देवों और दैत्यों का भी अस्तित्व रहा है मानवीय इतिहास में

April 1996

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भारतीय मिथकों में मनुष्य की ही तरह देवताओं और दैत्यों का भी वर्णन मिलता है। मनुष्य भूलोक में, देव स्वर्गलोक में और दैत्य पाताल में रहते थे। इन तीनों की आकृति, प्रकृति एवं स्थान के सम्बन्ध में जो विवरण उपलब्ध हैं, उनमें कितनी कल्पना का मिश्रण और कितना यथार्थता का समावेश है, कहना कठिन है। फिर भी सामान्यतया यह सोचा जा सकता है कि मनुष्य प्राचीन काल में भी ऐसे ही रूपाकार के रहे होंगे जैसे आज हैं। साधन-सुविधाओं के अभाव में वन्य क्षेत्र में रहना और कष्टसाध्य परिस्थितियों का सामना करना पड़ता होगा, तो भी वे निर्वाह की स्वाभाविक आवश्यकताएं पूरी कर लेते थे और प्रकृति से संघर्षरत रहने के कारण बलिष्ठ भी रहते थे।

सुविधाएं बढ़ने पर छीन-झपट चल पड़ती है, किन्तु असुविधाग्रस्तों में परस्त अधिक सहयोग-सद्भाव रहता है। इस आधार पर प्राचीनकाल के मनुष्य अपेक्षाकृत अधिक पुरुषार्थी, संतोषी और सहयोगी प्रकृति के रहे होंगे यह कहा जा सकता है। देवताओं की बुद्धि संगत व्याख्या और स्वरूप यही हो सकता है। तनिक गंभीरतापूर्वक सोचने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि अपनी देने की प्रवृत्ति के कारण एवं सुयोग्य, समर्थ होने के कारण ही सम्भवतः वे ‘देव’ कहे जाते रहे होंगे। हो सकता है कि प्रकृति की विशिष्ट शक्तियों को और भावना क्षेत्र की सज्जनता को देवत्व का प्रतीक प्रतिनिधि माना गया होगा। उनके साथ जुड़ी हुई विशेषताओं विभूतियों को अलंकारिक रूप में चित्रित किया गया होगा। देवताओं के वाहन, आयुध ऐसे ही रहस्यों को अपने में छिपाये गए हैं। उनकी अनेक भुजाओं, मुखों, नेत्रों, सिरों का अंकन भी कदाचित् इसी आधार पर हुआ हो। सहायता के लिए सदा प्रस्तुत रहने वालों को ‘देव’ कहा जाना स्वाभाविक है, उन्हें देव रूप में प्रतिष्ठा और मान्यता देना युक्तिसंगत भी है।

दैत्य का भावार्थ है-विशाल, समर्थ एवं उद्धत। दैत्य, दानव, असुर आम बोल-चाल में एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, पर वे सब हैं वस्तुतः अलग-अलग। सुर समुदाय के अतिरिक्त अन्यान्यों को ‘असुर’ कहा गया है। मध्य एशिया में बसने वाली एक जाति भी थी-’अहुर’ जिसे ‘असुर’ शब्द का अपभ्रंश कह सकते हैं। उन क्षेत्रों में जीवनोपयोगी सामग्री का अभाव रहने से वे दूर-दूर तक आक्रमण धावे बोलते थे। शायद इसी क्रूरता के कारण उन्हें यह नाम दिया गया होगा अथवा परम्परागत यही नाम उनके हिस्से में आया होगा। ‘दानव’ शब्द भी इसी प्रकार नृशंसता का बोधक है।

‘दैत्य’ शब्द आकार एवं वैभव का परिचायक है। अंग्रेजी में इसे ‘जाइण्ट’ कहा गया है। रावण, कुम्भकरण, मेघनाद, सहस्रबाहु आदि के शरीर सामान्यों की अपेक्षा अधिक बड़े माने जाते हैं। उनकी बलिष्ठता भी उसी अनुपात में बढ़ी-चढ़ी होनी चाहिए।

प्रागैतिहासिक काल में महागज, महागरुड़, महासरीसृप जैसे विशालकाय प्राणियों का इस धरती पर आधिपत्य था। इन्हीं दिनों मनुष्य स्तर के प्राणियों की उत्पत्ति हुई होगी, तो वे नर-वानर भी भीमकाय ही रहे होंगे। अब भी साधारण वनमानुषों की तुलना में गोरिल्ला, चिम्पाँजी अपेक्षाकृत बड़े और बलिष्ठ होते हैं। सामान्य वनमानुषों से कई गुना विशाल हिम मानवों के देखे जाने, पाये जाने की चर्चा अभी भी होती रहती है। उनके पैरों के निशान से भी उनकी विशालता का अन्दाज लगता है।

ऐतिहासिक खोजों से सभी विशालकाय मनुष्यों के अस्तित्व का पता चला है। फ्राँसीसी पुरातत्ववेत्ता लुई बरबलिटा ने अपने अन्वेषणों में किसी समय के भीमकाय मनुष्यों के अवशेष प्राप्त किये हैं। उनकी अस्थियों के आधार पर डयौढे से लेकर दूने तक आकार का उन्हें बताया गया है। सीरिया के सासनी क्षेत्र की खुदाई में चुम्बक पत्थर के बने आठ पौण्ड भारी हथियार मिले हैं। उत्तरी मोरक्को में भी प्रायः इतने ही वजनी और बड़े आकार के शस्त्र मिले हैं। वे ऐसे हैं, जिन्हें 12 फुट से कम ऊँचाई वाले मनुष्य प्रयुक्त नहीं कर सकते।

लेबनाना में एक दो लाख पौण्ड भारी विशेष पत्थर मिला है, जिस पर कई ओर से बढ़िया नक्काशी की गई है। यह कार्य दैत्याकार मानवों का ही हो सकता है। इस ऐतिहासिक पत्थर का नाम ‘हज्रएल गुल्ले’ रखा गया है। उसे देखने संसार भर के लोग पहुँचते हैं।

इटली और आस्ट्रेलिया के कई दुर्गम शिखरों पर ऐसी ही कलाकृतियाँ पायी गई हैं। इतनी ऊँचाई पर पहुँच कर उतने कठिन काम कर सकना दैत्याकार मानवों के लिए ही सम्भव हो सकता है। मिश्र के पिरामिडों में लगे पत्थर इतने वजनी हैं और इतनी ऊँचाई पर अवस्थित हैं कि उन्हें इस प्रकार जोड़ना वर्तमान आकृति के मनुष्यों के लिए किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता। दक्षिण अमेरिका में पाये गये पिरामिड खण्डहर इनसे भी अधिक आश्चर्यजनक हैं।

प्राणि विज्ञान के शोधकर्त्ताओं का एक वर्ग ऐसा भी है, जो कहता है कि प्राणि विकास की एक मंजिल ऐसी भी रही है, जिसमें मनुष्यों और पशुओं के बीच की विभाजन-रेखा पूरी तरह नहीं बन पायी थी और उनके मध्य यौनाचार चलता था। उस संयोग से संकार प्राणि भी उत्पन्न होते थे और उनमें दोनों के गुण समन्वित रहते थे। मनुष्य की बुद्धिमता और पशुओं की बलिष्ठता के संयोग से उत्पन्न प्राणी दैत्याकार थे। अब तो इस संकर प्रक्रिया द्वारा जीव विज्ञानी और वनस्पतिशास्त्री तरह-तरह की नयी किस्में और प्रजातियाँ विकसित करने में लगे हैं। इसमें प्रधानतया गुणावलियों में सुधार और आकार-प्रकार में विस्तार ही मुख्य होता है। इसी प्रक्रिया द्वारा उन्होंने घोड़े और गधे के बीच की एक नई प्रजाति खच्चर विकसित की है, जिसमें दोनों जातियों के गुण सम्मिलित हैं। उसमें यदि घोड़े का आकार और गठन है, तो भार-वहन-क्षमता गधे की पायी है। इस प्रकार मनुष्य के विकास काल में यदि ऐसे अप्राकृतिक संयोग और सृजन हुए हों, तो इसे आज संकर-प्रजाति-निर्माण की आदिम शुरुआत ही कहना पड़ेगा।

प्लेटो ने अपने ग्रन्थ ‘मैन एण्ड सिविलाइजेशन’ में मनुष्य और मनुष्येत्तर पशुओं के संयोग से दैत्याकार प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन किया है। ‘टैटीक्स एनेल्स’ नाम फ्राँसीसी ग्रन्थ में भी ऐसे ही विवरणों का उल्लेख है, जिसमें मनुष्यों और मानवेत्तर प्राणियों के बीच चलने वाले यौनाचार का विवरण मिलता है। इतिहासकार हैरोयोतस ने अपने विवरणों में ऐसे ही प्रचलनों की चर्चा की है और लिखा है कि अति आरम्भ काल में मनुष्य और मनुष्य एवं पशु की मध्यवर्ती प्रजाति के बीच खुल कर यौन सम्बन्ध होते थे। इसी के फलस्वरूप उस काल में यह नयी किस्म आकार एवं शक्ति के अनूठे प्रतिमान के रूप में उभरी। बगदाद एवं लन्दन के संग्रहालयों में ऐसी कई पाषाण प्रतिमाएं हैं, जिनसे उन दिनों ऐसा प्रचलन रहने की साक्षी मिलती है।

सुमेर सभ्यता के पुराण कथनों में निपुर क्षेत्र के निवासी ऐनेलिल नामक देव समुदाय में निनलिल नाम मानवेत्तर मादाओं के साथ संयोग करके अर्ध पशु और अर्ध मनुष्य स्तर की प्रजा उत्पन्न करने का वर्णन है। भारतीय पुराण मिथक इससे भी एक कदम आगे है। उनमें हनुमान पुत्र मकरध्वज, मत्स्यगन्धा आदि का वर्णन है। भीम पुत्र घटोत्कच ऐसी ही संकर संतान स्था। दो भिन्न प्रजातियों के संपर्क से उत्पन्न होने के कारण ही उसका बल और पराक्रम अद्वितीय था। नृसिंह ह्यग्रीव जैसे अवतारों की आकृति अर्धपशु-अर्ध मनुष्य जैसी दर्शायी गई है। गणेश को भी ऐसा ही चित्रित किया गया है।

इतिहासकार पाताललोक अमेरिका को बताते हैं और वहाँ कभी ‘मय’ सभ्यता का चरमोत्कर्ष मानते हैं। महाभार में ‘मय’ दानव परिकर बताया गया है, जो सूर्योपासक था। ज्योतिर्विज्ञान का उसे आविष्कर्ता एवं मूर्धन्य भी माना गया है। अहिरावण पातालपुरी का ही एक शासक था। भौतिक विज्ञान और बलिष्ठता-सम्पन्नता की दृष्टि से बढ़-चढ़े होने के रण यह लोग ‘दैत्य’ कहे जाते थे।

पुरातत्व विशेषज्ञ हैविट्ट, मैकेज्जी, थेड आदि का कथन है कि मय सभ्यता के दिनों भारतीय सभ्यता के अनुरूप ही मान्यताएं प्रचलित थीं। वहाँ ‘नाग’ जाति के लोग रहते थे, अतएव उस क्षेत्र को ‘नागलोक’ भी कहा जाता था। नागलोक पाताल लोक का ही दूसरा नाम है। मय शासकों को दैत्य कहा जाता था। वे भूलोक में भी आते थे। मायावी कहलाते थे। जल से थल और थल से जल का भ्रम उत्पन्न करने वाला स्थान उन्होंने द्रौपदी के मनोरंजन हेतु बनाया था। उसी से भ्रमित होकर दुर्योधन को उपहासास्पद बनना पड़ा। लंकापुरी उन्हीं के द्वारा विनिर्मित हुई थी।

‘राक्षस’ भी इसी कोटि का प्राणी कोटि का प्राणी था। अपनी बलिष्ठता और मजबूती के कारण ही वह राक्षस कहलाया। सूत्रकार ने इसको परिभाषा करते हुए लिखा है कि क्षति से जो दूसरों को सुरक्षा प्रदान कर सके, वह राक्षस है। इस परिभाषा से भी उनके आकार-प्रकार का सहज अनुमान लगता है। जो असाधारण शरीर गठन वाला बलवान और सामर्थ्यवान हो, दूसरों की सुरक्षा की गारण्टी वही ले सकता है। इससे भी उनकी असामान्य शक्ति और विभूति का ही पता चलता है दूसरा कुछ नहीं, जिससे कि मानवाकृति से उन्हें भिन्न कहा जा सके। बाल कथाओं में जिन सींगों और लंबे दाँतों की चर्चा होती है, वह इसलिए कि अपरिपक्व बल-बुद्धि उसे सरलतापूर्वक सामान्य मनुष्य से भिन्न पहचान सके।

महाभारत में एक ऐसी कथा का वर्णन है, जिसमें अज्ञातवास के दौरान भीम की भिड़न्त एक दैत्यराज से हो गई थी। उसके आहार की मात्रा असाधारण थी। प्रतिदिन वह उस क्षेत्र के एक मनुष्य को अपना आहार बना लेता था। इसके अतिरिक्त भी ढेर सारा भोजन करता था। द्रौपदी के कहने पर उस दैत्य का वध करके भीम ने ही वहाँ की जनता को उससे त्राण पहुँचाया था।

इसके अतिरिक्त पुराणों में गंधर्व एवं यक्ष जैसी जातियों का सभी वर्णन मिलता है। मनुष्यों के साथ इनका संपर्क रहता था और परस्पर विवाह-सम्बन्ध भी होता था। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे कोई सूक्ष्म लोक के सूक्ष्म प्राणी नहीं, वरन् स्थूल मानवाकृति वाले ही कोई भिन्न जाति रहे होंगे।

इस प्रकार देवता और दैत्य उपाख्यानों में मनुष्य से भिन्न प्रकार के प्राणी मालूम पड़ते हैं, पर वास्तविकता यह है कि तीनों ही वर्ग प्रकृति से भिन्न अवश्य होते हैं, पर उनकी आकृति एक जैसी ही होती है।


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