संधिकाल में आया यह धूमकेतु कुछ गुल खिलाएगा

April 1996

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उथल-पुथल और हलचलें यही वर्तमान समय की परिभाषा बन गयी है। पर्यावरण-वातावरण हो या फिर जीवन और समाज कुछ भी इनसे अछूता नहीं। हर कहीं फेर-बदल और परिवर्तन का दौर चल रहा है। इस व्यापक उथल-पुथल के कारणों की खोज में जुटे वैज्ञानिक इसका कारण इन दिनों सूर्य में हो रहे परिवर्तनों को मानते हैं। इन वैज्ञानिकों का कहना है कि सूर्य ब्रह्मांड का नाभिक है और नाभिक में होने वाली हलचलें अपने इर्द−गिर्द चक्कर लगा रहे इलेक्ट्रानों की गति और स्थिति को प्रभावित किए बिना नहीं रहती।

सूर्य की रश्मियाँ ही ब्रह्मांड में जीवन का संचार करती हैं। पशु पक्षी हो या-पेड़ पौधे सभी किसी न किसी तरह इसी की प्राण ऊर्जा पर निर्भर हैं। मनुष्य के साथ तो इसका सम्बन्ध और भी गहरा है। इस गहराई को नापने के लिए हमें विज्ञान की भौतिक उपलब्धियों को ही देखकर सन्तुष्ट नहीं रह जाना होगा बल्कि उनके आधार पर भारतीय अध्यात्म की संगति पर भी विचार करना जरूरी होगा। पश्चिमी देशों में उसे जलवायु वनस्पति और दृश्य जगत में परिवर्तनों के लिए प्रमुख उत्तरदायी माना जाता है। किन्तु भारतीय आचार्यों का मत है कि मनुष्य की भावनाओं का भी सूर्य से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इस तादात्म्य की उपेक्षा करके इनसान सुखी नहीं रह सकता। बहुत पहले गैलीलियो ने इसी सूक्ष्म विज्ञान पर प्रकाश डालने की कोशिश की थी। उस समय तो उसकी बातों की उपेक्षा की गयी, लेकिन इन दिनों जो वैज्ञानिक खोजें हो रही हैं, उनसे यह बात निश्चित रूप से साबित हो चुकी है कि मनुष्य पूरी तरह सूर्य पर ही आश्रित है। उससे मानसिक सम्बन्ध स्थापित करके अनेक प्राकृतिक रहस्य और शक्तियाँ प्राप्त करने एवं आत्म विकास में प्रकाश प्राप्त करने की विस्तृत खोज इस देश में गायत्री विद्या के नाम से हुई थी।

आधुनिक वैज्ञानिक भी इन दिनों इसी दिशा में प्रयत्नशील हैं। इन वैज्ञानिकों में जे0 विलकिन्स का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन्होंने प्रकृति एवं मानव समाज में होने वाले क्रान्तिकारी परिवर्तनों का सूर्य की गतिविधियों का सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध साम्य स्थापित करने की चेष्टा की है। अपनी पुस्तक “सोलन एक्टीविटी : इट्स इफेक्ट्स ऑन नेचर एण्ड सोसाइटी” में इनका मानना है कि मानव जीवन पृथ्वी और सूर्य के तत्वों की मिली-जुली उपलब्धि है। इसलिए शारीरिक और मानसिक दृष्टि से मनुष्य पृथ्वी से ही प्रभावित नहीं होते वरन् उन पर सूर्य का भी प्रचण्ड हस्तक्षेप रहता है। इस हस्तक्षेप से भौतिक ही नहीं भावनात्मक एवं वैचारिक परिस्थितियाँ भी बनती-बिगड़ती हैं।

इन दिनों होने वाले प्राकृतिक और सामाजिक परिस्थितियों की उलट फेर का यही रहस्य है। ज्योतिषवेत्ताओं ने ही नहीं खगोल विज्ञानियों ने भी इस पर अपनी सहमति व्यक्त की है कि 24 अक्टूबर 1995 को हुए पूर्ण सूर्यग्रहण के प्रभाव अगले दिनों अनेकों तरह की भावनात्मक विक्षुब्धता और वैचारिक संघर्ष के रूप में देखे जा सकेंगे। इन प्रभावों का अध्ययन कर रहे वैज्ञानिकों ने इन दिनों सूर्य में काले धब्बों में चुम्बकत्व का गुण अधिक होता है, जबकि दृश्यमान सतह पर विद्युतीय गुण होता है।

इन काले धब्बों का चुम्बकीय गुण ही धरती निवासियों की भावनाओं और विचारों को विशेष रूप से उत्तेजित और आन्दोलित करता है। अब तक का इतिहास साक्षी है कि जिन वर्षों में सूर्य में काले धब्बों में बढ़ोत्तरी दिखाई दी, वे वर्ष धरती के लिए क्रान्तियों और परिवर्तनों के साल साबित हुए हैं। सामान्य क्रम में इन सौर कलंकों में घट-बढ़ का समय 11 वर्षों के अन्तराल में आता रहा है। पर इस समय यह क्रम विपर्यस्त हो चुका है। ग्यारह वर्षों की मर्यादा को अस्वीकार करके सूर्य में काले धब्बे इन दिनों तेजी से बढ़ रहे हैं।

इनके प्रभाव का मापन करने के लिए अमेरिकी संस्था नासा के सोलर मैक्सिमम मिशन ने एक अत्याधुनिक उपकरण तैयार किया है। इस उपकरण को उन्होंने एक्टिव कैविटी रेडियोमीटर इरेडिन्यस मोनीटर यानि कि.ए.सी.आर.इ.एम. नाम दिया है। यह सौर प्रभावों के अन्वेषण युग एक ऐसा प्रयास है जो सौर ऊर्जा फ्लक्स के एक प्रतिशत के हजारवें भाग के सूक्ष्म परिवर्तन का भी मापन कर लेता है। इस नए अन्वेषण से यह पता चला है कि सूर्य में उत्पन्न हो रहे काले धब्बों की वजह से सौर ऊर्जा की तीव्रता में एक प्रतिशत के दसवें भाग की कमी हैं, क्योंकि काले धब्बे सौर विकिरण को कम कर देते हैं।

इस परिवर्तन से जहाँ कतिपय वैज्ञानिक इस बात को लेकर चिन्तित हैं कि सूर्य की तीव्रता कम होने से कहीं इक्कीसवीं सदी में हिमयुग का आगमन न हो जाए। वहीं विलकिन्स जैसे अन्य विशिष्ट और वरिष्ठ विज्ञानविदों ने इस शंका और चिन्ता को बेबुनियाद बताया है। इनमें से एक वैज्ञानिक एच.ग्रासमैन का तो यह मानना है कि सूर्य ऊर्जा की तीव्रता में कमी सूर्य द्वारा प्रकृति को फिर से सन्तुलित और पुनर्गठित करने का प्रयास है। सूर्य की तीव्रता में कमी आने से जहाँ ओजोन छतरी में छेद होने के कारण जहाँ बढ़ती जा रही उष्णता नियन्त्रित हो सकेगी, वहीं बढ़ती कार्बन-डाई-आक्साइड के कारण भयावह गर्मी के प्रभाव भी न्यून हो सकेंगे। इस तरह इक्कीसवीं सर्दी में प्रकृति और पर्यावरण सुनिश्चित रूप में अपना उज्ज्वल स्वरूप प्रस्तुत करेंगे?

हाँ, सूर्य में काले धब्बों को अकस्मात् होने वाली बढ़ोत्तरी के आधार पर प्रकृति और मानव समाज के परिवर्तनों की व्याख्या करने वाले जे.विलकिन्स का कहना है कि भावी वर्ष प्रकृति और मनुष्य के लिए अनेकानेक परिवर्तनों के होंगे। इस अवधि में एक के बाद एक अनेकों क्रान्तियाँ घटित होंगी, जो मानव समाज के वर्तमान को आमूल-चूल बदल डालेंगी। यों इन वर्षों में अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सूखा, अकाल, भूकम्प आदि ही नहीं युद्ध और महामारियों के प्रकोप भी होंगे। किन्तु इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करते-करते इस विनाश और विध्वंस लीला को चीरती उज्ज्वल भविष्य की किरणें भी दिखायी देने लगेंगी, जिनका प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता जायगा।

इन काले धब्बों के अलावा सूर्य की कक्षा में एक अन्य दृश्य देखने को मिला है। यह दृश्य है हयाकुता के नाम के धूमकेतु का सूर्य की ओर से बढ़ना जिसे बहुतों ने टेलिस्कोप के जरिए 15 मार्च से 18 मार्च के बीच देखा। खगोलशास्त्रियों के अनुसार 18 मार्च के बाद से इसे आधी रात और सूर्योदय के बीच नंगी आँखों से देखा जा सकेगा। दस साल में यह पहला मौका होगा, जब कोई धूमकेतु नंगी आँखों से देखा जा सकेगा। इससे पहले मार्च 1986 में हेली धूमकेतु को इसी तरह देखा गया था।

दिल्ली स्थित नेहरू तारा मण्डल की निर्देशिका डा0 निरुपमा राघवन के अनुसार इस धूमकेतु को देश के दक्षिणी राज्यों की तुलना में उत्तरी राज्यों में अधिक देखा जा सकेगा। इस धूमकेतु को इस वर्ष जनवरी में पहली बार एक जापानी शौकिया खगोलविद् ने देखा था। वैज्ञानिकों के अनुसार 23 से 25 मार्च के बीच यह पृथ्वी से करीब डेढ़ करोड़ किलोमीटर दूरी पर स्थित था।

डॉ0 राघवन के अनुसार अमेरिकी वेधशाला में इस पर 259 परीक्षण किए गए हैं। इन परीक्षणों से यह पता चला है कि सौर मण्डल में यह धूमकेतु पहली बार आया है। इसकी सतह पर काफी धूल और गैस होने की सम्भावना है। वैज्ञानिक परीक्षणों में पाया गया है कि इस पर जो धूल और गैस है, वे उसी अवस्था में है जिस अवस्था में साढ़े चार अरब वर्ष पहले इसके अस्तित्व में आने के समय में थे।

अमेरिकी खगोलविदों के अनुसार उन्हें पाँच मार्च को पता चला कि यह धूमकेतु 19 मार्च तक तुला राशि में रहेगा और उसके बाद वक्र होकर चलने की अपनी चिरकालिक प्रक्रिया के अनुरूप कन्या राशि में प्रवेश कर जाएगा। यह धूमकेतु सौर मण्डल में बलयिक दीर्घ वृत्ताकार कक्ष में धूम रहा हैं। इस कारण यह पृथ्वी की ओर न बढ़कर धीरे-धीरे सूर्य की ओर बढ़ेगा। जैसे-जैसे यह सूर्य की ओर बढ़ेगा इसकी चमक भी बढ़ती जाएगी। सूर्य के पास जाने पर इस पर जमी बर्फ व धूल गर्मी के कारण गैस में बदल जाएंगे। सूर्य के जोरदार गुरुत्व बल के कारण यह गैस पूछ का रूप धारण कर लेगी। होना यह चाहिए कि इसकी नंगी आँखों से देखी जाने वाली अवधि संधिकाल की चैत्र की नवरात्रि ही थी।

धूमकेतु पर अब तक के अध्ययनों के अनुसार हयाकुता के अगले साल पृथ्वी से दिखाई पड़ने वाले हेल बोप्प नामक एक अन्य धूमकेतु की तुलना में कम चमकदार है। पृथ्वी की ओर बढ़ रहे हेल बोप्प को गत वर्ष 26 जुलाई को दो अमेरिकी खगोलविदों ने पहली बार न्यूमेक्सिको में देखा था। चूँकि धूमकेतुओं के आकार का आंकलन चमक के आधार पर ही किया जाता है। इसलिए हयाकुता के धूमकेतु का आकार हेली धूमकेतु से 150 से 200 गुना अधिक किन्तु हेल बोप्प से कम होने का अनुमान है। इसके अलावा हयाकुता के सूर्य के करीब पहुँचने पर जो पूँछ बनेगी, वह हेल बोप्पा की बनने वाली पूँछ से काफी छोटी होगी। पूँछ हेल बोप्प अभी सूर्य से काफी देर है, लेकिन इसकी पूँछ बन गयी है। हेल बोप्प जैसे-जैसे सूर्य के निकट होता जाएगा, इसकी पूँछ बड़ी होती जाएगी।

ये धूमकेतु पृथ्वी या किसी अन्य ग्रह से टकराएंगे ऐसी सम्भावना तो नहीं है। किन्तु इतना सुनिश्चित है कि इनके कारण प्रकृति पर्यावरण और मानवीय परिस्थितियाँ व्यापक हलचलों एवं गम्भीर उथल-पुथल से भरी रहेंगी। इन परिस्थितियों में सूर्य से मानसिक सम्बन्ध बनाए रखने वाले न केवल स्वयं को विध्वंस और विनाश से बनाए रखेंगे, बल्कि अपने अन्तःकरण में ऐसी अलौकिक प्रेरणाओं को उतरता हुआ अनुभव करेंगे, जिसे अपनाकर वे नव सृजन के देवदूत कहला सके।

सूर्य को ऋषियों ने त्रयी विद्या कहा है। अर्थात् उसमें स्थूल तत्व (जिनसे शरीर बनते हैं), प्राण (जिनसे चेतना आती है) और मन (जो चेष्टाएं प्रदान करता है) तीनों तत्व विद्यमान है। हम दृश्य रूप से सूर्य के परिवर्तनों से प्रभावित होकर दुःखी होते हैं, किन्तु गायत्री मंत्र के माध्यम से जब हम सूर्य के साथ अपने मनोमय जगत को जोड़ते हैं तादात्म्य करते हैं, तो हमें उसके आध्यात्मिक लाभ-स्वास्थ्य, तेजस्विता और मनस्विता के रूप में मिलता है। यद्यपि इस विद्या से अभी सुप्रचलित विज्ञान परिचित नहीं है। लेकिन जिस दिन पृथ्वी के लोग इस विद्या को ठीक-ठीक जान लेंगे उस दिन सुख-शान्ति और समृद्धि का कोई अभाव नहीं रहेगा। पर युग परिवर्तन की इस सन्धि और सक्लान्ति अवस्था में उन लोगों को अधिक श्रेय सम्मान मिलेगा, जो इस तत्व ज्ञान के अवगाहन और इसे सारे विश्व में फैलाने का प्रयत्न करेंगे।


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