल रही थी।

पर कोई उत्तर नहीं! कोई नहीं बोलता! सब निरुत्तर थे। वह चारों ओर देख रही थी-किरीटयुक्त शीश झुके हुए थे। महामनीषियों के हाथ नेत्रों पर थे। लोग नत-नयन थे। इन महारथियों, मनीषियों एवं वेद-वेदांत के मर्मज्ञों में से किसी में साहस नहीं थी कि एक बिलखती- छटपटाती नारी के प्रश्नों का उत्तर दे पाता। नत शिर! नत नयन! किस ग्लानि में? किस क्षोभ में? किस पश्चाताप में? इतनी विराट सभा में कोई उसका नहीं। उसके अपने कहलाने वाले पति भी उसके अपने नहीं। किसी में साहस नहीं कोई धर्म का पक्षधर नहीं।

इतने में उसकी बातों से चिढ़े हुए दुर्योधन ने पुकारा-”दुशासन। इस वाचाल स्त्री का साहस कि सबको धर्म एवं शास्त्र सिखाए। उतार दो इसके समस्त वस्त्र- परिधान! यहीं इसी भरी सभा में इसे नग्न कर दो”

अविश्वसनीय! कानों पर विश्वास नहीं हो रहा। इस नीचता पर भी कुरुकुमार उतर सकते हैं। क्षणभर को द्रौपदी प्रबल प्रभंजन में पड़ी सुकुमार दीपशिखा-सी प्रकम्पित हो उठी। किन्तु दूसरे ही क्षण उसने मन हो समस्त मानवीय शक्तियों से हटाकर परमात्मा में एकाग्र कर लिया। इन क्षणों में वह सभी रिश्ते-नातों से ऊपर थी। देह, मन, प्राण से उसकी चेतना सिमटकर सृष्टि संचालक को समर्पित हो चुकी थी।

वह आकुल स्वर से पुकार उठी- “ऐसी विकट परीक्षा तो भगवती सीता की भी नहीं ली गई थी। भगवती सीता को जब अधम रावण हरकर ले जा रहा था तो पशु-पक्षियों तक ने उसके लिए संघर्ष किया था। जटायु ने प्राणों का उत्सर्ग किया था और ये मूर्धन्य विद्वान, शिलाओं से जड़वत् बैठे हैं। आह री! का पुरुषों की सभा।

तभी दुर्योधन की वाणी पुनः गूँजी- “उतार ले इसके वस्त्राभूषण दुशासन।”

दुशासन आगे बढ़ चला है। अब कोई नहीं रक्षक।

पाँचाली भय से थरथरा गई। उसकी अन्तरात्मा से अन्तिम प्रश्न उभरा- हे भगवान्। क्यों सृजन किया तूने नारी का? प्रभु आखिर क्या अस्तित्व रह गया है नारी का तुम्हारी सृष्टि में? क्या वह सिर्फ भोग, बलात्कार, उत्पीड़न सहने के लिए बनी है? हे अन्तर्यामी! हे जनार्दन! हे कृष्ण! अब सब कुछ तुझ पर निर्भर है।

अन्तरात्मा से उभरा यह प्रश्न अब की बार अनुत्तरित नहीं रहा।

प्रश्न के उत्तर में देखते-देखते क्षितिज से महादैत्यों की भाँति कालमेघ हुँकारें भरते उठ खड़े हुए। चारों दिशाओं से भयंकर भूत-प्रत-पिशाचों की भाँति प्रलयंकारी विराट काले जलधर उमड़ उठे। अन्तरिक्ष में पड़ी सोती हुई दामिनी चीत्कार करती हुई जाग पड़ी और आग उगलती हुई दिग्दिगन्त में कौंध गयी। दीर्घ काले केश फैलाए पिशाचिनी सी हाथ में नग्न खंग लिए, उन्माद से थरथराती हुई दौड़ पड़ी तड़ित ज्वाल चारों ओर। वज्र लपलपा उठा। वृक्षों को अरअराकर गिराता हुआ, प्रासादों को कँपकंपाता हुआ, झंझावात भैरवानाद करता हुआ हृरहरा उठा। शेषनाग सहस्र फनों से फुंफकार उठे। पृथ्वी का कठोर मर्म तड़क गया। धरा डोल रही थी। भूकंप चक्रवात! झंझा! महावात !

धूलि का कण-कण जैसे अपार शक्तिवान वज्र बन गया था। आज अणु-अणु कुपित हो उठा था भयंकर घर्षण था, नाद था। जैसे युगान्त का महाघण्ट बज रहा हो।

कोई कुछ नहीं समझ रहा था कि अकस्मात् ये आवाजें कहाँ से आ रही हैं? सभाभवन की छत में प्रकाश के लिए बनाए गए थाली जैसे गोल छिद्र से एक प्रकाश पुँज सीधे भीतर आया और द्रौपदी के समस्त अंग पर फैल गया। घनघोर झंझा के बीच दुशासन के हाथों की तीव्रता के अनन्त गुने वेग से द्रौपदी की साड़ी का छोर बढ़ने लगा। भगवान् महाकाल की करुणा झर रही थी द्रौपदी पर। कालचक्र को थामने वाले हाथ आज नारी की रक्षा के लिए कृतसंकल्प थे।

शरीर में शक्ति न रहने के कारण हाथ नीचे और दुशासन घिसटता हुआ जैसे-तैसे अपने आसन के पास पहुँचा। उसके स्वेद भरे मस्तक से कुछ बूँदें उसी के आसन पर टपक पड़ी। वह खड़ा-खड़ा ही उन बूँदों पर धड़ाम से गिर पड़ा। जैसे शक्ति बिल्कुल न रही हो। प्रायः सभी के मन में उसके प्रति घृणा थी। अपनी बातों के उसका समर्थन करने वाले आतंकित थे।

सभागृह के मध्य वस्त्रों से घिरी द्रौपदी अपने दोनों हाथ आकाश की ओर जोड़े भाव-निमग्न खड़ी थी। उसके नेत्रों से आँसू झर रहे थे। अचानक वातावरण को अपनी गूँज से झंकृत करती हुई किसी अदृश्य वाणी के स्वर फैलने लगे-”नारी सृष्टि का संवेदना शक्ति है। उसका सृजन हिंसा और बर्बरता के शमन के लिए किया गया है। वह सृजन की देवी है। पुरुष का पौरुष विस्तार और अनुगमन के लिए है। जिस पौरुष ने उसके अपमान का साहस किया है उसे नष्ट होना पड़ेगा।

देवी द्रौपदी ! तुम्हें अपमानित करने वाली बर्बरता नष्ट होगी। सभा में विद्यमान पुरुष अपनी वीरता, विद्वता, साहस का उचित उपयोग नहीं कर सके । अतएव भावी समय में उनकी प्रधानता स्वयमेव समाप्त हो जाएगी। यह समस्त मानव समाज ऐसा समय अवश्य देखेगा-जब धरा पर नारी का प्रभुत्व आएगा। नारी अभ्युदय का नवयुग मेरा अटल विधान है।” महाकाल के इन स्वरों में नारीत्व अपने प्रश्न का समाधान पा चुका था। द्रौपदी अभी तक भावनिमग्न हो परावाणी की इस अनुगूंज को सुन रही थी।


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