इस संधिकाल की विशिष्ट शक्ति संचार साधना

April 1996

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सृष्टि में जो कुछ भी प्रत्यक्ष या परोक्ष हलचल है, समग्र रूप से वह शक्ति द्वारा संचालित है। शक्ति ही सब कुछ है। शक्ति के बिना शिव भी शव है, फिर मनुष्य का तो कहना ही क्या? शक्ति के बिना हम न सोच सकते हैं, न बोल सकते हैं, न हिल-डुल सकते हैं, न देख सकते हैं, न सोच समझ सकते हैं। शक्ति के बिना न तो हम खड़े हो सकते हैं और न चल फिर सकते हैं वृक्ष-वनस्पति, अन्न, फल, शाक-भाजी, दाल, शक्कर आदि सब शक्ति से ही उत्पन्न होते हैं। इन्द्रिय और प्राण भी शक्ति के ही परिणाम है। गुरुत्वाकर्षण शक्ति, विद्युत शक्ति, चुम्बकत्व, तापशक्ति, आकर्षण शक्ति, तथा चिन्तन शक्ति आदि सभी शक्ति के व्यक्त रूप हैं। साधना की सफलता भी साधक की प्राणशक्ति पर ही निर्भर करती है।

‘शक्ति’ है क्या? इस प्रश्न की गहराई में उतरें तो उत्तर एक ही मिलेगा कि ब्रह्म की सक्रिय अवस्था का नाम ही शक्ति है। जिस प्रकार उष्णता अग्नि से अभिन्न है, उसी प्रकार शक्ति भी ब्रह्म से अभिन्न है। माया, महामाया, मूल प्रकृति, अविद्या, विद्या, महेश्वरी, आद्यशक्ति, सावित्री, गायत्री आदि माया, पराशक्ति, परमेश्वरी इत्यादि शक्ति के ही पर्यायवाची हैं। नवदुर्गा, काली, अष्टलक्ष्मी, नवशक्ति देवी आदि एक ‘पराशक्ति’ की ही अभिव्यक्तियाँ है। महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती शक्ति के तीन व्यक्त स्वरूप हैं।

शक्ति की दो अवस्थाएं होती हैं-शुद्ध साम्यावस्था और वैषम्यावस्था। पहली अवस्था वह है जिसमें तीनों गुण-सत्व, रज और तुम साम्यावस्था में स्थित रहते हैं। यह अवस्था प्रलयकाल में होती है। उस समय असंख्य जीवन अपने संस्कारों तथा अधिष्ठाता के साथ अव्यक्त अवस्था में रहते हैं। अधिष्ठाता का अर्थ है कर्म की अदृश्य शक्ति अथवा फलदायिनी शक्ति, जो कर्म के भीतर छिपी रहती हैं।

प्रलय की अवधि समाप्त होने पर साम्यावस्थित शक्ति में स्फुरणा या स्पन्दन होते हैं और वह इसलिए कि तिरोहित जीवों को अपने−अपने कर्मों का फल भोगने की इच्छा होती है। यही वैषम्यावस्था है। अब ब्रह्म सृष्टि को उत्पन्न करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। उनके संकल्प मात्र से सृष्टि उत्पन्न हो जाती है। साम्यावस्था में रजोगुण शुद्ध और शान्त रहता है, विकास या सृष्टि निर्माण के समय वह अशुद्ध एवं क्षुब्ध हो जाता है। सृष्टि संरचना के समय जब आदि शक्ति के अन्दर क्षोभ होता है तो तीनों गुण-सत् रज, तक व्यक्त हो जाते हैं। सत्वगुण प्रधान चैतन्य का नाम विष्णु है जो ब्रह्म की संरक्षिका शक्ति है। रजोगुण प्रधान चैतन्य शिव है, जो ब्रह्म की पुनर्निर्माण करने वाली अथवा संहारिका शक्ति है।

उपरोक्त पंक्तियों में शक्ति के स्वरूप को समझाया गाया है। इस स्वरूप को समझ कर जो व्यक्ति शक्ति की साधना करता है उसे ईश्वरीय अनुदानों की प्राप्ति होती है। वस्तुतः शक्ति का ही खेल है यह सारा। साधना और अभ्यास पर्यायवाची शब्द हैं। साधना का अर्थ है अपने आपको साधना, अपने गुण, कर्म स्वभाव को चिन्तन, चरित्र, व्यवहार को परिष्कृत कर उच्चस्तरीय बनाना। सिद्धि का अर्थ है-शक्ति अथवा पूर्णता की प्राप्ति। साधना का क्रम तब तक चलते रहना चाहिए जब तक साधक सिद्ध न हो जाय। साधक की योग्यता, स्वभाव, रुचि, अभीप्सा, ज्ञान तथा विकास के भेद से साधना में भेद होता है। अधिकारी साधक की प्रकृति के अनुसार ही साधना में अन्तर पड़ता है। इस प्रकार साधना के चार भेद बताये गये हैं। सर्वोपरि भाव-ब्रह्मभाव है जिसमें साधक भावना करता है कि सब कुछ ब्रह्म ही है और जीवात्मा परमात्मा से अभिन्न है। इसे अद्वैत भाव कहते हैं। इसके उपरान्त ऊँची श्रेणी के योगियों और भक्तों का ध्यान भाव आता है, जिसमें भक्त अथवा योगी अपने सूक्ष्म एवं कारण शरीर के विभिन्न चक्रों, पंचकोश आदि में अपने इष्टदेव का ध्यान करता है और प्रसुप्त पड़ी कुण्डलिनी महाशक्ति को जाग्रत करता है। इससे नीचे का भाव वह है जिसमें केवल जप, प्रार्थना और स्तुति आदि से सम्बन्ध रहता है। चौथी अथवा सबसे निम्न श्रेणी का भाव वह है जिसमें केवल बाह्य पूजा से ही सम्बन्ध है।

उच्च श्रेणी का श्रेष्ठ साधक अपने प्रत्येक मनुष्योचित कर्म को यज्ञ और पूजा का एक पवित्र कार्य बना देता है। खाते-पीते, उठते, बैठते अथवा अन्य किसी भी शारीरिक मानसिक क्रिया को करते समय वह कहता नहीं, वरन् यह मानता और दृढ़ विश्वास करता है कि उसके द्वारा और उसके अन्दर ‘शक्ति’ ही सब कुछ करा रही है। वह अपने जीवन और उसकी प्रत्येक क्रिया को इस रूप में देखता है मानो प्रकृति में जो ईश्वर की इष्ट की क्रिया हो रही है, उसी का यह भी एक अंग है। शक्ति ही मनुष्य के रूप में व्यक्ति होकर यहाँ अपना कार्य कर रही है। इस प्रकार की भावना से प्रेरित होकर कर्म करने से अकर्म की ओर दुष्प्रवृत्तियों की ओर प्रवृत्ति नहीं होती ओर यदि पहले से कोई बुरी आदत या बुरा अभ्यास होता है तो प्रयासपूर्वक धीरे-धीरे दूर हो जाता है। जो इस प्रकार शक्ति साधना करते हुए इन्द्रियों को वश में करते हैं, उनपर आद्यशक्ति गायत्री की अवश्य कृपा होती है।

शक्ति का स्रोत गायत्री को माना गया है। गायत्री महाशक्ति की उच्चस्तरीय उपासना साधना करने वाले साधकों के लिए एक विशिष्ट आशीर्वाद का प्रेरणा प्रवाह हम लोगों को उपलब्ध है जिसे ‘शक्ति अनुदान की संचार साधना’ कहते हैं। इस साधना उपक्रम में निखिल आकाश में संव्याप्त गायत्री महाशक्ति के महाप्राण को भावना तथा श्वास क्रिया के सम्मिश्रित प्रयोग द्वारा खींचना और अपने अन्दर धारण करना होता है। यह प्रक्रिया जितनी सरल है, उतनी ही महत्वपूर्ण भी। इस विधा का गहन अवगाहन करके मनुष्य देवतुल्य सामर्थ्यवान बन सकता है। शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रगति में यह साधना बहुत ही सहायक सिद्ध हो सकती है। साधारण गृहस्थों से लेकर कार्यव्यस्त व्यक्ति तक इस साधना से असाधारण लाभ उठा सकते हैं। साधकों के लिए तो अपनी प्राण चेतना को विकसित करने में इससे और भी अधिक सुविधा होती है और लक्ष्य की प्राप्ति अधिक सफल एवं सुनिश्चित बन जाती है। ‘शक्ति साधना की संचार प्रक्रिया द्वारा प्राण चेतना से स्वं को अभिपूरित करने के लिए निम्न प्रक्रिया अपनानी पड़ती है-

1- ‘प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत्त होकर पूर्वाभिमुख पालथी मारकर सुखासन में बैठिये। दोनों हाथ घुटनों पर रखिये, मेरुदण्ड-कमर सीधी रखिये। नेत्र बन्द कर लीजिए। यह ध्यान मुद्रा कहलाती है ध्यान मुद्रा में अवस्थित होने के पश्चात् अब ध्यान करना चाहिए कि निखिल आकाश तेज और शक्ति से ओतप्रोत सविता की महाशक्ति गायत्री का सावित्री का महाप्राण व्याप्त हो रहा है। सूर्य देवता के पापनाशक तीव्र प्रकाश में चमकते हुए बादलों जैसी शकल के प्राणशक्ति का उफान हमारे चारों ओर उमड़ता चला आ रहा है और उस प्राण उफान के बीच हम निश्चिन्त, निश्छल, शांतचित्त एवं प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए।’

2- ‘उक्त भावना से अपने को ओतप्रोत करने के पश्चात् नासिका के दोनों छिद्रों से धीरे-धीरे साँस खींचना आरम्भ कीजिए और सीवना कीजिए कि प्राणतत्व के उफनते हुए बादलों को हम अपनी साँस द्वारा भीतर खींच रहे हैं। जिस प्रकार पक्षी अपने घोंसले में, साँप अपने बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार वह अपने चारों ओर बिखरा हुआ प्राण-प्रवाह हमारी नासिका द्वारा श्वास के साथ शरीर के भीतर प्रवेश करता है और मस्तिष्क,, छाती, हृदय, पेट, आंतों से लेकर समस्त अंग-अवयवों में प्रवेश कर जाता है।’

3-’जब श्वास पूरी खींच ली जाय तो उसे कुछ देर तक भीतर रोककर रखना चाहिए और भावना की जानी चाहिए कि जो प्राण तत्व खींचा गया है उसे हमारे भीतरी अंग-प्रत्यंग अवशोषित कर रहे हैं। जिस प्रकार मिट्टी पर पानी डाला जाय तो वह उसे सोख जाती है, उसी प्रकार अपने अंग-प्रत्यंग सूखी मिट्टी के समान हैं और जल रूपी इस खींचे हुए उस प्राण को सोख कर अपने अन्दर सदा के लिए अवधारण कर रहे है। साथ ही प्राण तत्व में सम्मिश्रित चैतन्य, शक्ति, तेज, बल, उत्साह, साहस, धैर्य, पराक्रम सरीखे अनेक तत्व हमारे अंग-प्रत्यंग में स्थिर हो रहे हैं।’

4- ‘जितनी देर श्वास आसानी से रोकी जा सके उतनी देर तक रोके रखना चाहिए। तदुपरान्त उसे धीरे-धीरे बाहर निकाल देना चाहिए, साथ ही साथ गहरी भावना करनी चाहिए कि प्राणशक्ति का सारतत्व हमारे अंग-प्रत्यंगों द्वारा खींच लिए जाने के पश्चात् अब वैसा ही मलिन वायु बाहर निकल रहा है जैसा कि मक्खन निकाल लेने के पश्चात् निस्सार दूध हटा दिया जाता है। शरीर और मन में जो विकार थे वे सब इस निकलती हुई श्वास के साथ घुल गये हैं। और काले धुंए के समान अनेक दूषणों, बुराइयों, कुसंस्कारों को लेकर बाहर निकल रहे है।’

5- ‘पूरी साँस बाहर निकल जाने के पश्चात् कुछ देर तक यथा शक्ति साँस को रोक रखना चाहिए अर्थात् बिना साँस के रहना चाहिए और भावना करनी चाहिए कि अन्दर के जो दोष-दुर्गुण कुसंस्कार एवं कलुष बाहर निकल गये थे,उनको वापस न लौटने देने की दृष्टि से दरवाजे बन्द कर दिये गये हैं और वे बहिष्कृत होकर हमसे बहुत दूर जा रहे हैं।

इस प्रकार पाँच अंगों में विभाजित शक्ति साधना की संचार प्रक्रिया को नित्य प्रातः सूर्योदय से डेढ़ घण्टा पूर्व से लेकर आधे घण्टे बाद तक के समय में करना चाहिए। आरम्भ पाँच-प्राणायामों से किया जाय अर्थात् उपरोक्त क्रिया पाँच बार दोहराई जाय। इसके बाद हर महीने एक प्राणायाम बढ़ाया जा सकता है। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे बढ़ाते हुए एक वर्ष में आधा घण्टा तक पहुँचा देनी चाहिए।

उपरोक्त विधान के अनुसार जो भी व्यक्ति साधना करेंगे, वे आशातीत सत्परिणाम प्राप्त करेंगे। निरुत्साही और निराश व्यक्ति भी, जिनकी नस-नाड़ियाँ शिथिल हो गयी हैं, आँखें जरा सा काम करने पर थक जाती है, थोड़ी सी कठिनाई में जिनका दिल धड़कने या बैठने लगता है, चिन्ता और आशंका से जिनका चित्त आतंकित रहता है, जो स्वं को आत्म बल से रहित मानते हों, वे भी इस शक्ति साधना से अपने अन्दर जादू चमत्कार जैसा परिवर्तन अनुभव करने लगेंगे। उन्हें अनुभव होगा कि कोई अतिरिक्त शक्ति उनके शरीर में प्रवेश कर गयी है और उसकी सहायता से आत्मा विश्वास एवं आत्म बल दूना हो गया है। काम में मन लगने और आशावादी रहने का एक विशेष परिवर्तन अनुभव होने लगेगा। साधकों को शक्ति संचार के साथ ही अपने में अनेकों उच्च कोटि की अध्यात्म भावनाएं प्रविष्ट एवं प्रतिष्ठित होती दिखाई देंगी और वे उस मार्ग पर चल पड़ेंगे जिसके लिये महाकाल ने पुकार लगाई।


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