लोकसेवी की आदर्श आचार संहिता

April 1996

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संपर्क में आते ही मनुष्य के जिस कृत्य का सर्वप्रथम प्रभाव पड़ता है वह व्यवहार ही है। किसी व्यक्ति की वेशभूषा, आकृति और उसके बोलने का ढंग ही प्रथम संपर्क में सामने आता है। खान-पान की आदतें रहन-सहन, प्रकृति, स्वभाव और आचार-विचार तो बाद में मालूम पड़ते हैं मनुष्य के व्यक्तित्व का पहला परिचय व्यवहार से ही मिलता है। इसीलिए कहा गया हैं कि व्यवहार मनुष्य की आन्तरिक स्थिति का विज्ञापन है दीखने में कोई बड़े सौम्य दिखाई देते हैं, आकृति बड़ी शान्त और सरल होती है लेकिन जैसे ही कोई उनसे संपर्क करता है तो उनकी वाणी से वे सभी बातें व्यक्त हो जाती है तो उनके स्वभाव में दुर्गुणों के रूप में शामिल हैं।

असंस्कृत मन अशिष्ट, भद्दे और फूहड़ व्यवहार के लिए प्रेरित करता है। कुसंस्कारी चित्त उसी प्रकार व्यवहार के माध्यम से अपना परिचय दे देता है और पहले संपर्क की प्रतिक्रिया अन्त तक अपना प्रभाव कायम रखती है, यहाँ तक कि वह बाद के सभी अच्छे प्रभावों को भी धूमिल कर देता है। इसलिए लोकसेवी को अपने व्यक्तित्व का गठन करते समय आचरण, रहन-सहन और स्वभाव का आदर्श रूप में प्रस्तुत करने के साथ-साथ व्यवहार के द्वारा भी अपनी आदर्शवादिता का प्रभाव छोड़ना चाहिए।

शिष्टता और शालीनता सद्व्यवहार के प्राण है। व्यवहार में इन गुणों का समावेश होने पर ही पता चलता है कि व्यक्ति कितना सुसंस्कारी है। प्रायः लोग आत्मीयता जताने या अपने को दूसरों से बड़ा सिद्ध करने के लिए अन्य व्यक्तियों से आदेशात्मक शैली तू-तेरे का सम्बोधन करते देखे जाते हैं इसका यह अर्थ होता है कि व्यक्ति में सेवाभावना होते हुए भी अच्छे संस्कारों की कमी है अथवा वह केवल अपने अहंकार का पोषण करने के लिए इस क्षेत्र में आया है। हर किसी से आप या तुम का सम्बोधन तथा बात-चीत करने में निर्देशात्मक शैली के स्थान पर सुझाव शैली का उपयोग सिद्ध करता है कि लोकसेवी कोई सन्देश लेकर पहुँच रहा है, न कि अपने बड़प्पन या विद्वता की छाप छोड़ने के लिए। शिष्टता का अर्थ है। प्रत्येक के साथ सम्मान पूर्ण व्यवहार और शालीनता अर्थात् प्रत्येक के प्रति स्नेह और आत्मीयता की स्तरीय अभिव्यक्ति।

स्नेह और आत्मीयता तो सर्वत्र व्यक्त की जाती है। असंस्कृत वर्ग के दो मित्र मिलते हैं तो वे भी स्नेह प्रदर्शन और प्रेम की अभिव्यक्ति करते हैं। लेकिन उनकी भाषा में जो फूहड़पन होता है वह अभिव्यक्ति के स्तर में गिरावट ला देता है। लोकसेवी को तो अपने आचरण और व्यवहार द्वारा भी लोकशिक्षण करना है, साथ ही अपने व्यक्तित्व का स्तर भी ऊँचा उठाना है। अतः यह आवश्यक है कि व्यवहार में स्नेह, प्रेम का समावेश करने के साथ-साथ शिष्टता और शालीनता भी समाविष्ट की जाय।

शिष्टता के साथ शान्तिपूर्वक बोलने और आवेशग्रस्त न होने की आदत भी लोकसेवी के स्वभाव का अंग होनी चाहिए। वैसे बहुत से लोग स्वाभाविक रूप से ही कठोर और कटुभाषी होते हैं। जोर से बोलना या कटूक्तियाँ कहना उनके स्वभाव में ही रहता है, लेकिन यह भी सम्भव है कि वे अपने सिद्धान्तों पर दृढ़ रहने की दृष्टि से कठोर व्यवहार कर रहे हों। स्वभावगत कटुता तो लोकसेवी के स्वभाव में होनी ही नहीं चाहिए। सिद्धान्तों के प्रश्न पर भी लोकसेवी का व्यवहार कटु-कर्कश न हो। दृढ़ता बात अलग है और कटुता बात अलग है।

दृढ़ता का अर्थ है अपने सिद्धान्तों और मर्यादाओं पर अडिग रहने की निष्ठा। कई अवसर ऐसे आते हैं जब सिद्धान्तों से विचलित होने का भय उपस्थित हो जाता है। लोग अपने स्नेह और श्रद्धावश उस तरह का आग्रह भी करते हैं। लोगों की श्रद्धा व्यक्ति के प्रति केन्द्रीभूत होकर उसे सम्मानित करने, अभिनन्दित करने के लिए सभी उमड़ सकती है और व्यक्तिपूजा का क्रम चल पड़ता है। ऐसी स्थिति में अपने आदर्शों पर दृढ़ रहने-मर्यादाओं का पालन करने के लिए दृढ़ रहना तो आवश्यक है, पर कटु होने की कही भी आवश्यकता नहीं हैं।

अपने सिद्धान्तों पर दृढ़ होते हुए भी लोगों के आग्रह को-जिनसे कि मर्यादा टूटने का डर रहता है, विनम्रता पूर्वक बचा जा सकता है। महात्मा गाँधी के जीवन में ऐसे कई प्रसंग आये जबकि उन्हें अपने सिद्धान्तों की रक्षा के लिए दृढ़ता बरतने की आवश्यकता हुई। परन्तु गाँधी जी बिना किसी प्रकार की कटुता व्यक्त किये अपने सिद्धान्तों पर दृढ़ बने रहे। उनके विदेशी मित्रों ने एक बार प्रीतिभोज का आयोजन किया। उस समय गाँधीजी विदेश में पढ़ रहे थे। प्रीतिभोज का आयोजन करने वाले मित्र उनके सहपाठी ही थे, भोज में माँस भी पकाया गया और परोसा जाने लगा तो उन्होंने मना करते हुए कहा कि-मैं इसका इस्तेमाल नहीं करता।

मित्रों ने समझाया कि-इसमें क्या नुकसान है। डॉक्टर लोग ता इसे स्वास्थ्यवर्धक बताते हैं।

गाँधी जी ने कहा-’परन्तु यह मेरा व्रत है कि मैं कभी माँसाहार न करूंगा।’ मित्र वाद-विवाद पर उत्तर आये और तर्क देने लगे। बहुत सम्भव था कि गाँधीजी भी वाद-विवाद करने लगते। मित्रों ने यह कहकर तर्कयुद्ध छेड़ने का प्रयास किया कि- ‘उस व्रत की क्या उपयोगिता जिससे लाभदायक कार्यों को न किया जा सके।’ तो गाँधीजी ने यह कह कर विवाद को एक ही वाक्य में समाप्त किया इस समय मैं व्रत की आवश्यकता, उपयोगिता का सभी ख्याल नहीं कर रहा हूँ। बल्कि मेरे लिए तो अपनी माँ को दिया गया वह वचन ही काफी है जिसमें कि मैंने माँस न खाने और खराब न छूने का संकल्प लिया था।’

गाँधीजी के मित्र वहीं चुप रह गये। वहाँ सिद्धान्त रक्षा भी हो गई और कटुता भी उत्पन्न न हुई। लोकसेवी को अपनी बात नम्रता और शालीनता पूर्वक कहनी चाहिए। यह नम्रता और शालीनता अन्तःस्थल से व्यक्त होनी चाहिए। अन्यथा व्यवहार में बनावटीपन भी हो सकता है। आन्तरिक क्षेत्र में द्वेष दुर्भाव रहते हुए भी लोग मीठा बोलने और अपने को हितैषी जाहिर करने का अच्छा अभ्यास कर लेते हैं। ठग और जालसाज अपने मन में दूसरे व्यक्ति को ठगने, उसका धन छीनने की भावना रखते हुए भी बाहर से ऐसा व्यक्त करते हैं कि चतुर से चतुर व्यक्ति भी उनसे धोखा खा जाते हैं। लेकिन इस बनावटीपन का प्रभाव कुछ देर तक ही रहता है। उस क्षणिक प्रभाव में ही ठग, जालसाज अपना मतलब हल कर चलते बनते हैं।

लोकसेवी का उद्देश्य तो स्थायी प्रभाव छोड़ना और व्यक्ति की जीवन क्रिया मोड़ना है। इसलिए उसका व्यवहार आन्तरिक भावनाओं से संयुक्त होना चाहिए। सोचा जा सकता है कि हमारे अंतःकरण में जब सद्भावनाएं विनय भाव, स्नेह और प्रेम सौजन्य उत्पन्न होगा तब लोगों से अच्छा व्यवहार करेंगे। यह भी एक आत्म प्रवंचना है। लोकसेवी को अपने व्यवहार में आन्तरिक गहराई तो लानी चाहिए, पर उसके लिए अन्तःकरण में सद्भावनाओं के उदय तक अपने व्यवहार का स्तर गिरा ही नहीं रहने देना चाहिए। क्योंकि व्यवहार का उद्देश्य प्रभाव उत्पन्न करने के साथ-साथ शिक्षण करना भी तो है। व्यवहार कुशलता प्राप्त करने के साथ-साथ आन्तरिक निष्ठा के समावेश की साधना भी नियमित रूप से चलती रहे।

यदि आन्तरिक एकात्मता उत्पन्न करने के प्रयास न किये गये तो व्यवहार में बनावटीपन बना ही रहेगा और एक न एक दिन वास्तविकता सामने आने से न रुकेगी। बनावटीपन के लिए, मिथ्याचरण के लिए कितना ही अभ्यास किया जाय, पर व्यक्ति का अपने मस्तिष्क पर से जैसे ही नियंत्रण थोड़ा कम होता है वैसे ही वास्तविकता प्रकट हो जाती है। एक छोटी सी घटना-है-उत्तर प्रदेश के प्रमुख राजनेता जो पर्वतीय क्षेत्रों में पैदा हुए थे एक बार गम्भीर रूप से बीमार पड़े। उन्होंने आरम्भ से ही हिन्दी और अंग्रेजी बोलने का अभ्यास कर रखा था। प्रायः वे अपने मित्रों और मिलने आने वालों से हिन्दी तथा अंग्रेजी में बातें किया करते थे। विशेषतः पढ़े लिखे व्यक्तियों से तो अंग्रेजी में ही बात करते थे। बीमार पड़ने पर काफी समय तक तो वे डॉक्टरों से अंग्रेजी में बातें करते रहे, लेकिन थोड़ी देर में हिन्दी बोलने लगे। स्वास्थ्य जैसे-जैसे बिगड़ता गया वैसे-वैसे मस्तिष्क पर से उनका नियन्त्रण कम होने लगा और एक स्थिति तो ऐसी आ गयी कि वे अपने क्षेत्र की प्रचलित भाषा-पर्वतीय भाषा में बोलने लगे। सुनने वाले लोग मुँह से वह भाषा सुनकर आश्चर्य चकित हुए क्योंकि उन लोगों ने जो काफी समय से उनके साथ काम करते रहते थे कभी वह भाषा उनके मुँह से नहीं सुनी थी।

कहने का अर्थ यह कि बाहरी अभ्यास मस्तिष्क पर नियन्त्रण रहने तक ही साथ देते हैं। मस्तिष्क पर से जैसे ही नियन्त्रण हटा या कम हुआ व्यक्ति के आन्तरिक भाव दुर्गुण उभर कर सामने आ जाते हैं। यह जो मनोविज्ञान का पक्ष है, इसे भलीभाँति समझते हुए हर समाज सेवा के क्षेत्र में उतरने वाले व्यक्ति को अपने जीवन की व्यावहारिक पृष्ठभूमि पहले चिन्तन क्षेत्र में आरोपित करने का अभ्यास कर लेना चाहिए जैसे-जैसे आन्तरिक अभ्यास परिपक्व होने लगता है मनःसंस्थान उन्हीं संस्कारों में ढल जाता है जैसा कि बहिरंग के व्यवहार में उन्हें झलकना चाहिए। स्वे-स्वे आचरेण शिक्षयेत का सिद्धान्त हमारे ऋषिगण हमें पढ़ा गए हैं। उसे हमें अच्छी तरह आत्मसात् कर अपनी जीवन शैली ढालने का प्रयास करते रहना चाहिए। (क्रमशः)


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