अपना गला आप घोट लेने का उपक्रम

February 1977

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भारत के प्राचीन शास्त्रकारों का कथन था कि पृथ्वी में तीन रत्न है- जल, अन्न और सुभाषित। (पृथ्वियाँ श्रीणि रत्नानि, जलात्रं सुभाषितम्)। पर जल और अन्न आज पर्यावरण-प्रदूषण से दूषित हो रहे हैं और सुभाषित भी शायद नकली मुगलों की दुनिया के शोर में खो गये है।

पर्यावरण है क्या? चारों ओर का जल, भूमि, वायु और उसके ऊपर के सजीवन-निर्जीव सब पदार्थ इन्हें मिला कर “बायोस्फियर’ यानी जीव-मण्डल कहते हैं। जीवन मण्डन और मनुष्य के परस्परावलम्बी सम्बन्ध का नाम पर्यावरण है।

पर्यावरण-प्रदूषण के परिणाम क्या होते हैं 1942 में पूरे लन्दन में चार दिन तक धुएँ की धुन्ध छायी रही। इससे प्रायः 4 हजार व्यक्तियों का प्राणांत हो गया। 1945 में अमरीका के डनोरा शहर में इसी तरह की धुँए की धुन्ध (स्माँग) छायी रही, सैकड़ों लोग श्वसन तन्त्र के रोगों से ग्रस्त हो गये। दोनों जगह कारण एक नहीं था-कोयले के उपयोग से -कारखानों से-निकली सल्फर-डाई-आक्साइड गैस।

जापान की राजधानी टोकियो में पुलिस को हर आधे घण्टे बाद आक्सीजन-टैंकों से आक्सीजन का सेवन करना पड़ता है, क्योंकि मोटरों के धूल-धमाके से कार्बन-मोनो-आक्साइड की मात्रा घट जाती है।

कारखानों से निकल कर हवा में सल्फर डाई-आक्साइड कार्बन-मोनोक्साइड स्माँग रिएक्टैन्ट, कार्बन-डाई-आक्साइड ओजोन और बारीक कण मिलते हैं। साथ ही कार्बन-कण सीसे के कण, धातुओं वाले कारखानों से धातु कण आदि भी शामिल होते रहते हैं।

सल्फर डाई-आक्साइड गैस से एम्फीसिमा, हृदय रोग आदि हो जाते हैं। हवा नम हुई तो इसी गैस से सल्फ्यूरिक अम्ल बन जाता है, जो भवनों और वनस्पतियों को क्षति पहुँचाता है तथा फौलाद को भी बरबाद कर देता है।

कार्बन-मोनोक्साइड गैस रक्त के होमोग्लोबिन में मिलकर रक्त की आक्सीजन धारण क्षमता में कमी ला देती है। इससे मोटर चलाते समय थकान आ जाती है। दुर्बलता, मितली और सिर चकराने की घटनाएँ भी इससे बढ़ जाती है।

फिर इन, जहरीली गैसों से धुएँ के धुन्ध बनते हैं। जिससे कैंसर, श्वसन-तन्त्र के विभिन्न रोग, हृदय रोग आदि फैलते हैं। ओजोन से वनस्पति क्षतिग्रस्त होती है। बारीक कणों से वस्तुएँ मैली हो जाती है। आँखों की देखने की शक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और श्वसन-तन्त्र में विकार आता है।

सामान्यतः कीटनाशक दवाओं एवं रासायनिक कचरा द्रव के विषैले तत्त्व तथा धातुओं के कण यह तीन तरह से मनुष्य के शरीर में पहुँचते है- (1) जल द्वारा (2) दूध द्वारा (3) माँस-मछली के भक्षण द्वारा।

रासायनिक अवशिष्ट अथवा फसलों आदि में छिड़की गई कीटनाशक दवाएँ, कई बार बहकर पानी में पहुँच जाती है। ऐसे पानी के प्रयोग से मनुष्य प्रभावित हो जाते हैं।

ऐसे पानी को पीने वाले या कि विषाक्त तत्त्वों से प्रभावित पदार्थों को खाने वाले, गाय, भैंस, बकरी, आदि के दूध से भी ये जहरीले पदार्थ मनुष्य शरीर में पहुँच जाते हैं। कुछ समय पूर्व जापान में, कीटनाशक दवा डाएल्ड्रिन इसी तरह, किसी प्रकार माताओं के शरीर में पहुँच गई और फिर उन माताओं में दूध में जहरीले रसायन पाये गये। यानी माताएँ पिलाती थी दूध, पर बच्चे दूध के नाम पर पी रहे थे मन्द जहर।

डी॰डी॰टी॰, डाइल्ड्रिन, क्लोरेडन्, एनाड्रिन आदि विषाक्त रसायन जल में जितना धुल जाते हैं, वनस्पति में उससे बहुत अधिक अवशोषित होते हैं तथा उस जल व वनस्पति पर जीने वाले, मछली आदि जानवरों से उससे भी कई गुना अधिक उनकी मात्रा होती है। अमरीका में कैलीफोर्निया के ‘क्लियर लेक’ सरोवर में डी॰डी॰टी॰ की सान्द्रता का परीक्षण किया गया। जल में यह मात्रा पी 0.02पी॰पी॰एम॰ अर्थात् 25 करोड़ में एक भाग पी॰पी॰एम॰ का अर्थ होता है- 10 लाख में एक भाग।

इसी झील में कुछ समय बाद वनस्पति तथा मछलियों में भी डी0डी0टी0 सान्द्रता की परीक्षा की गई। वनस्पति में यह मात्रा थी 5 पी॰पी॰एम॰ अर्थात् जल से 250 गुनी ज्यादा। मछलियों में तो इसकी मात्रा 2 हजार पी॰पी॰एम॰ जा पहुँची अर्थात् वनस्पति से चार सौगुनी ज्यादा और जल से 1 लाख गुनी।

कारखानों का कचरा (कार्बोनिक अपशिष्ट), चहबच्चों और मोहरियों की ‘स्युएज’ (गन्दगी) आदि नदी, नालों झील, तालाबों में छोड़ने से भी ये उस जल में आक्सीजन की कमी कर हाइड्रोजन, सल्फाइड तथा मीथेन गैस की प्रचण्ड दुर्गन्ध फैलाते हैं, जीवों -वनस्पतियों को विनष्ट कर देते हैं। अमरीका में ‘ईरी’ सरोवर इसी प्रक्रिया में ‘मर’ चुका है यानी जीवों, वनस्पतियों की पोषक प्राण-शक्ति उसमें बची नहीं।

इसी तरह विशालकाय ताप बिजली केन्द्रों एवं नाभिकीय विद्युत केन्द्रों से समुद्र, नदी या तालाब में गिरने वाला गर्म पानी ‘थर्मल पाल्यूशन’ को जन्म देता है। इससे कारण उस जल की आक्सीजन धारणा, क्षमता कम हो जाती है।

क्षारीय प्रदूषण से युक्त पानी न केवल भूमि की उर्वरा-शक्ति को घटाता है, वरन् उसे दूषित भी करता जिससे वहाँ की फसल जहरीली हो जाती है। टेलीविजन, इलेक्ट्रानिक यन्त्रों, एक्स-किरण उपकरणों व अन्य चिकित्सा-उपकरणों घड़ियों के डायलों आदि के विकिरण का भी मनुष्य व अन्य जीवों पर प्रभाव होता है।

मानव-निर्मित परमाणु बम आदि के परीक्षणों से होने वाले रेडियो क्रिय विकिरण अधिक हो जाने पर समस्त जीवधारियों के विनाश का कारण बनते हैं।

यों, परमाणुजन्य विकिरण यदि कम भी हो, तो भी हानि तो पहुँचाता ही है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने 1954 में ‘बिकिनी’ नामक एक ‘एटाँल’ (प्रवालद्व्रीप वलय) पर परीक्षणार्थ परमाणु-विस्फोट किया। विस्फोट के बाद सहसा हवा ने रुख बदला और रेडियोसक्रिय विकिरणमय कूड़ा वहाँ से कुछ मील दूर स्थित रोंजेलैप एटाँल की ओर बढ़ने लगा। तुरन्त की अमेरिकी खोजी दल ने रोंजेलैप पहुँच कर वहाँ के सभी 82 निवासियों को वहाँ से हटाया, पर इसमें दो दिन लग गये। क्योंकि हटने वालों को अपना सामान आदि समेटना भी तो जरूरी था।

जो लोग बिलकुल शुरू में हटा लिए गये, उन पर तो कोई प्रभाव नहीं पड़ा। पर देर से हटने वालों में से कई में 10 दिन के भीतर विकिरणजन्य दाह होने लगा। थाइराइड ग्लैड्स में गांठें पड़ने लगी। राजकयुक्त मस्से होने लगे या कि ऐसे ही अन्य लक्षण प्रकट हुए। 10 वर्ष बाद भी उनमें विकिरणजन्य विषाक्तता पाई गई। अब भी इन लोगों में उसका प्रभाव शेफ हो, यह सम्भव है। जब कि यह एक हल्का परमाणु परीक्षण था। फिर विकिरण युक्त कूड़ा समुद्र में गुजरा था, (जिससे अधिकाँश तो वही समुद्र में धुल जाता है) और उसकी सान्द्रता कम हो गई थी।

रेडियोसक्रिय अपशिष्ट का प्रभाव 1 हजार वर्ष तक प्राणियों के लिए हानिकर हो सकता है। रेडियम की आधी विकिरणशीलता 1622 वर्ष में समाप्त होती है। हाँ स्ट्रॉशियन 10 की आँधी विकिरणशीलता 25 वर्षों तक ही रहती है।

अमरीकी चिकित्सक डॉ॰ थेरान जी रैन्डाल्फ के अनुसार तेल शोधक, इस्पात या कि रासायनिक कारखाने के क्षेत्रों में निकलने वाले, कुछ लोक जो उस वातावरण से दूर रहते हों, सिर्फ वहाँ से गुजरने के कारण बीमार पड़ जाते हैं। किसी को दमे का दौरा पड़ जाता है। कोई थक जाता है। किसी को सिरदर्द हो जाता है, तो किसी को है- फीवर-नामक ज्वर। कुछ ऐसे बहकने लग जाते हैं, जैसे नशे में हों। किसी की श्लेष्मा झिल्लियों में क्षोभ हो जाता है। कोई चिड़-चिड़चिड़ाहट से भर उठते हैं और कोई अधीर से हो उठते हैं। इन सबको एलर्जिक-प्रतिक्रियाएँ कहा जाता है और ऐसे कारखानों से निकलने वाले उन पदार्थों को, जो वातावरण में व्यास होकर ऐसा प्रभाव पैदा करते हैं, उन्हें ऐररोएलर्जन पदार्थ कहते हैं।

शोर भी वातावरण-प्रदूषण का एक कारण है शोर वैज्ञानिक ग्राहमबेल के नाम पर शोर नापने की इकाई का नाम बेल रखा गया है। बेल का दशमांश है डेसीबल। जहाँ से ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है, उसे शून्य डेसीबल माना जाता है। शून्य ‘डेसीबल’ की स्थिति तो प्रयोगशाला में ही होती है। मानवीय जीवन में तो सामान्य प्रशान्त वातावरण में भी 25 डेसीबल शोर होता रहता है- पत्तों की मर्मर ध्वनि या हल्की-सी हलचल। इससे भी ध्वनि तो उत्पन्न होती ही है।

शरीर-विज्ञानियों के अनुसार शोर का मनुष्य के शरीर पर दुष्प्रभाव पड़ता है। कानों को तो क्षति पहुँचती ही है। अधिक तेज शोर से धमनियों सिकुड़ने लगती है, ब्लडप्रेशर बढ़ जाता है। श्वसन-क्रिया अनियमित हो सकती है, पाचन-क्रिया गड़बड़ा जाती है, इससे आँतों पर असर होता है। कई हारमोनों के सुख पर प्रतिकूल असर पड़ता है पिट्यूटरी ग्रन्थि, एड्रीनल कार्टेक्स, थाइराइड ग्रन्थि और जनन ग्रंथियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

अधिक तेज शोर से आँखों की ज्योति मन्द पड़ती है, रात में देखने में कठिनाई होने लगती है, रगों का भेद कर पाना मुश्किल हो जाता है। और दूरी का तथा धरातल के ऊँचे-नीचे होने का अनुमान सही-सही लगा पाना कठिन हो जाता है।

शोर के थकान, उदासी और ऊब पैदा होती है, विचारों की शृंखला टूटती है, मस्तिष्क की विद्युत-तरंगों में गड़बड़ी होने लगती है। इससे हिंसा की भावना बल पकड़ सकती है। उत्तेजना-पूर्व जीवन की ओर झुकाव बढ़ सकता है।

जीवन-जगत के अन्तर्सम्बन्ध कार्बन, आक्सीजन, नाइट्रोजन तथा गन्धक के चक्रों से ही पूरी तरह परिचालित है। ये चक्र उस प्रक्रिया के नाम है, जिसके द्वारा मृत कार्बोनिक पदार्थ नये जीवन के निर्माणकारी पदार्थों में परिवर्तित होते हैं।

कार्बन-चक्र से हम सभी परिचित है। कार्बन सभी जीवधारियों में मिलता है। जैव कार्बन सूर्य से प्राप्त ऊर्जा का प्रयोग करते हुए प्रकृति में कोयले तथा पेट्रोलियम के रूप से इकट्ठा होता है उद्योगों में कोयले व पेट्रोलियम का प्रयोग होता है तथा कार्बन-डाई-आक्साइड बनती है। पौधे तथा कुछ सूक्ष्म जीवन वायु से कार्बन-डाई-आक्साइड सोखते हैं व आक्सीजन छोड़ते हैं। मृत पौधों व पशुओं का सूक्ष्मजीवी विघटन करते हैं और कार्बन-डाई-आक्साइड वायु में वापस लौट जाती है।

प्रकृति की पूरी स्वतन्त्र आक्सीजन पृथ्वी के कार्बोनिक पदार्थों की सम्पूर्ण मात्रा के साथ एक सन्तुलन में होती है। तथा कार्बन एवं आक्सीजन के चक्रों में घनिष्ठ अन्तर्सम्बन्ध होता है।

प्रकाश-संश्लेषण तथा विभिन्न जैविक विधियों द्वारा 20 से 30 अरब टन तक कार्बन प्रतिवर्ष वायु से स्थल में पहुँचता है। जीवाणु लगभग 40 अरब टन कार्बन-डाई-आक्साइड हर वर्ष खा जाते हैं। बाद में पशुओं, पौधों व जीवों के विघटन से यह कार्बन-डाई-आक्साइड का अंश बढ़ने लगा है। पिछले सौ वर्ष में ही वह 0.029 प्रतिशत से बढ़कर 0.032 प्रतिशत तक पहुँच गया है। अनुमान है कि सन् 2 हजार तक वायुमण्डल में कार्बन-डाई-आक्साइड की मात्रा 0.04 प्रतिशत और अगले दो-तीन सौ वर्षों में 1 प्रतिशत हो जायेगी।

पर्यावरण-प्रदूषण की आज उपस्थित भयावह स्थिति इन्द्रिय-लोलुप जीवन दिशा की है अनिवार्य परिणति है। औद्योगिक प्रगति में तो चक्रीयक्रम अपनाना आवश्यक है ही लेकिन अधिक महत्त्वपूर्ण है उस सही जीवन दृष्टि को हृदयंगम करना-जो सन्तुलन और चक्रीय-क्रम के अनुवर्तन के आधार पर प्रगति की दिशा व स्वरूप निर्धारित करती है। सही मार्ग वही है। एकांगी प्रयास सदा किसी न किसी असन्तुलन और प्रदूषण का कारण बनते रहेंगे।


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