आत्म सत्ता रूपी दर्पण में अपनी छवि स्वयं देखें

April 1996

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ज्ञान का अस्तित्व ज्ञाता की सत्ता के भीतर ही होता है। हम इस संसार में जितना और जो कुछ अनुभव करते हैं, वस्तुतः वह आत्म चेतना का ही विधि विस्तार है। आत्मेत्तर की कल्पना या अनुभव शक्य नहीं। अतः संपूर्ण अनुभव आत्म तत्व की ही बहुरंगी झाँकियाँ हैं। अपने आपे का जैसा स्तर एवं स्वरूप होगा, उसके अनुरूप ही दृश्य, श्रव्य, स्पृश्य जगत का अनुभव प्राप्त होता है।

इसका यह अर्थ नहीं कि जगत की स्वयं में कोई सत्ता नहीं। वह निश्चित ही है। जो लोग यह कहते या मानते हैं कि जगत मिथ्या या माया है, उसकी स्वयं की कोई सत्ता नहीं, उन्हें फिर आत्मसत्ता को भी अस्वीकार करना होगा। यदि ऐसा हुआ, तो फिर संपूर्ण संसार को प्रकाशित करने वाले प्रकाश के अस्तित्व को स्वीकार करने और उनके उद्गम स्रोत सूर्य को इनकार करने जैसा ही उपहासास्पद इसे कहना पड़ेगा। वास्तव में यह दृश्य जगत हमारे अपने ही अन्तस् की अभिव्यक्ति है। उसकी संरचना जिन तत्वों से जैसी हुई होती है, बाहर हमें वैसा ही भासता है। हर व्यक्ति रात्रि को स्वप्न देखता है। इसे देखने के बाद वह यह निराधार है, तो यह उसकी भूल होगी; क्योंकि बिना आधार और बिना सत्ता के अनुभूति संभव ही नहीं। स्वप्न विज्ञान पर शोध करने वाले मनोवेत्ताओं का कहना है कि नेत्रहीनों को स्वप्न में दृश्य नहीं दिखाई पड़ते, सिर्फ ध्वनियाँ ही सुनाई पड़ती हैं। उनका यह निष्कर्ष भी उपरोक्त बात की ही पुष्टि करता है कि आधार और अस्तित्व के बिना अनुभूति असंभव है। चूँकि चक्षुहीन लोग संसार को मात्र शब्द के रूप में ही समझ पाते हैं, दृश्य रूप में जान पाने की उनमें सामर्थ्य नहीं, इसलिए स्वप्न में संसार की प्रतीति उन्हें केवल ध्वनियों के रूप में ही हो पाती हैं; किन्तु यह ध्वनियाँ निरर्थक हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। अन्धों के लिए यह काफी महत्वपूर्ण होती हैं और उनके अध्ययन-विश्लेषण से उनकी आन्तरिक स्थिति का बहुत कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। इस कारण मनोवैज्ञानिक स्वप्नों को भी यथार्थ का ही अंग मानते हैं। हाँ, उनका यथार्थ जाग्रत दशा के यथार्थ से भिन्न होता है, यह वे अवश्य स्वीकारते हैं। इस अन्तर को समझते हुए वे स्वप्न की अनुभूतियों का इस प्रकार लाभ उठा लेते हैं कि वह जाग्रत काल के यथार्थ को सजाने, संवारने और संतुलित बनाने में सहायक हो जाती है। स्वप्न-प्रतीकों, स्वप्न-संकेतों के भाव एवं भाषा समझ कर वे उस आधार पर अपने आचरण में अवश्य फेर-बदल कर लेते हैं। इसी प्रकार जागृति-काल की दिनचर्या में वाँछित संशोधन करने पर स्वप्नों के स्वरूप में भी परिवर्तन आ सकता है, इसे भी वे भली-भाँति जानते और करते हैं। एक गंभीर मनोवैज्ञानिक के लिए ज्राति एवं सुषुप्ति-दोनों की ही प्रतीतियाँ अपने-अपने ढंग से यथार्थ ही हैं।

आत्मविज्ञानी, तत्वज्ञ एवं दार्शनिक इस जगत को भी स्वप्नवत ही मानते हैं; कारण कि वे जानते हैं कि यथार्थ जगत की जो अनुभूति व्यष्टि चेतना को सामान्य स्थिति में होती है, वह द्रष्टा की चेतना के स्वरूप पर ही आधारित है, उससे भिन्न नहीं। इसके गंभीर पर्यवेक्षण द्वारा द्रष्टा की मनःस्थिति का काफी हद तक अनुमान आँकलन किया जा सकता है। यह संसार के सापेक्ष स्वरूप की चर्चा हुई। जीव-जग इसी रूप में उसे ग्रहण-प्रतिपादन करता है। किन्तु निरपेक्ष रूप में, चेतना जगत में यह विश्व मात्र ‘सत्’ का विराट सत्ता का एक अंग है; पर इसकी अनुभूति जीवसत्ता के लिए संभव नहीं। उसका ज्ञान सदा सापेक्ष होता है। यह सापेक्ष ज्ञान स्वप्न तुल्य यथार्थ ही है।

आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान भी इसी निष्कर्ष तक आ पहुँचे हैं। उनका यह सर्वमान्य निष्कर्ष है कि आकर्षक रंगों, सम्मोहक, सौंदर्य की, चित्ताकर्षक ध्वनियों की, परिव्याप्त प्रकाश की, तापमयी ऊर्जा की, सुहावने संगीत की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं; वे तरंगों और गतियों के भिन्न-भिन्न समुच्चय मात्र हैं। ऊष्मा क्या है? वातावरण के तरंगों का संघात। प्रकाश एवं वर्ण की व्याख्या भौतिकीविद् ‘इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम’ के तरंग दैर्ध्य (वेवलेंग्थ) एवं आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) के रूप में करते हैं। प्रत्येक रंग प्रकाश खण्ड की एक निश्चित तरंग-लम्बाई और आवृत्ति का परिणाम है। इन दोनों के परिवर्तित होते ही प्रकाश-रंग भी बदल जायेगा। वैज्ञानिकों का कहना है कि तरंग यथार्थ तत्व है; पर जो रंग हम देखते हैं, वह हमारे मस्तिष्क की अपनी उपज है। यदि ऐसी बात नहीं होती, तो ‘कलर ब्लाइन्डनेस’ से आक्रान्त व्यक्ति हर प्रकार के रंगों को पहचानने में समर्थ होता; पर ऐसा देखा-सुना कहाँ जाता? वह कुछ खास-खास वर्णों को ही पहिचानने में सफल हो पाता है, शेष की पहिचान उसके बूते के बाहर की बात होती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि दिमाग का संबद्ध भाग किसी कारण से या तो निष्क्रिय हो गया होता है, या कोई क्षेत्र विशेष, क्षतिग्रस्त। इस प्रकार जग का यथार्थ अस्तित्व निरपेक्ष रूप में मात्र ‘अस्ति’ (है) है; किंतु वस्तु-सत्य के रूप में हम जो भी अनुभव करते हैं, वह हमारा ही आत्मपरक सृजन है। हमारी जो प्रतीति-क्षमताएं है, उनके अपने ढाँचे और स्तर के ही अनुसार हमें वस्तु-सत्य का अनुभव होता है।

तनिक हम कल्पना करें कि यदि विश्व का कोई भी चेतन प्राणी पाँच ज्ञानेन्द्रियों में से एक की भी शक्ति से समर्थ नहीं होता, अर्थात् किसी में भी देखने, सुनने, सूँघने, स्पर्शानुभव करने और स्वाद ले सकने की ऐन्द्रिक क्षमताएं नहीं होतीं, तब यह शेष संसार रहता तो यथावत् ही; किन्तु इसकी विविध रूपाकृतियों, विविध गंधों का, नाना स्वादों का, ध्वनियों तथा संगीत का क्या अनुभव होता और क्या प्रमाण होता? वस्तु सत्ता तो तब भी होती; किन्तु अनुभूतियों का वर्तमान स्वरूप तब कदापि कहीं होता ही नहीं।हम वस्तु-सत्य को जब भी देखते या उसका अनुभव करते हैं, उसमें हमारे अपने संस्कार, अपने पूर्व संचित संवेदन और उनकी क्षमता विशेष, झुकाव विशेष का भी प्रभाव घुला-मिला रहता है; क्योंकि हम जड़ नहीं, चेतन दर्शक और चेतन भोक्ता है।

कैमरे की देखने की क्रिया और चेतना प्राणी के देखने की क्रिया में भेद चेतना की उपस्थिति से ही होता है। नेत्र से भी किसी प्रकाशित वस्तु को उस वस्तु से विकीर्ण प्रकाश की किरणों के द्वारा ही देखा जाता है। वे ही किरणें पुतलियों में प्रविष्ट होती हैं और चक्षु के भीतर विद्यमान लैन्स के कारण उसका उल्टा प्रतिबिम्ब नेत्र-पटल पर बनता है; किंतु इसके आगे की क्रिया कैमरे की क्रिया से बिल्कुल भिन्न है। नेत्र-पटल पर उभरे बिम्बों का प्रतिबिंब संवेदन नाड़ियाँ मस्तिष्क तक ले जाती हैं; वहाँ संचित बोध-अनुभवों के आधार पर वस्तु के स्वरूप के अनुभव के साथ ही उसके प्रति संवेदनात्मक प्रतिक्रिया भी उत्पन्न होती है। सुन्दर प्रीतिकर दृश्यों से प्रसन्नता एवं उल्लास की, अरुचिकर दृश्यों से जुगुप्सा-अप्रसन्नता तथा कष्ट की, सामान्य अनुभव से सर्वथा भिन्न दृश्यों से विस्मय की और आत्मसत्ता द्वारा अपने लिए अनुकूल मानी गई परिस्थितियों को क्षति पहुँचा सकने का संकेत देने वाले या उनकी स्मृति उभारने वाले दृश्यों से भय की अनुभूतियाँ होती हैं। इन अनुभूतियों के समय मस्तिष्क की कोशिकाओं में या मज्जागत पदार्थ में किसी प्रकार के कंपन होते हैं-इसका यदि भौतिकी या रसायनशास्त्र की दृष्टि से अध्ययन-विश्लेषण कर भी लिया जाय, तो भी उस विश्लेषणात्मक अध्ययन की तुलना उस समय की वास्तविक मानसिक अनुभूति से पूरी तरह नहीं की जा सकती। भौतिक रासायनिक परिवर्तनों के अध्ययन से मानसिक अनुभूतियों का संकेत मात्र ही हो सकता है। अव अवलोकन वास्तविक प्रतीति के समतुल्य कभी भी नहीं हो सकता। इस प्रकार स्पष्ट है कि वस्तु की जो अनुभूति है, वह मूलतः व्यक्ति चेतना की स्वतः की क्रिया विशेष है। वस्तु सत्ता की निरपेक्ष अनुभूति चेतन व्यक्ति को नहीं हो पाती।

आज इस तथ्य को वैज्ञानिक भी स्वीकार कर रहे हैं। पदार्थ की सत्ता की खोज में आगे बढ़ते-बढ़ते वैज्ञानिक सृष्टि के मूल कणों से भी आगे बढ़कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि वे प्राथमिक कण भी विद्युत तरंगों के संघात मात्र हैं और आगे बढ़ने पर नतीजा यह निकला कि ये विद्युत तरंगें भी अज्ञात, अवर्ण्य, अविवेच्य, तरंग समूहों का अंश मात्र हैं और उनका मूल रूप जानना भौतिक उपकरणों से संभव नहीं; क्योंकि उन उपकरणों एवं उनके संचालक नियमों की हम जो भी गणना एवं विधि-व्यवस्था बनाते हैं, वह अन्ततः हमारी ही मानसिक संरचना का परिणाम है जिसे हम प्रकृति की कार्यविधि समझते हैं, वह प्रकृति की कार्यविधि समझते हैं, वह प्रकृति के क्रिया-कलापों की हमारी अपनी मानसिक संकल्पनाओं के आधार पर व्याख्या भर है। हमारा सम्पूर्ण अवलोकन, विश्लेषण और परीक्षण हमारी निज अवधारणाओं पर आधारित रहता है; उसे स्वप्नवत् ही सत्य माना जा सकता है।

वैज्ञानिक प्रक्रियाएं भी हमारे अपने अनुभव संघातों के सहारे ही निर्धारित की जाती हैं। वैज्ञानिक विश्लेषण और प्रयोग की पद्धतियाँ एवं नियम-सूत्र वैज्ञानिकों के चेतन-अचेतन मस्तिष्क के अनुभवों द्वारा ही निर्धारित होते हैं। इसीलिए वे परिवर्तित भी होते रहते हैं। आज जो वैज्ञानिक निष्पत्ति निर्भ्रान्त सिद्ध होती है, कल वही भ्रान्त साबित हो जाती है।

ज्ञान चाहे भौतिक वस्तु का हो, चाहे देह का, चाहे मन का, वह सदैव ज्ञाता की चेतना के स्वरूप एवं स्तर नर निर्भर करता है। ज्ञाता की सत्ता से बाहर ज्ञान का अस्तित्व नहीं होता। वस्तु सत्ता भले ही ज्ञाता की सत्ता से बाहर; किन्तु उसका जो ज्ञान होगा, वह ज्ञाता की सत्ता के ही भीतर उत्पन्न प्रतिक्रिया होगा।

देह के तथ्यों संबंधी जाँच वैज्ञानिक अपने ढंग से करते हैं। इस संबंध में प्रयोगशाला का सत्य जितना वास्तविक है, शरीर-सौंदर्य पर मुग्ध होने वाले व्यक्ति के लिए उसका मुग्धता-भाव भी उतना ही वास्तविक हैं। मूर्ति-पूजा से विरक्त व्यक्ति के लिए प्रतिमा वस्तुतः निष्प्राण पाषाण खण्ड मात्र है, तो किसी सच्च भक्त के लिए वही विग्रह दिव्य प्रेरणाओं और गहन अनुभूतियों का जीवन स्रोत है। इस प्रकार स्पष्ट है कि व्यक्ति चेतना के स्तर एवं स्वरूप के अनुसार ही इस दृश्य जगत (जो स्पृश्य जगत एवं श्रव्य जगत भी है) के अनुभव होते हैं। आत्मसत्ता ही अनुभूति का आधारभूत तत्व है।

इस तथ्य को समझ लेने पर श्रेष्ठ जीवन-दर्शन की,उत्कृष्ट दृष्टिकोण की महत्ता स्पष्ट हो जाती है। निकृष्ट दृष्टिकोण अपनाने पर, अंतःकरण में घटियापन भर लेने पर चारों ओर घटिया स्वरूप ही दृष्टिगत होगा। वस्तुतः यह संसार आत्मसत्ता का ही प्रतिबिम्ब है। आत्मसत्ता का स्तर ही चहुँ ओर प्रतिबिम्बित होता है। वस्तु जगत में हर व्यक्ति आत्मसत्ता को आरोपित करता रहता है। घटिया दृष्टिकोण वाला इसी आरोपण के कारण हर ओर घटियापन का ही अनुभव करता है। संत कबीर ने इसीलिए इस संसार को दर्पणों की गुफा कहा है, अर्थात् ऐसी गुफा, जिसमें चारों ओर दर्पण-ही-दर्पण हों और उसमें हर व्यक्ति को सभी तरफ अपना ही प्रतिबिम्ब दिखाई पड़े। इसी तथ्य को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा है-

दर्पण केरा गुफा में, श्वनहा पइठा धाय। देखि के प्रतिमा आपनी, भूँकि-भूँकि मरि जाय॥

अर्थात् मनुष्य उस कुत्ते के समान है, जो दर्पण-गुफा में सहसा दौड़कर घुस जाय और चतुर्दिक् अपनी ही प्रतिमाएं देख-देख कर भौंक-भौंक कर दम तोड़ दें।

यह मनुष्य की यथार्थ स्थिति है। अपनी ही आत्मसत्ता के प्रतिबिम्ब को देख-देख कर मनुष्य विचलित, विक्षुब्ध, व्यग्र होता रहता है और जीवन में क्षण भर को भी सच्ची शान्ति, संतोष, एवं तृप्ति का अनुभव नहीं कर पाता। अध्यात्म-दर्शन का प्रयोजन इस तथ्य को सामने लाकर प्रत्येक मनुष्य को अपना स्वयं का स्तर उत्कृष्ट बनाने की, अपना दृष्टिकोण उन्नत एवं श्रेष्ठ बनाने की प्रेरणा देना है। उसी के द्वारा मनुष्य को उत्कृष्टता, पवित्रता और प्रकाश के अनुभव एवं दर्शन हो सकते हैं तथा आनन्द-उल्लास की स्थायी अनुभूति हो सकती है।


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