सम्राट वीरभद्र के दान की कहानियाँ लोक विख्यात हो चुकी थीं। उनके सम्बन्ध में यह कहा जाता था कि द्वार पर आने वाला कोई भी याचक उनके यहाँ से खाली हाथ नहीं जाता था। प्रातः होते ही राजमहल के द्वार पर याचकों की भीड़ लग जाती और वीरभद्र अपने अन्तःपुर से निकल कर याचकों को पर्याप्त दान दिया करते थे।
प्रतिष्ठा और सम्मान की चाहत में डूबे सम्राट दान देने में पात्र-कुपात्र का विचार नहीं करते थे। इस ओर सोचने की उन्हें फुरसत भी नहीं थी। इस तरह दान देने के कारण राज्यकोष खाली होता चला गया। इस भारी भरकम दान के अलावा राज्य परिवार की सुख-सुविधाओं के लिए भी पर्याप्त धन राशि खर्च होती थी। इस प्रकार खाली होते राजकोष को भरने के लिए जनता पर नए-नए कर लगाने पड़ते। एक ओर जहाँ लोग सम्राट की दानशीलता का गुणगान करते थे, वहीं कर भार और अन्यान्य अव्यवस्थाओं के प्रति असन्तोष भी व्यक्त कर चुके थे।
इस अस्तव्यस्तता का लाभ उठा कर राज्य को अपने राज्य में शामिल करने के लिए पड़ोसी राजा ने वीरभद्र के राज्य पर आक्रमण कर दिया। दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया गया और राज वीरभद्र को रानी सहित बन्दी बना लिया गया। शारीरिक यातना एवं मानसिक प्रताड़ना से त्रस्त होकर एक दिन वे दोनों ही बन्दीगृह से भाग निकले।
बन्दीगृह से भाग निकलने बाद उनके पास कोई साधन तो थे नहीं, जिससे उन दोनों का गुजारा चलता। इसलिए दोनों वन-वन भटकने लगे। एक दिन परेशान होकर रानी ने कहा- ‘सुना है सेमरगढ़ नगर का एक सेठ पुण्य खरीदा करता है। आप तो जीवन भर दान देते रहे हैं। यदि हम लोग सेमरगढ़ जाकर अपने दान पुण्य का एक अंश बेच दे तो उससे कम से कम उदर पूर्ति की व्यवस्था तो जुट ही सकती है।
वीरभद्र भी रानी के इस विचार से सहमत हो गया, और दोनों सेमरगढ़ को चल पड़े। जिस स्थान पर वे लोग भटक रहे थे वहाँ से गन्तव्य स्थान काफी दूर पड़ता था। अतः मार्ग में निर्वाह की व्यवस्था दोनों पति-पत्नी मजदूरी करके जुटाते, साथ ही अपने दुर्दिनों और भाग्य को भी कोसते थे। एक स्थान पर मजदूरी बड़ी मुश्किल से मिल पायी। उस दिन केवल इतना ही कुछ कमाया जा सका कि जैसे-तैसे चार रोटियाँ बनायी जा सकें। इतना आटा लेकर ही वे आगे रास्ता तय करने के लिए पड़े। चलते-चलते शाम हो गयी तो वे एक गाँव में ठहर गए। आस-पास के वृक्षों से लकड़ियाँ तोड़कर आग जलायी और चार मोटी-मोटी रोटियाँ सेक ली।
रोटियाँ तैयार करने के बाद वे ग्रास तोड़ने ही वाले थे कि एक भिखारी रोटी माँगता हुआ वहाँ आया और बुरी तरह गिड़गिड़ाने लगा। वीरभद्र के स्वभाव में दया और उदारता तो थी ही। उसने अपने पास की दोनों रोटियाँ भूख से व्याकुल भिक्षुक को दे दीं। शेष दोनों रोटियों में पति-पत्नी दोनों ने एक-एक रोटी खाली।
इसी तरह किसी प्रकार चलते-चलते राजा-रानी सेमरगढ़ पहुँचे। सेठ के सामने पहुँचने पर उन्होंने अपने आने का उद्देश्य बता दिया। सेठ ने कहा आप अपने जिन पुण्यों को बेचना चाहते हैं।, उन्हें एक कागज पर लिखकर इस तराजू के पलड़े में रख दीजिए।
राजा ने वैसा ही किया, पर तराजू ज्यों की त्यों रही। सेठ ने वस्तु स्थिति समझाते हुए कहा-’ऐसा प्रतीत होता है, कि अपने अनीति और अधर्म की कमायी का दान दिया है।
यह सब सुनकर राजा और रानी आगे कुछ कहने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। राजा वीरभद्र लज्जा से गर्दन नीची करके जमीन की ओर देखने लगे। उनकी यह स्थिति देखकर सेठ ने कहा-मुझे आपकी दुःखदायी और भावपूर्ण स्थिति से पूरी सहानुभूति है। आप किसी ऐसे पुण्य का स्मरण करें, जो ईमानदारी से अर्जित कमायी द्वारा संचित किया गया हो।
वीरभद्र काफी देर सोचने रहे। फिर उन्हें पिछले दिन वाली घटना याद आयी, जब उन्होंने अपने हाथ से भिखारी को अपने सामने की रोटी खाने के लिए दे दी थी॥ भिखारी को रोटी दान में देने की बात एक कागज पर लिखकर उन्होंने उसे तराजू के पलड़े में रख दिया। दूसरे ही क्षण राजा ने देखा कि पलड़ा नीचे झुक गया है। सेठ ने अनेक स्वर्ण मुद्राएँ उसमें रखी, फिर भी काँटा बराबर न हो रहा था। उसे आश्चर्य हुआ कि इस छोटे से पुण्य के लिए सेठ को पाँच हजार स्वर्ण मुद्रा रखनी पड़ीं तब जाकर कहीं काँटा बीचों-बीच आया।
यह देखकर राजा वीरभद्र को समझा में आ रहा था कि दान वही सार्थक होता है, जो नैतिक साधनों द्वारा अर्जित धन से किया जाय। अनीति पूर्वक अर्जित की गयी समस्त सम्पदा का परमार्थिक मूल्य नीति पूर्वक कमायी गयी एक रोटी के बराबर भी नहीं होता है।