पितर हमारी मदद भी करते हैं और सावधान भी

April 1996

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सूक्ष्म जगत में परोपकारी देवात्माओं का भी अस्तित्व हैं। परोपकारी देवात्माएं अनेक बार मनुष्यों को सत्परामर्श, मार्गदर्शन देती एवं संकटों के प्रति उन्हें सावधान भी करती हैं। उनके बताये मार्ग का अनुसरण और परामर्श का पालन कर कितने ही लोग आये दिन विपत्तियों से बचते और सुयोग का लाभ उठाते देखे जाते हैं। ऐसे घटनाक्रमों में से कुछ प्रामाणिक प्रसंग बहुचर्चित भी रहे हैं एवं कौतूहलवर्धक भी।

घटना सन् 1947 की है। ब्रैसिया (इटली) से पाँच किलोमीटर दक्षिण में मौण्टीकियारी नगर में पैरिनागिली नामक एक परिचारिका रहती थी। एक दिन जब वह घर से बाहर कुछ कार्य कर रही थी, जो कुछ विचित्र प्रकार की चिड़ियों का एक झुण्ड कुछ विचित्र प्रकार के कलरव करते हुए ऊपर से गुजरा। उत्सुकतावश उसकी दृष्टि आकाश की ओर उठ गई। वह उन आकर्षक पक्षियों को देखकर आह्लादित हुई; किन्तु तभी उसकी नजर गगन में एक ऐसे दृश्य पर पड़ी, जिससे वह भयभीत भी हुई और चकित भी। उसने देखा कि ऊपर शून्य में एक महिला तैर रही है। उसके सीने में तीन तलवारें चुभी हुई थीं। वह सब शरीर के आर-पार थीं।; किन्तु रक्त की एक भी बूँद उनसे नीचे नहीं गिर रही थी। महिला के मुखमण्डल पर इसके बावजूद दिव्य शान्ति विराजमान थी। अनेक लोग इस अद्भुत दृश्य को देख कर इकट्ठे हो गये, किन्तु दूसरे ही क्षण उस दृश्य की वीभत्सता से भयभीत होकर भाग खड़े हुए। पैरिना कुछ साहसी प्रकृति की थी। वह इससे घबराई नहीं। उसने उस दिव्य नारी मूर्ति से उसके वक्षस्थल में चुभे आयुध का रहस्य जानना चाहा। प्रत्युत्तर में उस दैवी सत्ता ने बड़े ही मार्मिक शब्दों में अन्तराल को स्पर्श करने वाला एक संक्षिप्त-सा उद्बोधन दिया, जिसका भाव इतना ही स्था कि आज मनुष्य तप-त्यागो भूल चुका है। सेवा-सहायता की भावना उसमें रही नहीं। इससे सारा संसार क्लेशपूर्ण बना हुआ है। मैं इसी की संदेशवाहिका बन कर आयी हूँ। सेवा में, सहायता में, त्याग में शरीर को जितना कष्ट मिलता है, उससे कई गुना अधिक सुख और संतोष मन को प्राप्त होता है। मुझे देखो, प्रत्यक्षतः मैं शस्त्रोविधी हुई हूँ। मेरा शरीर निश्चित रूप से इससे पीड़ा अनुभव कर रहा है; किन्तु मन और मुख में इसका एक कण भी अभिव्यक्ति नहीं पा सका है। मैं चाहती हूँ कि परमार्थ-परायणता हर एक के जीवन का अविच्छिन्न अंग बने। यही संदेश मेरे इस प्रकटीकरण के पीछे प्रच्छन्न रूप से निहित है। अब जाती हूँ। इतना कहकर वह दिव्यात्मा तिरोहित हो गई।

इसके ठीक एक माह पश्चात 13 जुलाई 1947 को वह देवात्मा एक बार पुनः पैरिना के समक्ष प्रकट हुई। इस बार तलवार के स्थान पर उसके पास श्वेत, लाल पीले रंग के तीन पुष्प थे। इनका रहस्य समझाते हुए उस आकृति ने कहा- यह तीन पुष्प तीन प्रकार के संदेश देते हैं। सफेद इस बात का परिचायक है कि हमें त्यागवृत्ति को जीवन में अभिन्न रूप से धारण करना चाहिए। रक्त-वर्ण परिश्रमशीलता की निशानी है। हम परिश्रमी बनें और पसीने की कमाई पर निर्वाह करें-इसके पीछे यही भाव है। पीत वर्ण उदार आत्मीयता का उपदेश देता है। दैनिक जीवन में यदि इसका समावेश न हो तो घर और समाज वैसा ही कलहपूर्ण बन जाता है, जैसा इन दिनों सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहा है।

तत्पश्चात् कुछ क्षण रुक कर उसने पुनः कहना प्रारम्भ किया-यों प्रत्यक्षतः लोग मुझे ‘ईसा’ की माँ मदर मेरी के रूप में जानते हैं, पर मैं समस्त पृथ्वीवासी को ईसा की ही तरह स्नेह करती हूँ, इसलिए मेरी उनसे एक प्रकार का पुत्रवत् सम्बन्ध है। पुत्र जब पीड़ा में हो, तो माँ की ममता उभरे बिना चैन कैसे ले सकती है? यह कसक ही मेरे अन्तःकरण को बराबर कचोटती और कुरेदती रहती है। इसी कारण मुझे पुनः-पुनः आविर्भूत होना पड़ता है, ताकि उनकी पीड़ा कुछ कम कर सकूँ और उनमें कतिपय धर्म भावना का संचार कर सकूँ। इतना कह कर वह आत्मा अन्तर्धान हो गई। इसी की पुण्य स्मृति में हर वर्ष इस दिन को (13 जुलाई) उस स्थान पर ईसाई समाज में ‘रोजा मिस्टिका’ के रूप में मनाया जाता है।

स्पेन में आइबोरा नामक एक स्थान है। यहाँ पर स्मृति-अवशेष के रूप में रखा गया एक रक्त रंजित वस्त्र आज भी लोगों की श्रद्धा का प्रतीक बना हुआ है। हर वर्ष 16 अगस्त को यहाँ सामूहिक प्रार्थना की जाती है। धर्मानुष्ठान का यह क्रम सन् 1010 से अनवरत रूप से जारी है। प्रचलित मान्यता के अनुसार उक्त वस्त्र किसी संत शहीद का है, जिसने अपनी धर्म रक्षा हेतु जीवन होम देना अधिक उचित समझा। बताते हैं कि सामूहिक उपासना के दिन हर वर्ष उस संत की आत्मा वहाँ उपस्थित होती है और लोगों की प्रार्थना स्वीकारती हुई उन्हें मौन आशीर्वाद देती है। आत्मा की उपस्थिति का प्रमाण लोगों को तब प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगा है, जब काँच के बक्से में बन्द उस पवित्र परिधान में अचानक हलचल आरंभ हो जाती है और तब तक बनी रहती है, जब तक प्रार्थना का क्रम बन्द नहीं हो जाता। अनेक श्रद्धालुओं को इस अवसर पर तरह-तरह की अनुभूतियाँ भी होती हैं। इन्हीं सब कारणों से तत्कालीन पोप चतुर्थ ने इसे एक सामूहिक साधना केन्द्र के रूप में परिवर्तित कर दिया। तब से लेकर अब तक यह केन्द्र सर्वसाधारण का श्रद्धा-बिन्दु बना हुआ है।

इसी प्रकार का एक सामूहिक उपासना स्थल मिलान के दक्षिण में स्थित सैन डैमियानों नामक स्थान में अवस्थित है। प्रत्येक गुरुवार को वहाँ ‘मामो रोजा’ की सामूहिक उपासना की जाती है। मामा रोजा सूर्य की अधिष्ठात्री है। लोगों का विश्वास है कि उस दिन देवी सूक्ष्म रूप से उपस्थित हो सभी को आशीर्वाद देती हैं। इस आशीर्वाद से बीमार स्वस्थ होते देखे गये हैं और स्वस्थ अनेक प्रकार की शुभ प्रेरणाओं से लाभ उठाते सुने गये हैं। बताया जाता है कि 17 नवम्बर, 1870 के दिन वहाँ एक अद्भुत चमत्कार हुआ था जिसमें मामा रोजा की उपस्थिति का प्रत्यक्ष अनुभव सभी ने प्राप्त किया। इस घटना का विस्तृत उल्लेख ‘औब्जरवेटरे रोमानो’ नामक ग्रन्थ में मौजूद हैं।

जिन पुण्यात्माओं ने अपने धर्म-संस्कृति की रक्षा के निमित्त स्वयं का बलिदान कर दिया उनकी आत्माएं आज सभी लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी हुई हैं। 23 फरवरी 1239 को कुछ मुस्लिम सैनिकों ने स्पेन की कोडोल पहाड़ी पर निवास करने वाले पुरोहितों की हत्या कर दी और उन्हें कपड़ों में बाँध कर समीपवर्ती नदी में बहा दिया। कहा जाता है कि उक्त पहाड़ी पर यदि कोई दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति अब भी पहुँचता है, तो उन्हें पुरोहितों के अभिशाप का भाजन बनना पड़ता है। वे देखते-देखते अपंग अपाहिजों जैसी स्थिति में आ जाते हैं। कई एक बेहोश भी हो जाते हैं। प्रायश्चित विधान अपनाने, क्षमा माँग लेने एवं दुरित त्यागने का व्रत लेने के उपरान्त उनकी अपंगता जाती रहती है। डैरोका धर्मस्थल पर प्रतिष्ठित इन पुरोहितों की रक्त वेदियाँ आज भी पूरे स्पेन वासियों के लिए श्रद्धा का विषय बनी हुई हैं।

अपर ऐल्सेक (फ्राँस) में ट्रोइस एपिस का पन्द्रहवीं सदी का इतिहास बड़ा रक्त रंजित रहा है। वहाँ आये दिन मार-काट, लूट-पाट मची ही रहती थी। इसमें निर्बल-निर्दोष और निरपराध ही सबसे अधिक कष्ट पाते और प्रताड़ित किये जाते थे। एक बार इसका शिकार वहाँ का एक धार्मिक किसान हो गया। निर्मम प्रकृति के कुछ लोगों ने उसकी अकारण हत्या कर दी। इस हत्या के एक सप्ताह बाद उस स्थल से होकर हैटरस्कोर नाम एक धर्मभीरु व्यक्ति गुजर रहा था। उसने देखा कि उसके सामने एक शुभ्रवसना नारी मूर्ति खड़ी है। उसका शरीर जमीन से कुछ ऊपर अधर में लटक रहा था। उसके एक हाथ में श्वेत हिम वर्तिका तथा दूसरे में अनाज की कुछ बालियाँ थीं। उस देवी ने डैटर से कहा कि यदि यहाँ अपराधों की गति ऐसी ही बनी रही, तो लोगों को असह्य कष्ट भोगना पड़ेगा, प्रकृति प्रकोपों का शिकार बनना पड़ेगा। अब भी समय है, उन्हें सावधान और सचेत कर देना, अन्यथा दंड अवश्यम्भावी है। इसी के कुछ समय उपराँत वहाँ भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा एवं तरह-तरह की बीमारियाँ फैलीं, जिसमें आधे से अधिक लोगे काल-कवलित हो गए। इतिहासकारों का कहना है कि ट्रौइस एपिस में उस प्रकार का अकाल और महामारी वहाँ के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना है। दोबारा आज तक वहाँ ऐसी विपदा पुनः नहीं उपस्थित हुई। इस घटना के बाद से एल्सेक की प्रतिष्ठा एक धर्मस्थल के रूप में प्रसिद्ध हो गई। तभी से प्रत्येक वर्ष उक्त अवसर पर वहाँ धार्मिक आयोजन होते आ रहे है।

फ्राँस में बैंसंकन नाम एक नगर है। 3 दिसम्बर 1712 को वहाँ के मैगाफोलिस नाम प्रार्थनालय में एक घटना घटी। उस पुजारी के अतिरिक्त भी बड़ी संख्या में लोग उपस्थित थे। उपस्थित लोगों ने देखा कि एक दैत्याकार आकृति हवा में तैर रही है। थोड़ी देर इधर-उधर तैरने के पश्चात् जनसमुदाय ने सुना कि वह छायाकृति उन्हें सी असन्न संकट से सावधान कर रही है। इसके उपरान्त वह देवदूत विलुप्त हो गया। इतिहास साक्षी है- इसके पश्चात्, वहाँ ऐसा भूकम्प और ऐसी वर्षा शुरू हुई, जिसने वहाँ का दृश्य मरघट जैसा बना दिया। इस प्राकृतिक आपदा में वह सम्पूर्ण नगर नष्ट हो गया, केवल इक्के-दुक्के मकान की सुरक्षित बचे रहे। इतिहास वेत्ताओं का कहना है कि इस विपदा से पूर्व वहाँ बड़ी अराजकता छायी हुई थी। किसके साथ कब क्या घटित हो जाय, इसका अनुमान, आँकलन लगा पाना कठिन था। मूर्धन्य इतिहासविद् जान ट्रैवर ने इस घटना के संबंध में अपनी निजी टिप्पणी जोड़ते हुए लिखा है कि कदाचित् यह दुर्दमनीय उच्छृंखलता के प्रति ईश्वरीय प्रतिकार हो।

ये कतिपय उदाहरण दैवी सत्ता के अस्तित्व के प्रमाण प्रस्तुत करते और यह साबित करते हैं कि वह परम सत्ता इनके माध्यम से जन-जन को उनके आचरण के प्रति सावधान करती है। यदि समय रहते चिन्तन और आचरण को नहीं बदला गया, तो ईश्वर की न्याय-व्यवस्था से बच पाना मुश्किल है।


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