स्वतन्त्रता की खोज में नारी किधर चल पड़ी? चौंकने से इस सवाल का हल नहीं निकलेगा। जरूरत वर्तमान भ्रान्ति से उबरने और स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ खोजने की है। समय की प्रगति के साथ सामाजिक क्रूर बन्धनों से महिलाएँ धीरे-धीरे छुटकारा पाती जा रही हैं। बहुत पिछड़े, अशिक्षित, अहंकारी, अनुदार लोगों में ही अब घूंघट, पर्दा प्रथा की कठोरता शेष रह गयी है। बाकी समझदार लोग अब अपनी बच्चियों को भी शिक्षा दे रहे हैं और उन्हें घर से बाहर काम करने के लिए जाने देने के प्रतिबन्ध भी उठा रहे हैं। महिलाओं का उत्साह और रुझान भी इसी दिशा में है। प्रगतिशील विचार-धारा का प्रतिपादन भी यही कहता है। स्वतन्त्रता और समानता के सम्मान एवं औचित्य का जो व्यापक समर्थन हो रहा है। उसने भी नारी के ऊपर लदे हुए पिछले सामन्ती बन्धनों को काटने में सहायता दी है। इन अनेक कारणों के मिल जाने से नारी की स्वतन्त्रता एक नया युग आरम्भ हुआ है। आधे मानव समाज को सामाजिक पराधीनता के अवाँछनीय बन्धनों से इस प्रकार मुक्ति पाते देखकर सर्वत्र प्रसन्नता और सन्तोष की ही अभिव्यक्ति होनी चाहिए।
पर दुर्भाग्य की करामात तो देखिए, वह पिछली खिड़की से छद्मवेश बनाकर फिर घुसपैठ करने में लग गया है और वह नारी पराधीनता के नए किस्म के जाल-बन्धन बुनकर फिर ले आया है। मजे की बात यह है कि इस बार पराधीनता स्वतन्त्रता का नकली लिबास ओढ़कर आयी है। सभी भ्रम में पड़कर बिना असलियत को समझे-बूझे उसे उत्साह के साथ अपनाते जा रहे हैं। पहले लोहे की जंजीरों से कैदी बाँधा जाने लगे तो इसे कोई प्रगति भले ही कहता रहे, पर वस्तुतः ये बन्धन भी उतने ही दुःखद रहेंगे। जितने कि लोहे वाले समय में थे।
नारी को पुरुष के समान ही अपने व्यक्तित्व के विकास और लोकनिर्माण में अपनी प्रतिभा का समर्थ योगदान कर सकने का अवसर मिले, तभी उसकी स्वाधीनता सच्ची और सार्थक कही जा सकती है। यदि उपलब्ध नारी स्वातंत्र्य को यही दिशा मिली होती तो सचमुच मानव जाति का एक बहुत बड़ा सौभाग्य होता। इससे उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ देखकर सन्तोष व्यक्त किया जा सकता था, पर हुआ ठीक इससे उलटा है।
पत्रकार, कलाकार, साहित्यकार, चित्रकार, कवि, अभिनेता, गायक, वादक सब मिलकर नारी को भ्रमित करने में लग गए हैं। उन्होंने अमीरों और विलासियों की कामुक और कुत्सित मनोकामना पूर्ण करने के लिए कल्पवृक्ष की तरह फूल और फल देना आरम्भ कर दिया है। उनकी सारी बुद्धि, कौशल और क्रियाकलाप इस दिशा में लग गया है कि नारी को रमणी और कामिनी के रूप में उसी तरह बने रहने दिया जाय जैसी कि वह सामन्ती जमाने में थी। फर्क सिर्फ इतना बना रहे कि तब वह बलात् बन्धित की जाती थी, अब यह सब नारी स्वतन्त्रता के नाम पर हो। इस कार्य को इतनी चतुरता से सम्पन्न किया जाय कि नारी उसी गर्हित स्थान पर स्वेच्छापूर्वक खड़ी रहे, जहाँ उसका शोषण पूर्ववत् निर्बाध गति से चलना रहे।
समकालीन सामाजिक परिदृश्य में इसे नारी के प्रतिभा विकास की कसौटी माना गया है। जो जितने कुत्सित ढंग से अपनी देह का प्रदर्शन कर सके, वह उतनी ही प्रतिभावान है। इसे इतने मोहक ढंग से प्रचारित, प्रतिपादित किया जाता है कि हर युवा लड़की की तमन्ना मिस इंडिया से मिस युनिवर्स पर जाकर टिकती है। इसमें प्रलोभन भी कम नहीं है। अपने देश में इस सौंदर्य प्रतियोगिता में 50 से 60 हजार रुपए तक एक प्रतियोगी के लिए खर्च किया जाता है। प्रतिभा के इस नए मानक के खिलाफ जेहाद घोषित करने वाली नाजोमी वुल्फ के अनुसार-”यह नारी की समूची क्षमताओं को देह तक सीमित करने वाली खतरनाक साजिश है।” उसके अनुसार नारी को दिखता यह मुक्ति का मोहक पथ उसके लिए अन्ततः सर्वनाशी सिद्ध होता है। यह एक राजनैतिक मुहिम है, जो पूर्णतया उसके खिलाफ जाती है।
नारी के खिलाफ की जा रही इस राजनैतिक चतुराई ने देह प्रदर्शन को बाकायदा उद्योग का दर्जा दे डाला है। अमेरिका में यह उद्योग 33 बिलियन डालर लाभ कमाता है। अपने देश में भी इसके माध्यम से भारी-भरमार लाभांश कमाने वाले उद्योगपति कम नहीं हैं। चारों तरफ मॉडलिंग एजेन्सियों की भरमार है, जिसमें आधुनिकता एवं स्वतन्त्रता के नाम पर नारी की देह, विज्ञापनों की वस्तु बनकर रह गयी है। सिनेमा के विज्ञापनों से लेकर कैलेंडर, साबुन, शैम्पू, दंतमंजन, जूते-चप्पल तक में नारी की देह ही प्रदर्शित की जाती है। सिगरेट से लेकर शराब की बोतलों तक में उसी की छवि प्रदर्शित की जाती है। बाजार की हर वस्तु की बिक्री का ठेका मानो नारी के देह प्रदर्शन ने ही ले लिया है। दूरदर्शन, सिनेमा हर कहीं प्रदर्शित किए जाना वाले विज्ञापन में दर्शकों के लिए एक ही संदेश होता है- यदि तुम अमुक वस्तु का उपभोग करोगे तो सुन्दर नारी का भी उपभोग कर सकते हो। सर्वाधिक आश्चर्य मिश्रित दुःख इस बात का है कि इस संदेश को देने वाली नारियाँ ही होती हैं, जो इस कार्य की सफलता को अपनी प्रतिभा की कसौटी मान बैठी हैं।
समाजशास्त्री जान विलकिन्स ने अपने एक अध्ययन ‘सोशल विक्टिम्स इन मॉर्डन एज’ में इस तरह के देह प्रदर्शन उद्योग को आपराधिक उद्योग की संज्ञा दी है। उनके अनुसार इस कार्य से न केवल भागीदार युवतियाँ मनोविकृतियों का शिकार हुई हैं, बल्कि दर्शकों की मानसिकता भी आपराधिक बनी है। जान कानेथ गाल्बेथ के अनुसार, “इस उद्योग को बढ़ावा मिलने से कम उम्र की लड़कियाँ विशेषकर कालेज की छात्राएँ अपनी मानसिक, बौद्धिक योग्यता में बढ़ोत्तरी करने के स्थान पर देह प्रदर्शन के नए-नए तरीके खोजने में व्यस्त हैं। क्योंकि इससे वे आसानी से अधिक रुपया कमा सकती हैं।”
फिल्म हो या दूरदर्शन, मॉडलिंग हो या पत्रकारिता का क्षेत्र हर कहीं नारी की अनावृत देह का विनाशकारी प्रदर्शन छाया हुआ है। जो समाज द्वारा वैयक्तिक आजादी के बतौर मिलता है। सुप्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाएँ फैशन परेड के अर्द्धनग्न चित्रों से भरी रहती हैं। इनमें प्रकाशित सामग्री का स्तर भी चित्रों की ही भाँति विषैला होता है। स्वतन्त्रता के इस भ्रामक अर्थ ने ‘मातृ देवों भव’ का उद्घोष करने वाले देश की बुनियादी नींव हिलाकर रख दी है। एक सर्वेक्षण के अनुसार दिल्ली जैसे अनेक महानगरों में देह प्रदर्शन के नए-नए ढंग सिखाने वाले केन्द्रों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। इस तरह के प्रदर्शन जिन्हें केवल कारोबारी मुकाबला समझा जो सकता है और जिनका आयोजन सौंदर्य प्रसाधन तथा अन्य फैशनेबल ड्रेसें और आभूषण बनाने वाली कम्पनियाँ किया करती हैं की प्रतिष्ठा, मान्यता में असाधारण वृद्धि हुई है।
यह वृद्धि स्वतन्त्रता की खोज में जुटी आधुनिक नारी की अभिरुचि और उसके भटकाव को भी प्रदर्शित करती है। ‘प्रेस एशिया इंटरनेशनल’ के हवाले से दिल्ली में मनोवैज्ञानिकों की गोष्ठी में अभी कुछ ही दिनों पहले स्वीकारा गया कि युवतियों में मानसिक और मनोवैज्ञानिक बीमारियों का कारण सौंदर्य प्रतियोगिताएँ और मॉडल बनने का शौक है। बात यहीं तक सीमित रहती, तो भी खैर थी। स्वतन्त्रता पाने की आकुलता में जो स्वच्छ मनोवृत्ति पनपी है, उसका परिणाम बताते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि स्त्रियों में एड्स की दर पुरुषों की अपेक्षा तेजी से बढ़ रही है और इस शताब्दी के अन्त तक अनुमान है कि 40 लाख महिलाएँ इस बीमारी के चंगुल में फँसकर दम तोड़ देंगी। संगठन के आँकलनों के नजरिये से अकेले वर्ष 1993-94 में ही लगभग 12 लाख महिलाएँ इस भयंकर रोग एड्स से संक्रमित होकर जीवन और मौत के संघर्ष में झूल रही हैं।
यही नहीं संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के एक शोध से यह भी पता चलता है कि स्त्रियों में एड्स का संक्रमण तीव्र गति से चिन्ताजनक रूप लेता जा रहा है। एड्स के विषाणु किशोरियों एवं युवतियों में ज्यादा तेजी से पाँव पसार रहे हैं; जबकि प्रौढ़ उम्र वाली स्त्रियों में यह दर काफी कम है। यह वास्तव में सबसे चिन्ताजनक पहलू है; क्योंकि युवतियों में एड्स के प्रसार में वृद्धि का सीधा सम्बन्ध और प्रभाव अगली पीढ़ी पर पड़ने का अंदेशा है। गर्भधारण करने की सबसे उपयुक्त उम्र की महिलाएँ यदि एड्स से संक्रमित हुई तो इससे सीधा अर्थ यही निकलता है कि अधिकाधिक संख्या में नवजात शिशुओं का एड्स ग्रस्त होना। अर्थात् अगली पीढ़ी का अन्धकारमय भविष्य, जो एड्स से जकड़ा हुआ होगा।
आज विश्व कि लगभग हर देश में एड्स के मामले और तेजी से सिर उठा रहे हैं। भारत भी इस दौड़ में पीछे नहीं है। समूचे विश्व में 30,000 स्त्रियाँ प्रतिवर्ष एड्स के विषाणु से संक्रमित होती हैं। इनमें से लगभग 75 प्रतिशत कालेज में पढ़ने वाली किशोरियां एवं युवतियाँ होती हैं, जो स्वतन्त्रता की खोज में भटक चुकी हैं।
यह खोज गलत नहीं हैं। हर कोई स्वतन्त्र रहना चाहता है। फिर नारी के लिए तो स्वाभाविक है कि वह सदियों के बन्धनों को तोड़ देने का प्रयत्न करे। इसमें आज यदि वह सफल नहीं है, तो इसका कारण यही है कि उसने इसे पूरी तरह बाहरी तत्त्व मान लिया है। प्रख्यात विचारक जान डीवी अपनी किताब ‘फ्रीडम एण्ड कल्चर’ में कहते हैं, “स्वतन्त्रता व सक्षमता एक दूसरे से बहुत घनिष्ठतापूर्वक जुड़े हैं। शारीरिक मानसिक, बौद्धिक ताकत का सही उपयोग तभी बन पड़ता है जब उनका संचालन स्व अर्थात् आत्मा के विधान से हो। इसके अभाव में इन सामर्थ्यों का जखीरा आदमी को उस पशु के रूप में बदल देता है, जो दूसरों की तबाही के साथ खुद को भी तबाह कर लेता है।”
पर आधुनिक नारी जीवन में केवल बाहरी बदलाव लाकर सुख-शांति और स्वतन्त्रता की खोज में जुटी है। इन प्रयासों और परिणामों को देखने से साफ होता है कि इनका आधार स्वतन्त्रता न होकर स्वच्छन्दता है। इससे जुड़ने पर सक्षमता, निर्माण के स्थान पर ध्वंस ही करती है।
स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता एक-सी लगने पर भी पूरी तरह विरोधी है। पहले में व्यक्ति और समूह आत्मा को जीवन का केन्द्र मानता हुआ ऊँचे उद्देश्यों एवं आदर्शों के लिए जीता है। दूसरे में जीवन के आधार सुख-भोग भर रह जाते हैं। इनमें किसी तरह की विघ्न-बाधा बर्दाश्त नहीं होती। ऐसी दशा में व्यक्ति और समाज दोनों ही साधक-सुविधाओं की बढ़ोत्तरी को ही सब कुछ मान लेते हैं।
स्वतन्त्रता के नाम पर स्वच्छन्दता के लिए किए जा रहे इन प्रयासों ने न केवल नारियों के लिए, बल्कि पूरे समाज में असुरक्षा व अनिश्चितता का माहौल पैदा कर दिया है। यही मानसिकता व्यावहारिक धरातल पर हिंसा और अपराध के रूप में दिखाई पड़ती है। सही कहा जाय तो यह पशुओं का गुण-धर्म है! उन्हें यह मालुम ही नहीं कि स्वतन्त्र होना हमारी ही कोई अवस्था है अथवा यह कहा जाय कि उन्हें इस पर विचार करने के लिए रुचि अथवा समय नहीं। वह सहज ही इसे दैहिक धरातल पर अथवा वस्तुओं, साधक-सामग्रियों में देखते हैं। उनमें न सृजन की भावना होती है, न भावी कल्याण की चिन्ता।
स्वतन्त्रता के वास्तविक अर्थ से अनभिज्ञ इन आधुनिक नारियों की भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। इससे उबरने के लिए उन्हें देह के धरातल से ऊपर उठना होगा। उनके लिए यह बात समझ लेना जरूरी है कि प्रतिभा का अर्थ मात्र देह का प्रदर्शन और इसका औद्योगीकरण नहीं बल्कि मानसिक, बौद्धिक क्षमताओं का भरपूर विकास एवं लोकमंगल के लिए उनका नियोजन है।
इस वास्तविक स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए सम्बल की जाने वाली इस क्रान्ति की शुरुआत व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों ही स्तरों पर करनी होगी। इसमें जुट पड़ने का मतलब है- आदर्शपरायण जीवन जीने के लिए जुट पड़ना। शारीरिक, मानसिक शक्तियों का सदुपयोग सेवा, सहायता, कर्तव्य परायणता के निर्वाह में करना न कि सुख-भोग में। जीवन सही ढंग से आत्मा का यन्त्र बन सके। इसके विविध क्रिया-कलापों में पवित्रता, प्रखरता, सदाशयता आदि गुण स्थान पा सकें । इसके लिए बिना रुके प्रयत्न करना होगा। जैसे-जैसे मानसिकता में उच्च चिन्तन का शासन स्थापित होता जाएगा, क्रान्ति की गति बढ़ती जाएगी। बढ़ती गति के साथ इसका प्रभाव क्षेत्र भी बढ़ेगा। जिससे अकेली नारी नहीं समूची नारी जाति अपनी उस खोयी स्वतन्त्रता को पा सकेगी, जिसे वह आकुलतापूर्वक खोज रही है।