विचारों एवं वस्तुओं की शक्ति से प्रभावित होता है हमारा वातावरण

April 1996

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मनुष्य एक चलता-फिरता विद्युतघर है- यह कोई नया तथ्य नहीं। उसकी नस-नस में एक विशेष प्रकार की विद्युत शक्ति संव्याप्त होती है। यह शक्ति सिर्फ शरीरधारी चैतन्य प्राणियों पर ही असर नहीं डालती, वरन् निर्जीव और जड़ कहे जाने वाले पदार्थों को भी समान रूप से प्रभावित करती है।

मकानों पर मनुष्य के रहने का प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। एक मकान में कोई मनुष्य न रहे और वह खाली पड़ा रहे, तो बहुत जल्द उसकी दशा खराब हो जायेगी और कम समय में ही वह बर्बाद हो जायेगा, किन्तु देखा जाता है कि वैसे मकान जिसमें मनुष्य रहते हैं, इतनी जल्दी खराब नहीं होते हैं। मोटे तौर से देखने में वह मकान खराब होना चाहिए, जिसमें लोग रहते हैं, क्योंकि प्रयोग करने से हर वस्तु जल्दी टूटती है और जो चीज काम में नहीं आती, वह ज्यादा दिन चलती है, परन्तु यहाँ उलटा ही उदाहरण दृष्टिगोचर होता है। इसका कारण एक ही है-शरीर विद्युत का चमत्कार। विशेषज्ञों का कहना है कि मनुष्य शरीर की बिजली जड़ पदार्थों में सभी बल का संचार करती है। मकानों में दीर्घ जीवन के साथ-साथ उसके मालिकों के विचारों का वातावरण भी गूंजता है। जिस घर में जैसी प्रकृति के लोग रहते हैं, उनके विचारों की शृंखला से वैसे ही प्राण ऊर्जा विद्युतीय आभा के रूप में उस स्थान पर संव्याप्त हो जाती है।

ये लोग चले जाय, तो भी बहुत काल तक उनके गुण, स्वभाव वहाँ डेरा डाले रहते हैं। अध्यात्म विद्या के आचार्यों का कहना है कि जिसे अध्यात्म तत्व की तनिक सी जानकारी होगी, वह किसी भी मकान में प्रवेश करते ही बता सकता है कि यहाँ पर कैसे स्वभाव के लोगों का रहना होता है या हुआ था। भले विचारों से परिपूर्ण मकान में प्रवेश करते ही एक शान्ति-शीतलता का अनुभव होगा। जिन स्थानों में बुरे विचार के लोग रहते हैं, वहाँ अपने मन में भी उस प्रकार के तरंगों का प्रादुर्भाव होने लगता है। जिस स्थान पर कोई वीभत्स या भयंकर कार्य हुए हैं, उन जगहों का वातावरण मुद्दतों तक नहीं बदलता। जिन मकानों में अग्निकांड, भ्रूण हत्या, कत्ल या ऐसे ही अन्य जन्य कार्य हुए हैं, उन घरों की ईंटें रोती हैं और उन स्थानों पर सताये गये प्राणी की करुणा कभी-कभी आग्रत होकर बड़े डरावने दृश्य या स्वप्न उपस्थित करती है। इन्हीं घरों का अभागा या भुतहा होना प्रसिद्ध होता है। उनमें जो कोई रहता है, उन्हें कष्ट होता है, डर लगता है या अन्य उपद्रव होते हैं ऐसे स्थानों के सम्बन्ध में उनका कुछ आगे का इतिहास ढूंढ़ा जाय, तो जरूर कोई खटकने वाली घटना उस घर में हुई होगी- ऐसा विदित होगा। या तो कोई मनुष्य अत्यन्त ही शारीरिक अथवा मानसिक कष्टों से कराहता हुआ उसमें पड़ा रहा होगा या उस स्थान पर किसी की ‘हाय’ पड़ी रही होगी। उदाहरण के लिए यातनाग्रहों, बन्दीग्रहों एवं बूचड़खानों को लिया जा सकता है। उग्र मानसिक अनुभूतियाँ जिन स्थानों में मंडराती रहती हैं, उनमें रहने वाले सुख से नहीं रह सकते। प्रबल मनस्वियों को छोड़कर साधारण कोटि के लोगों का कलेजा उनमें काँपता रहता है।

डॉ. गोपीनाथ कविराज अपने ग्रन्थ ‘तान्त्रिक साधना और सिद्धान्त’ में लिखते हैं कि मनुष्य शरीर के एक-एक कण में इतनी शक्ति भरी हुई है कि उससे एक स्वतन्त्र सृष्टि का सृजन हो जाय। यदि इस प्रक्रिया में कोई बाधा उपस्थित न हो, तो वे कण अवसर पाकर अपने पूर्व रूप की भूमिका में एक स्वतन्त्र अव्यक्ति व्यक्ति की रचना करने लगते हैं। एक कण का एक अव्यक्ति स्वरूप बन सकता है। वे कहते हैं कि कोई मृत व्यक्ति, चाहे वह अन्यत्र जन्म ले चुका हो, फिर भी उसके पिछले कण यदि जाग्रत होने की स्थिति में आ जाय, तो वे प्रकट और प्रत्यक्ष हो सकते हैं। प्रेत, पिशाच, बेताल अक्सर किसी भूतपूर्व व्यक्ति के थोड़े से विद्युत परमाणुओं की एक स्वतन्त्र सृष्टि होती है। बहुत-सी बातें उनमें अपने पूर्व सत्ता से मिलती-जुलती हैं और बहुत-सी बिल्कुल स्वतन्त्र होती हैं। इस प्रकार से बने हुए भूत-प्रेतों के लिए यह आवश्यक नहीं कि उनके सारे स्वभाव और सारा ज्ञान पूर्व शरीर की ही भाँति हो। चूँकि मरघट इस प्रकार के स्वतन्त्र विद्युत कणों का एक प्रकार से भण्डार होता है, अतः मौका पाकर जब ये कण अपनी सम्पूर्ण सत्ता की भूमिका में आते हैं, तो वहीं भूत-प्रेत की तरह व्यवहार करने लगते हैं। कई बार सुनने में आता है कि अमुक व्यक्ति का प्रेत हजार साल जितनी लम्बी अवधि के बीत जाने पर भी अपनी सत्ता बनाये हुए है। ऐसी घटनाओं में व्यक्ति की मूल सत्ता यह नहीं होती। वह तो अनेक बार पुनर्जन्म लेकर जन्म-मरण के कई चक्र से होकर कई अवधि में गुजर चुकी होती हैं। फिर उस जैसी लगने वाली यह सत्ता कौन है? यह वस्तुतः वही स्वतन्त्र कण हैं, जो माक् पाकर अपनी पूर्व सत्ता की भूमिका में प्रकट हो जाते और मूल सत्ता की तरह व्यवहार करने लगते हैं।

सर्वत्र स्त्रियाँ जेवर पहनना पसन्द करती हैं और उससे सौंदर्य में वृद्धि भी होती है, इसमें दो मत नहीं। विज्ञान वेत्ताओं का कहना है कि वायु के साथ आकाशीय विद्युत की एक धारा भी बहती रहती है, जिसमें मनुष्य शरीर को पोषण करने का बड़ा गुण है। धातुओं में विद्युत को खींचने की क्षमता होती है। स्थूल और सूक्ष्म का भेद इस आकाशीय विद्युत में भी हैं। लोहे, पीतल या ऐसी ही सस्ती धातुओं का सस्तापन उनके रंग-रूप के कारण नहीं वरन् सूक्ष्म और उपयोगी विद्युत-प्रवाह को ग्रहण करने की दृष्टि से है। यदि यह बात होती, तो चाँदी की अपेक्षा लोहा महंगा होता, क्योंकि उसकी भौतिक उपयोगिता चाँदी से अधिक है। इसी प्रकार सोने से प्लेटिनम धातु, महँगी होती है, क्योंकि उसकी चमक सोने से भी अच्छी होती है। चाँदी और सोना आकाश की सूक्ष्म बिजलियों को आकर्षित करते हैं। चाँदी द्वारा शीतलता, गंभीरता और मन्दता उत्पन्न होती है। काम शक्ति को घटाने के लिए चाँदी के आभूषण काफी उपयोगी सिद्ध होते हैं। सोना उत्साह, तेज और चमक प्रदान करता है। चेहरे पर तेज या चमक होना स्त्रियाँ विशेष रूप से पसन्द करती हैं। सोने के जेवरों की उपयोगिता इसी दृष्टि से निर्धारित की गई है। कान के निचले भागों में ही सोना पहनना हितकारी है। इससे कनपटी और गालों से सम्बन्ध रखने वाली माँसपेशियों से उसका स्पर्श होता रहता है। कान के ऊपरी भाग में सोना पहनने से उसका संपर्क मस्तिष्क की ऊपरी पेशियों से होता है, जिससे चित्त में चंचलता उत्पन्न होती है। धातुएं अपने आकर्षण से आकाश की उपयोगी बिजली खींच कर पहने हुए शरीर में देती हैं। इससे न केवल सौंदर्य की, वरन् स्वास्थ्य की भी वृद्धि होती है। ताँबा भी सोने जैसा ही गुणकारी है, परन्तु न जाने उसके जेवर क्यों नहीं पहने जाते। शायद सस्तेपन के कारण ही उसकी उपेक्षा की गई है। सोने के पोले जेवर जिनके अन्दर लाख आदि भरवायी जाती है, यदि ताँबा भरवा दिया जाय, तो गुणों में वह सोने के समान ही देखा गया है। सोने में थोड़ा ताँबा मिलाकर ‘गिन्नी गोल्ड’ जैसी मिश्रित धातु के आभूषण और भी उत्तम पाये गये हैं। छाती, हृदय कंठ के आस-पास कोई जेवर पहनना हृदय को बल देता है। पुरुष जो स्वयं जेवर पहनना पसंद नहीं करते यदि सोने चाँदी या ताँबे की अंगूठियां भर पहने रहें, तो यह उनके स्वास्थ्य के लिए लाभकारी पाया गया है, किन्तु ध्यान रहें, ऐसे आभूषण आवश्यकता से अधिक शरीर में नहीं लाद लेना चाहिए, अन्यथा लाभ के स्थान पर उलटी हानि ही होगी। आकाशीय विद्युत उतनी ही मात्रा में शरीर के लिए उपयोगी है, जितनी को काया आसानी से पचा सके। उसकी अधिक मात्रा कई प्रकार के उपद्रव खड़े कर सकती है। इन दिनों अमीरी और बड़प्पन का प्रदर्शन करने के लिए सोने के आवश्यकता से अधिक गहने पहनने का प्रचलन चल पड़ा है। इस दिशा में स्त्री-पुरुष दोनों को समान रूप से सावधान रहना चाहिए। अष्ट धातुओं के आभूषण पहनने में तो विशेष रूप से सतर्कता बरतनी चाहिए, क्योंकि उसमें बहुत ही ऊँची आकर्षण धारा होती है। यदि इसका कोई बड़ा गहना, बड़ी अंगूठी पहन ली गई, तो अनिद्रा, रक्त पित्त, उन्माद जैसी शिकायत उत्पन्न हो सकती है। ताँबे और चाँदी के तारों से गुथी हुई अंगूठी में सात्विक विचारधारा को आकर्षित करने की अद्भुत सामर्थ्य होती है, अतः पुरुषों के लिए इस प्रकार की अंगूठियाँ कहीं अधिक लाभकारी और उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं।

पुराने लोग जेवर गिरवी रखने का व्यवसाय बुरा बताते हैं-यह अन्धमान्यता भर नहीं है। इसके पीछे सुनिश्चित वैज्ञानिक कारण है। ऐसे असंख्य उदाहरण पाये जाते हैं कि जेवर गिरवी रखने का व्यवसाय करने वाले फलते-फूलते नहीं और सदा किसी-न-किसी कष्ट से दुःखी रहते हैं। कारण यह है कि अधिकाँश गहने स्त्रियों के पहनने के होते हैं और वे उन्हें अत्यधिक प्यार करती हैं। जब वह गिरवी के लिए माँगे जाते हैं, तो वे बहुत दुःखी होकर देती हैं और भविष्य में भी जब तक वे उन्हें वापिस न मिलें, दुःखी बनी रहती हैं। यह दुःख भरी इच्छाएं अपनी इष्ट वस्तु पास पहुँचती हैं और उस पर लगातार लदती रहती हैं। धातुओं में विद्युत शक्ति को अधिक मात्रा में ग्रहण करने का गुण होने के कारण वे इन इच्छाओं को पूरी तरह अपनाये रहती हैं। इस प्रकार वे दुःख भरे विचार जिस व्यक्ति की अधीनता में रहेंगे, वे उसे अपने प्रीव से प्रीवित किये बिना कदापि न छोड़ेंगे। इसी कारण आभूषण या थाली-बर्तन आदि घर-गृहस्थी के काम आने वाली चीजें जो लोग गिरवी रखते हैं, देखा गया है कि वे दुःखी रहते और किसी-न-किसी प्रकार की विपत्ति में फंसे रहते हैं।

कपड़े शरीर के सबसे अधिक निकट संपर्क में रहते हैं इसलिए जड़ होते हुए सभी वे पूरी तरह प्रभावित हो जाते हैं। किसी का पहना हुआ कपड़ा पहनना ऐसा ही है, जैसा उसका जूठा भोजन खाना। एक पौराणिक कथा है कि देवगुरु बृहस्पति की कन्या देवयानी ने एक दूसरी लड़की शर्मिष्ठा के कपड़े पहन लिये थे, इसलिए उसे जीवन भर उसका गुलाम बन कर रहना पड़ा था। पुरानी चीजें बेचने वालों की दुकान से उतरे हुए बढ़िया कपड़े सस्ते दामों में खरीद कर लोग पहनते हैं और अपनी बुद्धिमानी पर प्रसन्न होते हैं। उन्हें जानना चाहिए कि वह कार्य उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत ही बुरा है। जिस आदमी के व्यक्तित्व के संबंध में जानकारी न हो, उसके विचार और स्वभावों से लदे हुए कपड़े पहनना आत्मविज्ञानी निरापद नहीं मानते। किसी के मन के ऊपर यदि किसी के बुरे विचार की छाप पड़ी, तो यह उसके शारीरिक रूप से बीमार पड़ जाने से भी अधिक बुरा होगा, क्योंकि शरीर की बीमारी तो थोड़े दिनों में ठीक हो जाती है, किन्तु मन के ऊपर पड़े अनिष्टकर प्रभाव जन्म भर दुःख देते हैं और आगामी जन्मों के लिए भी विरासत में मिलते चले जाते हैं। साधना मार्ग के पथिकों को विशेषकर इस दिशा में जागरुकता बरतने की आवश्यकता है। यह तर्क भी ठीक नहीं कि अच्छे स्वभाव के लोगों के कपड़े पहनने में हर्ज नहीं। किसी को भी किसी की आन्तरिक भाव-भूमि ज्ञात नहीं। क्या पता, जो व्यक्ति बाह्य आचरण से श्रेष्ठ प्रतीत होता हो, उसके मन में बुरे भाव नहीं हों अथवा कोई गुप्त रोग नहीं हो। इसलिए दूसरों के कपड़े पहनना भी एक प्रकार से अनजाने और अनचाहे ही उसके विचारों से प्रभावित होना ही कहा जायेगा।

रेशमी और ऊनी कपड़े बहुत कम प्रभाव ग्रहण करते हैं, इसलिए उन्हें पूजा आदि पवित्र कार्यों में, किन्हीं कारणों से बदलने या धोने की सुविधा न होने पर उसी रूप में यथावत् प्रयुक्त करने की छूट दे दी गई है। कपड़ों को धूप में खूब तपाने और गर्म पानी में उबालने से वे मैल और स्पर्श संबंधी उन दोषों से मुक्त हो जाते हैं, जो प्रतिदिन तरह-तरह के विचार और स्वभाव वाले लोगों के संपर्क में आकर वे ग्रहण-धारण कर लेते हैं। इसीलिए नित्य स्वच्छ-धुले कपड़े पहनने पर साधना विज्ञान में बल दिया गया है।

इतना जान-समझ लेने के उपरान्त अब इस सम्बन्ध में कोई ऊहापोह शेष रह नहीं जाती कि व्यक्ति और वस्तु का परस्पर कोई प्रच्छन्न प्रभाव नहीं पड़ता। साधना विज्ञान के आचार्यों ने इसी कारण से साधना में प्रगति के इच्छुक लोगों को आध्यात्मिक पुरुषों के अधिकाधिक संपर्क में रहने का निर्देश किया है। यदि इस विज्ञान को समझा जा सके, तो दैनिक जीवन में भी लोग कितने ही दुःख कष्टों से बच कर सुख-सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं।


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