स्वास्थ्य-रक्षा के कुछ सरल किन्तु अनिवार्य नियम

April 1996

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मनुष्य धनवान, विद्वान, प्रतिभावान, अफसर, चैम्पियन और न जाने क्या-क्या बनना चाहता है, पर यह भूल जाता है कि स्वास्थ्य को सही रखे बिना प्रगति की दिशा में एक सीढ़ी चढ़ सकना भी सम्भव नहीं। जो स्वयं रुग्णता से कराहता रहता है, जिसमें अपने शरीर की गाड़ी धकेलने की सामर्थ्य नहीं है, जो पग-पग पर इसके लिए दूसरों की सहायता चाहता है उसके लिए कोई कहने लायक पुरुषार्थ कर सकना संभव नहीं। जो चिकित्सा के लिए घर की पूँजी समाप्त करता है, जिसे परिचर्या के लिए दूसरों का सहारा चाहिए, वह किस प्रकार क्या कुछ पराक्रम कर सकेगा और किये बिना अनायास ही कैसे समृद्धि सफलताएं अर्जित कर सकेगा।

प्रगतिशील बनना न बन पड़े तो भी मनुष्य को स्वावलम्बी तो होना ही चाहिए। दूसरों की सेवा-सहायता न बन पड़े तो कम से कम आत्म-निर्भर तो होना ही चाहिए। स्वस्थ रहना भी एक प्राथमिक आवश्यकता है। इसकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।

परमार्थ न सही, स्वास्थ्य-साधना को ध्यान में रखते हुए भी स्वास्थ्य-रक्षा के सम्बन्ध में समुचित सतर्कता बरती जानी चाहिए और इसके लिए जो अकाट्य नियम हैं उनका महत्व समझना और दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए।

इस संदर्भ में पहला नियम है-भूख से कम खाना। पेट को हलका रखना। बहुमूल्य और स्वादिष्ट व्यंजनों की अपेक्षा फल और शाक की भोजन में बहुलता रखनी चाहिए। अन्न लेना हो तो उसे अंकुरित कर लिया जाय। पकाने में बहुत अधिक अग्नि संपर्क न किया जाय। जिनका उबालना आवश्यक है, उन्हें उबाल लिया जाय। खाद्य पदार्थों को छिलके समेत लिया जाय, उन्हें तला-भुना न जाये। कुकर की भाप में पकाना ठीक है। खुली कढ़ाई या पतीली में उसके जीवन-तत्व भाप में उड़ जाते हैं।

मनुष्य प्रकृतितः शाकाहारी है। माँसाहार उनके लिए हर दृष्टि से हानिकर होता है। प्रोटीन के नाम पर उस की सिफारिश की जाती है पर यह भूल जाना चाहिए कि वह सुपाच्य ही होना चाहिए। माँस दुष्पाच्य है। पशुओं के शरीर की बीमारियाँ मनुष्य के शरीर में पहुँचती हैं और मस्तिष्क में भी वैसी ही दुष्प्रवृत्तियाँ बैठती हैं। मार-काट करने-कराने वाले वैसी ही प्रवृत्ति अपना लेते हैं और मनुष्यों के साथ भी वैसी ही निष्ठुरता बरतते हैं।

भोजन की तरह पानी भी मनुष्य का आहार है। पाचन और स्वच्छता की दृष्टि से यह आवश्यक है। दिन−रात में 15 गिलास पानी पेट में पहुँचना चाहिए। उसमें पोषक तत्वों का सभी समावेश है।

शारीरिक श्रम की उपेक्षा न की जाये। इन दिनों मानसिक श्रम को अधिक सम्मान का और उपार्जन का माध्यम माना जाता है और शारीरिक श्रम में गंवारपन समझा जाता है और उसे हलकी दृष्टि से देखा जाता है यह बुरी बात है। इससे पाचन में अड़चन पड़ती है और शरीर की पेशियाँ तथा नाड़ियाँ जकड़ जाती हैं। इससे चुस्ती तथा फुर्ती एक प्रकार से विदा ही हो जाती है। मनुष्य अजगर की तरह बैठा रह तो उसे रक्तचाप मधुमेह, हृदय रोग, गठिया आदि का शिकार बनना पड़ेगा।

विचारशील वर्ग के लोग चाहे कितने ही व्यस्त हों, कितने ही महत्वपूर्ण पदों पर हों पर व्यायाम में चूक नहीं करते हैं। गाँधी जी प्रातः नियमित रूप से तेजी के साथ टहलने जाते थे। विनोबा पदयात्रा में दस मील नित्य चलते थे। अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का सबेरे दौड़ने का नियम था। इसी प्रकार अमेरिका के राष्ट्राध्यक्ष केनेडी, आइजन हाँवर, जॉनसन आदि ने नित्य दौड़ने का नियम अपनाकर अपना शरीर स्वस्थ रखा था। मिलिटरी में दैनिक परेड होती है और उन्हें पसीना निकालने वाला श्रम कराया जाता है यदि वे न करें तो कुछ ही दिन में दुकान के लालाजी बन जायेंगे और लड़ना उनके बलबूते का न रहेगा।

पेट, हृदय ओर मस्तिष्क की ही तरह एक आवश्यक अंग है-मेरुदण्ड। मस्तिष्क से निकल कर सारे शरीर के लिए ज्ञान तन्तु इसी मार्ग से जाते हैं। यदि रीड का व्यायाम न हो तो उसके अस्थि खण्ड आपस में जुड़ने सिकुड़ने लगते हैं फलतः शरीर को असाधारण क्षति होती है। व्यायाम से टहलते समय इस बात का ध्यान रहे कि उससे मेरुदण्ड को सिकुड़ने फैलने की क्रिया होती रहे। जो व्यायाम में सर्वथा अशक्त हैं उन्हें माँसपेशियों को सिकोड़ने फैलाने वाली मालिश कराते रहना चाहिए।

साँस सदा गहरी लें। झुककर न बैठें। गरी साँस लेने से फेफड़ों में पूरी वायु पहुँचती है और उसके माध्यम से आक्सीजन की आवश्यकता पूरी होने में बाधा नहीं पड़ती। झुककर बैठे रहने पर या उथली साँस लेने पर फेफड़ों का एक छोटा भाग ही काम करता है, शेष निष्क्रिय पड़ा रहता है। इस भाग में क्षय आदि के कीटाणु जम जाते हैं और अपना घोंसला बना लेते हैं। कुकर, खाँसी, दमा आदि इसी कारण होता है। व्यायाम में पूरी साँस लेने की व्यवस्था हो गई, इतने से ही काम नहीं चल जाता। हर साँस गहरी ली जाती रहे इसका अभ्यास करके उस आदत को स्थाई बना लेना चाहिए।

रात्रि को जल्दी सोना और प्रातः जल्दी उठना बहुत अच्छी आदत है। इससे शारीरिक ही नहीं मानसिक लाभ भी हैं जो लोग रात को देर से सोते हैं और सबेरे दिन चढ़े उठते हैं उनके चेहरे पीले पड़ जाते हैं प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त का समय हर काम को करने में सर्वश्रेष्ठ है। इस समय को सोने में गुजार दिया जाय तो इससे कई प्रकार की हानियाँ होती हैं।

स्वास्थ्य-रक्षा के ये थोड़े से नियम ऐसे हैं जिन्हें पालन करते रहने पर न बीमार पड़ना पड़ेगा और न दुर्बलता का शिकार होने का कुयोग पीछे पड़ेगा।


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