दांपत्य जीवन में मधुरता का रहस्य

September 1996

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विवाह के समय वर और वधू दोनों के मन में अपने दाम्पत्य जीवन को लेकर कई मीठे-मीठे सपने उठते रहते हैं और हृदय को गुदगुदाती रहती है। इन संकल्पों और सपनों को समय समय पर दोहराया भी जाता है। पत्नी के रूप में पति को जो साथी मिलता है, उसे वह अपने सबसे अधिक निकट और सर्वाधिक घनिष्ठ पाता है। पति के रूप में स्त्री को जो साथी मिलता है, उसमें वह अपनी कई अपेक्षाओं की पूर्ति का आधार खोजती है।

इस जीवन की शुरुआत में पति-पत्नी एक दूसरे से जो स्नेह,संरक्षण, सहयोग, प्रेम, मार्गदर्शन और प्रतिदान प्राप्त करते हैं वह चिरकाल तक एक दूसरे के लिए आकर्षण का केन्द्र बना रहता है। लेकिन प्रायः वह आकर्षण शीघ्र ही चुक जाता है और लगने लगता है कि दोनों में एक असन्तोष, एक विरक्ति की भावना बढ़ती जा रही है। विवाह के थोड़े ही दिनों बाद पति को पत्नी का सौंदर्य पुराना लगने लगता है। पत्नी के लिए पति का परिचय नया नहीं रह जाता। उनका जीवन रोते-झींकते, लड़ते-झगड़ते बीतना आरम्भ हो जाता है। पति-पत्नी के सम्बन्धों में तनाव पैदा होना इसलिए अस्वाभाविक नहीं है कि मनुष्य का स्वभाव भूल करने और गलतियाँ करने का ही होता है। ये भूलें दाम्पत्य जीवन में भी होती हैं पर स्थिति समस्या तब बन जाती है, जब उस स्वाभाविक कमजोरियों को बात का बतंगड़ बनाने के प्रयत्न होने लगते हैं। इसके स्थान पर यदि गलतियों और त्रुटियों को सहज मानवीय कमजोरी मानकर चला जाय तो प्रेम और आकर्षण में कमी नहीं आने पाती, क्योंकि तक गलतियों के प्रति दृष्टिकोण दूसरा हो जाता है।

दंपत्ति को अपने जीवन-साथी के प्रति सम्पूर्ण हृदय से प्रेम करते हुए एक दूसरे से सन्तुष्ट रहना चाहिए । कहीं कोई गलती भी होती है तो समझना चाहिए कि वह अस्वाभाविक नहीं है और इसलिए उसे अस्वाभाविक रूप से नहीं लेना चाहिए। साथी के गुण व दोषों को स्वाभाविक मानकर चला जाय, साथ ही दोषों का परिमार्जन और गुणों का अभिवर्द्धन किया जाता रहे तो उससे एक दूसरे के प्रति गहरी समझ और प्रगाढ़ ऐक्य की भावना उत्पन्न होकर बढ़ने लगती है, जो दाम्पत्य जीवन की सफलता के लिए एक आवश्यक कदम है।

एक दूसरे के प्रति समझ-बूझ पूर्ण रवैया तथा सहनशीलता का भाव रखना भी बहुत जरूरी है। भगवान ने एक कंकड़ को भी दूसरे कंकड़ के समान नहीं बनाया तो दो व्यक्तियों की मनोभूमि और विचारधारा एक दूसरे के समान कहाँ से बनाता? इस विविधता में ही सृष्टि की सुन्दरता है। अतः यह समझना भी जरूरी है कि पति-पत्नी की विचारधाराएँ और मनोभूमियाँ एक समान होना सम्भव नहीं है। दोनों के वैचारिक दृष्टिकोण, मान्यता और सोचने का ढंग एक जैसा हो यह संयोग कम ही देखने में आता है। यदि इस तथ्य के प्रति समझपूर्ण रवैया नहीं अपनाया गया तो पति-पत्नी दो भिन्न ध्रुव बन जाते हैं और उनके जीवन में आवश्यक ताल-मेल नहीं रह जाता।

विचारों में ही नहीं, यह विविधता पसन्दगी में भी रहती है। पति-पत्नी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे विचारों की ही तरह एक दूसरे की पसन्द पर आक्रमण न करें। उन्हें एक दूसरे के विचारों को, पसन्दगी को अपने से भिन्न होते हुए भी इज्जत करना, उसे स्वीकार करना तथा तदनुसार अपने साथी को प्रसन्न रखने के लिए तत्पर रहना चाहिए। यह सहनशीलता न केवल साथी की एक दूसरे के लिए उपयोगिता सिद्ध करती है, वरन् उनके पारस्परिक प्रेम को और अधिक प्रगाढ़ करती है।

कुछ समय के लिए अलग-अलग रहना भी पारस्परिक प्रेम की ताजगी बनाए रखने के लिए आवश्यक है। थोड़े समय का विछोह पति-पत्नी को भावनात्मक दृष्टि से और भी निकट ला देता है। साथ रहते-रहते एक दूसरे की भावनाओं और उपयोगिता को समझ पाने की स्थिति प्रयास करने पर भी कम ही प्राप्त होती है, जितनी कि अलग-अलग रहने से होती है। पत्नी सोचती है कि वह होते तो ऐसा करते, अमुक कठिनाई हम तक आने ही न देते या कितना सूना हो जाता है उनके बिना? पत्नी के साथ रहते हुए पति को उसके हर काम में कोई न कोई कमी नजर आती है। पर जब पत्नी मायके चली जाती है, तो पति अनुभव करता है कि पत्नी के रहते उसे कितना आराम और कितना सुख मिलता था? यह अल्पकालिक बिछोह एक दूसरे को समझे का महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है, जिसमें कि उन्हें एक दूसरे की आवश्यकता अनुभव होती है।

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि पति समझता है, पत्नी उसकी उपेक्षा कर रही है। या पत्नी पति को अपनी उपेक्षा करता हुआ अनुभव करती है। बहुत बार तो इस तरह की भ्रान्ति ही होती है और कई बार इस तरह के अनुभव के पीछे शारीरिक अस्वस्थता या मानसिक उलझनें भी कारण बन जाती हैं। उन कारणों का पता लगाए बिना यह धारणा बना लेना गलत है और इससे अनेक गलतफहमियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो दाम्पत्य सम्बन्धों को रिक्त बना देती हैं। असली कारणों को खोजा जाए, तो यही पता चलेगा कि बेकार ही अब तक सोच-सोचकर परेशान रहे, ऐसी कोई बात ही न थी।

दम्पत्ति को एक दूसरे की प्रशंसा द्वारा भी अपने सम्बन्धों के वातावरण में प्रफुल्लता और माधुर्य का रस घोलते रहना चाहिए। प्रशंसा की चमत्कारी शक्ति सर्वविदित है और यह एक कला भी है। इस कला का मूल सिद्धान्त है कि प्रशंसा करते समय गुणों को, सत्कार्यों को प्रमुखता दी जाय और सुनने में भी अपने सत्कार्यों, व्यक्तित्व तथा व्यवहार को विकसित करने की कामना की जाय। न कि अहंकार का वैभव प्रदर्शित किया जाय। पत्नी ने अपनी सूझ-बूझ से कोई नुकसान होने से बचा लिया या कोई कार्य सुरुचिपूर्ण ढंग से कर दिया तो उसकी मुक्त-कंठ से सराहना की जानी चाहिए। यहाँ यह सोचना गलत है कि यह तो उसका दायित्व था- इसमें प्रशंसा करने की क्या जरूरत है? पत्नी भी यदि अपने पति की प्रशंसा में कृपणता बरतती है, तो वह अपने पति के हृदय में स्थायी स्थान बनाने में असफल रहती है।

अपने दाम्पत्य जीवन को सफल और मधुरता के साथ जीने का यही रहस्य है कि विवेकसम्मत रीति-नीति अपनायी जाय और बिना सोचे-समझे न तो कोई कदम उठाया जाय, न आशंकाएं की जाएँ। पारस्परिक प्यार और समर्पण के आदर्श का पालन करते हुए कठिन परिस्थितियों में भी दाम्पत्य जीवन की मधुरता बरकरार रखी जा सकती है।


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