अपनों से अपनी बात-3 : अनुयाज-पुनर्गठन - स्वाध्याय-मनन-चिन्तन आज की सर्वोपरि आवश्यकता

April 1996

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टूटता विश्व आज की सर्वोपरि समस्या

इसे ईश्वर की लीला कह लें अथवा काल चक्र का निर्धारण कि यह विश्व सत् व तम् के मध्य कभी न समाप्त हो वाले संग्राम का युद्ध क्षेत्र बना ही रहता है। कभी सत् पर होने वाले प्रबल तामसी आक्रमण उसे पंगु सा बना देता है, कभी तम का शमन कर सत् विश्व में व्याप्त हो जाता है। पुराणों में वर्णित देवासुर संग्राम के कथानक इसी तथ्य के रोचक रूप हैं।

कालखण्ड के जिस खण्ड में हम-आप जी रहे हैं वह सभी ऐसी ही एक विषम स्थिति है। इस समय तमस् अपनी पूरी उफान पर है। आकाश तक ऊँची उठ रही उसकी ज्वालाएं सत् को सम्पूर्णतः भस्मीभूत कर देने का प्रयास कर रही है। मानव मन झुलस कर काला हो रहा है। यह सब तब हो रहा है जब भौतिक उपलब्धियाँ सभी अपने सर्वोच्च स्तर पर है। जितनी सुख-सुविधाएं आज सहज ही उपलब्ध हैं उतनी पहले कभी किसी काल में नहीं रहीं किन्तु इनके परिणाम उलटे ही दिखाई पड़ रहे है। व्यक्ति की छवि में से तृप्ति तुष्टि व सहज मुसकान लुप्त हो गई है। परिवार में से सौहार्द्र भाव कपूर की भाँति उड़ गया है। समाज में समान उद्देश्य व आपसी सहयोग कभी, उसका आभास सभी अब नहीं होता। राष्ट्रों का मैत्री भाव दिखावा बनकर रह गया है। स्वार्थ-शोषण ही परम इष्ट बन सा गया है। दसों दिशाओं में चीत्कार-हाहाकार की गूँज है। कहीं चैन नहीं है। सुविधाओं में सिर तक डूबा हुआ विश्व आज सिर से पैर तक तनावग्रस्त है। मनुष्य टूट रहा है, परिवार टूट रहा है, समाज टूट रहा है, पूरा विश्व टूट कर बिखर रहा है। कालचक्र का तमस खण्ड अपने चरम उत्कर्ष पर है।

विश्वव्यापी प्रयास निष्प्रभावी सिद्ध हुए-

किन्तु सत् बिल्कुल निष्प्राण हो गया हो, ऐसा भी नहीं है, ऐसा कभी होता भी नहीं है। श्रेष्ठ पुरुषों तथा संस्कारवान परिवारों में सेवा भावी कतिपय स्वैच्छिक संगठनों तथा विश्व संस्था राष्ट्र संघ में धीमी-धीमी साँसें लेता हुआ वह अभी भी दृष्टिगोचर होता है। मानव हित का चिन्तन करने वाले इन सभी के प्रयास निश्चय ही सहनीय है।, किन्तु विशाल मानव समुदाय को प्रभावित करने में, मानव मन को मर्यादा की सीमा में रखने में, तमस् से मोड़कर सत् की दिशा में प्रेरित करने में उनकी सार्थकता अभी तक सिद्ध नहीं हो पाई है। इस असफलता का एक तर्कसंगत कारण यह समझ पड़ता है कि वे दुष्कृत्यों को रोकने में ही अपनी पूरी शक्ति व्यय कर रहे हैं, दुष्कृत्य जहाँ जन्म लेते हैं और पनपते हैं उस भूमि को सुधारने-संवारने का प्रयत्न नहीं रहे। सूख रहे वृक्ष के पत्तों पर तो दवा का छिड़काव करते हैं, किन्तु जड़ में समाए रोग को दूर करे की चिन्ता नहीं करते। फलस्वरूप इन बलवान प्रयासों को भी असफलता का मुँह देखना पड़ रहा है। व्यक्तिवाद, अलगाववाद, आतंकवाद, विकसित राष्ट्रों की विकासशील राष्ट्रों पर दादागिरी जैसे भीषण विस्फोटक बढ़ते ही जा रहे हैं। मानवी सभ्यता व संस्कृति को इन विस्फोटकों के ढेर पर बिठाकर अपनी ज्वालाओं को लपलपाता हुआ तमस उसके चारों और उन्मत्त नृत्य कर रहा है, और बेचारे सत्प्रयास असहाय से होकर यह सब होता हुआ देख रहे है।

युग निर्माण मिशन की मान्यता-

विश्व को इस विस्फोटक स्थिति से सकुशल उबार लेने का कारगर उपाय यही हो सकता है कि असफल हो गए पिछले प्रयासों में जहाँ चूक हुई है वहीं पर भूल का सुधार कर पुनः प्रयास किया जाय। पत्तों की नहीं, जड़ों की सम्भाल की जाय।

मनोविज्ञान के मान्य नियमों पर आधारित व्यवहार विज्ञान से भी इस उपाय की पुष्टि होती हैं। व्यवहार विज्ञान के अनुसार मनुष्य का व्यवहार शरीर के अवयवों द्वारा अभिव्यक्ति तो होता है, परन्तु उत्पन्न वह विचार क्षेत्र व भाव क्षेत्र में होता है। पत्ते अपने आप नहीं सूखने लगते, जड़ें रस एकत्रित नहीं कर पाती अथवा जड़ों में दीमक लग जाती है इसलिए सूखते हैं। गन्दे आचरण व्यवहार भी अपने आप नहीं होने लगते, मन मैला हो तभी होते हैं। इसलिए रोग का नहीं, रोग की जड़ का इलाज करना ही सही इलाज है। सफलता का इतना ही रहस्य है।

हमारा विचार क्रान्ति अभियान इसी आधारभूत नियम का अनुसरण कर सफलता के नवीन कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। इस अभियान की मान्यता है कि व्यक्ति से लेर विश्व तक में फैला हुआ तनाव, टूटन व बिखराव अभूतपूर्व वैज्ञानिक प्रगति के कारण नहीं वरन् विज्ञान को अध्यात्म के, विवेक के अनुशासन से मुक्त रखने के कारण आया है। अनगिनत सुख-सुविधाओं के कारण नहीं वरन् असीमित अनियन्त्रित तृष्णा के कारण आया है। मनः क्षेत्र तथा भाव क्षेत्र में व्यापक प्रदूषण के कारण आया है।अतः वर्तमान विस्फोटक स्थिति से उबरने का एक मात्र कारगर उपाय है, ‘मानवी अन्तः करण का विश्वव्यापी शुद्धिकरण’। विचार क्रान्ति अभियान वस्तुतः व विशुद्धतः वैचारिक तथा भावनात्मक शुद्धिकरण का अभियान ही है।

वैचारिक क्रान्ति ही एक मात्र प्रभावी उपाय

इस मान्यता को मूर्त रूप देते हुए मिशन के संस्थापक-मार्गदर्शक ने शून्य साधन किन्तु अखंड विश्वास व अदम्य उत्साह के साथ विचार क्रान्ति अभियान को सन् 1926 में बीज रूप में प्रारम्भ कर विशाल वट वृक्ष की वर्तमान स्थिति तक पहुँचा दिया। एक ही दिव्य भाव आजीवन उन पर छाया रहा, ‘व्यक्ति के भीतर सोए देवता को जगाएं। परिवार में स्वर्ग जैसा वातावरण बनाए। विश्व का पतन पीड़ा से मुक्त कर उत्कर्ष उल्लास से गूँजाए’।

परमपूज्य गुरुदेव के चरण चिन्हों का अनुसरण करते यह मिशन इसी दिव्य भाव को छाती से लगाए इन लक्ष्यों की ओर निरन्तर गतिमान है। विश्व की छः सौ करोड़ जनसंख्या में सं छः करोड़ तक तो वह पहुँच चुका है अर्थात् विश्व के प्रत्येक सास् व्यक्तियों में एक इस मिशन से तथा उसके उद्देश्य व कार्य पद्धति से परिचित व प्रभावित है। छः करोड़ व्यक्तियों के मन को तमस की ओर पीठ करने व सत् की दिशा में मुड़ने की प्रेरणा पहुँचाने में सफल हो पाना अपने आप में एक उपलब्धि है। निर्विवाद प्रमाण भी है कि तनाव, टूटन व बिखराव को रोकने के विश्वव्यापी प्रयासों की तुलना में इस मिशन की नीति-रीति कहीं अधिक प्रामाणिक, प्रभावी तथा व्यापक रही है।

कालचक्र के तमस खण्ड को चरम उत्कर्ष पर पहुँचा देख कर स्पष्ट अनुभव होता है कि अब वह समय आ गया है जब विश्व मानव के अन्तःकरण में गहराई तक फैली विकृतियों के साथ एक जुट होकर निर्णयात्मक युद्ध लड़ लिया जाय। शून्य साधनों से प्रारम्भ हुए विचार क्रान्ति अभियान ने दिव्य सत्ताओं के संरक्षण-मार्गदर्शन तथा परिजनों की सोत्साह सहभागिता से छः करोड़ व्यक्ति एक माला में पिरो दिये। अब तो लाखों लाख सृजन सैनिक साधन के रूप में उपलब्ध हैं। इनकी सहभागिता तथा अपराजेय निष्ठा के बल पर सम्पूर्ण विश्व में वैचारिक एवं भावनात्मक शुद्धिकरण का महाअभियान प्रसारित करना कठिन कार्य नहीं रहा है। तराजू के पलड़े विपरीत दिशा में झुकेंगे, परिजन ही इन्हें झुकाएंगे, इस परम विश्वास के साथ एक निर्णयात्मक युद्ध का शंखनाद मिशन के प्रथम पूर्णाहुति से किया है।

स्वाध्याय-मनन-चिन्तन की सर्वोत्कृष्टता

विचार क्रान्ति अभियान के इस विश्वव्यापी प्रसारण के लिए उपकरणों-शस्त्रों का पैना होना भी आवश्यक है। झोला पुस्तकालय, स्वाध्याय मण्डल, विचार गोष्ठियाँ, धार्मिक कर्मकाण्डों के भावात्मक आधारों का निरूपण तथा ऐसी अन्य प्रक्रियाएं इस अभियान के प्रमुख उपकरण माध्यम रहे हैं। शक्तिपीठों, प्रजा मण्डलों, महिला मण्डलों द्वारा जो व्यापक रूप से व्यवहार में लाए जा रहे हैं, अत्यन्त प्रभावी भी सिद्ध हुए हैं। अब इन्हें अधिकतम प्रखर व पैना बनाना आवश्यक है, युद्ध की दृष्टि से अनिवार्य भी। इस आवश्यकता की पूर्ति की सर्वाधिक प्रभावी विधि है-स्वाध्याय-मनन-चिन्तन प्रक्रिया। समय की कसौटी पर यह त्रिपदा प्रक्रिया सदा ही खरी उतरी है। यह सम्पूर्ण मन्थन भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचता है कि इस निर्णयात्मक वैचारिक युद्ध को लड़ने व विजयी होने के लिए स्वाध्याय-मनन-चिन्तन आज की सर्वोपरि आवश्यकता है।

अतः इस प्रभावी प्रक्रिया को और भी स्पष्ट एवं व्यवहारिक रूप में पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है। देव संस्कृति दिग्विजय के अंतर्गत छह वर्षीय अनुयाज में स्वाध्याय-मनन-चिन्तन सर्वप्रथम क्रियापरक कार्यक्रम है। प्राणवान परिजनों से शुभाकाँक्षियों से तथा आत्मोन्नति के इच्छुक पाठकों से अपेक्षा और आग्रह भी कि वे इस स्वाध्याय त्रिवेणी को गहराई से जानें-समझे और मानव में प्रसुप्त पड़ी वैचारिक व भावात्मक चेतना को जाग्रत करने का नैष्ठिक प्रयास करें। इसका क्रियापक्ष, अगले अंक के चार लेखों में परिजन पढ़ सकेंगे। विश्वास रखें इक्कीसवीं सदी का उज्ज्वल भविष्य दिवा स्वप्न नहीं है, महाकाल द्वारा निर्धारित भवितव्यता है। इसे चरितार्थ करने के लिए अब आवश्यकता विश्वास और उमंग भरे मन वालों का है।


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