जिस व्यक्ति की आत्मा से सतत् शक्ति प्रवाहित होती रहती है, उसे सद्गुरु कहते हैं और जिसकी आत्मा इस शक्ति को अपने में धारण करने योग्य है वह शिष्य कहलाता है। बीज भी उम्दा और सजीव हो और जमीन भी अच्छी तरह जोती हुई हो। जहाँ ये दोनों बातें मिल जाये तो वहाँ प्रकृत धर्म का अलौकिक विकास होता है। सद्गुरु और शिष्य जब दोनों ही अद्भुत और असाधारण होते हैं तभी अपूर्व आध्यात्मिक जागृति होती है, अन्यथा नहीं। जहाँ यह सुयोग न हो उन लोगों के लिए तो आध्यात्मिकता बस एक खिलवाड़ भर है। हो सकता है उनमें थोड़ा बहुत बौद्धिक कौतूहल जगा हो अथवा थोड़ी सी बौद्धिक स्पृहा पैदा हो गयी हो। पर अभी वे धर्म साम्राज्य की बाहरी सीमा पर ही खड़े हैं जब तक उनका कौतूहल सच्ची धर्म पिपासा में परिवर्तित न हो जाय इसका कुछ खास महत्व नहीं। हाँ प्रकृति का एक बड़ा अद्भुत नियम है कि ज्यों ही भूमि की तैयारी पूरी हो जाती है, त्यों ही बीज बोने वाला आना चाहिए और वह आता भी है। ज्यों ही आत्मा की धर्म पिपासा प्रबल होती है, त्यों ही अपनी आत्मा से धर्म शक्ति का संचार करने वाले पुरुष को उस आत्मा की सहायता के लिए आना चाहिए और वे आते भी हैं।
हम चाहें तो खुद के जीवन में इसका परीक्षण कर लें। अपनी जिन्दगी में कई बार ऐसा होता है कि हमारे किसी प्रियजन की मौत हो जाती है। उससे हमें भारी सदमा पहुँचता है। उस समय हमें ऐसा लगता है कि हम जिसे पकड़ने चले थे वही हमारे हाथों से निकला जा रहा है। यकायक पैरों तले से जमीन खिसकती हुई मालूम पड़ती है, आँखों के सामने अँधेरा छाने लगता है। हमें किसी मजबूत और ऊँचे सहारे की जरूरत महसूस होती है। इस समय हमें लगता है कि अब हमें धार्मिक हो जाना चाहिए। थोड़े ही दिनों में वह भाव-तरंग नष्ट हो जाती है और हम जहाँ के तहाँ रह जाते हैं।
हममें से प्रायः ज्यादातर ऐसी ही भाव-तरंगों को धर्म पिपासा समझ लेते हैं। लेकिन जब तक हम इन क्षणिक आवेशों के धोखे में रहेंगे तब तक धर्म के लिए सच्ची और स्थायी आकुलता नहीं पैदा होगी और इसके बिना हमारी आत्मा सद्गुरु की शक्ति को अपने में धारण करने के लिए तैयार नहीं होगी। अतएव जब कभी हममें यह भावना पैदा हो कि सद्गुरु मिले, फिर भी कुछ न हुआ हो उस समय ऐसी शिकायत करने के बदले हमारा पहला कर्तव्य यह होगा कि हम अपने आप से ही पूछें, अपने हृदय को टटोलें और देखें कि हमारी धर्म पिपासा यथार्थ है अथवा नहीं हम अभी तक शिष्य बन सके अथवा नहीं।