अपनों से अपनी बात - साधना जयन्ती की पूर्णाहुति के साथ-साथ नये चरण, नये प्रयास

February 1977

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साधना स्वर्ण-जयन्ती की पूर्णाहुति बसन्त पर्व-24 जनवरी को सम्पन्न हुई। उसी दिन यह ‘पंक्तियाँ लिखी जा रही है। जीवन को साधनामय बनाने के- आदर्श के प्रति निष्ठा व्यक्त करने के- लिए यह योजना बनाई गई थी कि जनसाधारण का विशेषतया अपने घनिष्ठ परिजनों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया जाय कि जीवन को साधनामय बनाना कितना सार्थक और कितना बुद्धिमत्ता पूर्ण है? एक वर्ष तक 45 मिनट की साधना का कार्यक्रम देकर यह चेतना उत्पन्न करने का प्रयास किया गया था कि मनुष्य जीवन का मूल्य महत्त्व स्वरूप, लक्ष्य एवं उपयोग समझा जाय। ईश्वर के इस सर्व श्रेष्ठ उपहार को सार्थक बनाया जाय।

साधना वर्ष पूर्ण हुआ। 45 मिनट की उपासना का जो क्रम अपनाया गया था उसकी पूर्णाहुति आज हो जायेगी। अग्निहोत्र तथा मिलन सम्मेलन कार्यक्रमों के साथ वह साधनाक्रम आज समाप्त हो जायेगा। जो लोग उसे आगे भी जारी रखना चाहें, रखे रहे। वह साधन प्रक्रिया अपने आप में बहुत ही सारगर्भित है और इस योग्य है कि उसे आजीवन अपनाये रहा जाय। सूर्योदय से पूर्व 45 मिनट का समय बन्धन इसलिए था कि उस समय शक्ति संचार का विशेष लाभ मिल सके वैसी व्यवस्था की गई थी। प्रसन्नता की बात है कि वह शक्ति संसार क्रम ठीक उसी समय साधना करने न करने का कोई आग्रह प्रतिबंध नहीं हैं सुविधानुसार वह साधना आगे या पीछे भी की जा सकती है। हाँ शक्ति संचार का विशेष लाभ सूर्योदय से 45 मिनट पूर्व से लेकर ठीक सूर्योदय की अवधि तक ही मिल सकेगा। उपासना की कर्मकाण्ड परक-प्रक्रिया को ‘जादुई’ मानकर चलने की भूल किसी को भी नहीं करनी चाहिए। उपासना में मात्र जीवन-क्रम के निर्धारण के संकेत सूत्र सन्निहित रहते हैं। वास्तविक साधना तो जीवन की दिशा धारा को आदर्शवादी प्रयोजनों के साथ जोड़ने से सम्बन्ध रखती है। चमत्कार उसी से मिलते हैं। सिद्धियों का स्रोत इसी केन्द्र के साथ जुड़ा हुआ है। संसार भर के महामानवों को अपनी जीवन प्रक्रिया को ऐसी बनाकर चलना पड़ा हैं जिसमें उनके व्यक्तित्व में उत्कृष्टता भरी रहे साथ ही लोक-मंगल के लिए किये जाने वाले प्रयासों का उत्साहवर्धक बाहुल्य जुड़ा रहे। इससे कम में नैतिक एवं आत्मिक प्रगति सम्भव नहीं, और न वे लाभ किसी को मिल सकते हैं जो ‘साधना की सिद्धि’ के रूप में शास्त्रकारों ने विस्तारपूर्वक वर्णन किये है।

जीवन साधना के पंचशील

साधना वर्ष के ध्यान, आकर्षण प्रयास की सफलता को देखते हुए यह विश्वास होता है कि परिवार के भावनाशील परिजनों में से अधिकांश को जीवन साधना में संलग्न होने की प्रेरणा मिलेगी। ठोस कदम यही होगा।

जीवन साधना को पाँच सूत्रों में विभक्त किया जा सकता है। आध्यात्मिक जीवन के इन्हें पंचशील कहा जाय तो भी अत्युक्ति न होगी। पंच-रत्न पंच-गंव्य पंच-देव पंचाँग, पंच कोश आदि प्रसिद्ध है। गायत्री माता की प्रतिमा भी पंच मुखी बनाई जाती है। व्यावहारिक जीवन को साधना में-देव पूजन में प्रयुक्त होने वाले पंचोपचार के, धूप, दीप, नैवेध, अक्षत, पुष्प के समतुल्य माना जा सकता है। अगले दिनों हममें से प्रत्येक की यह प्रयत्न करना चाहिए कि इनका पालन अपने व्यक्तिगत जीवन व्यवहार में अधिकाधिक मात्रा में होता रहे। हमने आजीवन इन्हें निबाहने का प्रयत्न किया है। चाहते यह है कि परिजनों में से प्रत्येक को इन्हें अपनाने के लिए उत्साह उमड़े और वे इसके लिए इसी बसन्त पर्व से साधना स्तर का प्रयत्न आरम्भ कर दें।

(1) बसायें एक नया संसार

जिस दुनिया में हम रहते हैं, उसका दर्शन, चिन्तन, व्यवहार ही यदि अपने को प्रभावित करता रहे तो फिर आदर्शवादी क्रिया कलाप अपनाने की आशा नहीं के बराबर ही रहेगी। लोग तो वासना, तृष्णा और अहंता की पूर्ति के अतिरिक्त और किसी उद्देश्य के लिए न तो कुछ सोचते हैं और न करते हैं। उनका प्रभाव और परामर्श अपने ही प्रभाव में घसीटता है यदि उत्कृष्टता की दिशा में बढ़ना है तो अपना प्रेरणा स्रोत बदलना पड़ेगा। परामर्श के नये आधार अपनाने पड़ेंगे। अनुकरण के नये आदर्श ढूँढ़ने होंगे।

क्रिया यह होनी चाहिए कि अपना आध्यात्मिक परिवार-परामर्श मन्त्री-मंडल अलग से नियुक्त किया जाय। महामानवों का शरीर न रहे तो भी वे जीवित रहते हैं। हमें जिनका अनुकरण आकर्षक लगता हो ऐसे आदर्श व्यक्तित्वों के जीवन-चरित्रों को बार-बार पढ़ते रहा जाय, उनके घटनाक्रमों एवं संस्मरणों को मस्तिष्क में घुमाते रहा जाय। महत्त्वपूर्ण समस्याओं पर नीति-निर्धारण करने के लिए महान व्यक्तित्वों के चिन्तन एवं दर्शन का सहारा लिया जाय। इसलिए भाव भरा एवं गम्भीर स्वाध्याय एवं चिन्तन-मनन आवश्यक है। उसे नित्य कर्म में सम्मिलित रखा जाय। मस्तिष्क में ऐसी कल्पना फिल्में घूमती रहनी चाहिए जिनमें उत्कृष्ट चरित्रों के घटनाक्रम एवं संस्मरण भरे पड़े हों। जीवन समस्याओं के सुलझे हुए समाधान प्रस्तुत करने वाली पुस्तकें हमारी सच्ची मित्र हो सकती है। इस स्वाध्याय के लिए सत्साहित्य को उपलब्ध करने के साधन जुटाये जाएँ। आवश्यक खर्चों में यह भी एक गिना जाय और आत्मा की भूख बुझाने का महत्त्व समझते हुए उसके लिए भी समय एवं धन का समुचित समावेश किया जाय। जब भी अवकाश मिले, मस्तिष्क में आदर्शवादी विचारणाओं एवं प्रेरणाओं का ताना-बाना बुनने का कार्य चल पड़े।

कैदी जेल में रहता है, पर उसका मन अपने घर व्यवसाय आदि में पड़ा रहता है। समय तो जेल में काटता है और निर्धारित काम भी करने पड़ते हैं, पर दिलचस्पी का केन्द्र अपना घर परिवार रहता है। ठीक इसी प्रकार शरीर निर्वाह एवं पारिवारिक उत्तरदायित्वों के लिए प्रयत्नरत तो रहा जाय, पर आकांक्षाएँ उस मंडली के साथ जुड़ी रहें जिसे अपने भावनात्मक दिव्य घर-परिवार के रूप में विनिर्मित किया गया है। साथी प्रेरणा देते हैं। और अपने चुम्बकत्व से प्रभावित करके सहचरत्व के लिए खींचते हैं। चोर, जुआरी, व्यभिचारी, नशेबाज आदि की संगति में बैठकर देखा जा सकता है कि उनने मन को अपनी ओर किस तरह झुका लिया। यह चुम्बकत्व महामानवों की संगति में भी होता है। उन्हें अपना सहचर बनाया जाय तो स्वभावतः ऊँचा उठने की प्रेरणा मिलेगी। कठिनाई एक ही है कि दुर्जनों की संख्या बहुत है और समीपता सरल है किन्तु श्रेष्ठ सज्जनों के सम्बन्ध में वैसी सुविधा नहीं है। उस व्यवस्था को भावना कल्पना, विचारणा एवं आकांक्षा के आधार पर अपने अन्तःकरण में स्वयं ही बनाना पड़ता है। अपन निजी लोक, निजी संसार, निजी परिवार यदि आदर्शवादी तत्त्वों और व्यक्तित्व के सहारे विनिर्मित किया जा सके, उसी में अधिक अभिरुचि से-अधिक समय तक निमग्न रहा जाय तो समझना चाहिए कि उत्थान की सही राह मिल गई। उज्ज्वल भविष्य के लिए एक अति महत्त्वपूर्ण आधार हाथ आ गया।

(2) आकाँक्षाओं का परिष्कार

मनुष्य तत्त्व में सबसे प्रबल है- आस्था अभिरुचि, आकाँक्षा। इसी की प्रेरणा से मन की विचारणा और शरीर की क्रियाशीलता को दिशा मिलती है। मन और शरीर की क्रियाशीलता को दिशा मिलती है। मन और शरीर वफादार नौकर भर है। स्वामित्व आस्था, आकाँक्षा का है। इसी को अन्तःकरण कहा जा सकता है। उस मर्मस्थल में से जिस स्तर की उमंग उठेंगी, जैसी आस्थाएं जमेंगी- जो आकांक्षाएं मचलेंगी, उसी के अनुरूप, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ शरीर काम करने लगेगा। उसी तरह के साधन जुटेंगे और सहयोग मिलेगा। अपने भाग्य का निर्माण आप करने का तथ्य इसी अन्तःकेन्द्र के साथ जुड़ा हुआ है।

हमारी आकांक्षाओं को केन्द्र बड़प्पन से हटकर महानता के साथ जुड़ना चाहिए। अमीर और विलासी बनने की आकुलता त्यागी जाय। निर्वाह के लिए जितना श्रम और धन अनिवार्य हो, उतने का सादगी और सन्तोष के साथ प्रबन्ध करने को ही पर्याप्त माना जाय। तभी महानता उपार्जित कर सकने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण प्रयास सम्भव होगा। लोभ और मोह का नशा उतरे तो उत्कृष्टता के अभिवर्धन के लिए कुछ कारगर कदम उठे। हेय स्तर के व्यक्ति पेट और प्रजनन में उलझे रहते हैं। और वासना, तृष्णा ही रात-दिन सताती है। अहंकार प्रदर्शन के लिए उद्धत आडम्बर रचते रहते हैं। व्यक्तित्व में उत्कृष्टता का समावेश होते ही यह तुच्छताएं पतझड़ के पतों की तरह गिर जाती है और जीवन की सार्थकता जीवन-मुक्ति स्वर्गानुभूति ईश्वर प्राप्ति जैसी उमंगें उठने लगती है। हमें अपनी आकाँक्षाएं बड़प्पन की तृष्णा से समेट कर महानता की उपलब्धि के साथ जोड़नी चाहिए। इस श्रद्धा की स्थापना से ही जीवन की सार्थकता सम्भव होती हैं

(3) कर्त्तव्य पालन का गौरव

‘मालिकी’ असाधारण रूप से बोझिल होती है। उतना भार उठा सकने की गरिमा न हो तो उस बोझ से ही सामान्य व्यक्ति पिस जाता है। मालिकी छोड़कर माली बनने से जीवन हल्का फुल्का बनता है, संतोष और शान्ति के साथ समय कटता है, जी प्रसन्न रहता और सन्तुलन बना रहने से अपने कामों को अधिक मनोयोगपूर्वक कर सकना सम्भव होता है। अस्तु वे आनन्ददायक भी बने रहते हैं और सफल भी होते हैं। मालिनी का अहंकार, एक प्रकार का उन्माद उत्पन्न करता है। तथाकथित बड़े आदमी किस कदर ऐठे-अकड़े फिरते हैं, प्रदर्शन के लिए कैसे-कैसे कौतुक खड़े करते हैं, ठाट-बाट में कितना समय और धन खर्च करते हैं, इसे देखकर यह तथ्य सहज ही समझ में आता है कि अहंता ने मालिकों ने इनका चिन्तन कितना विकृत और कर्तव्य कितना उद्धत बना दिया हैं। विग्रह और विद्वेष में-कलह और संघर्ष में-वास्तविक कारण कम रहते हैं और अहंकार की प्रधान रूप से उबलता है।

महत्वाकांक्षाएं खड़ी की जाती है। वे पूरी नहीं होती तो भारी निराशा और खीज उत्पन्न होती है। पूर्ति में देरी सहन नहीं होती। जो चाहा है वह तुरन्त पूरा होना चाहिए इस आतुरता में ही अपराधी आचरण अपनाये जाते हैं जो मन काम में लगना चाहिए वह इच्छित परिणाम के तुरन्त ही उपलब्ध होने की आकुलता में डूबा रहता है। इच्छाओं की पूर्ति में बाधक दीखने वाले व्यक्तियों या परिस्थितियों की कल्पना भर से सन्तुलन बिगड़ जाता है और ऐसा कर बैठते हैं कि जिसे अनर्थ ही कहा जा सकता है। जीवन का आधा आनन्द नष्ट कर देने वाले मालिकी उसी की है। हमें नियत कर्म करने के लिए माली की तरह नियुक्ति किया गया हैं। उपलब्ध शरीर का परिवार का वैभव का वास्तविक स्वामी परमेश्वर है। हम उसकी सुरक्षा एवं सुव्यवस्था भर के लिए उत्तरदायी है ये सोचने से जी हलका रहेगा और अनावश्यक चिन्ताओं, आशंकाओं की आग में न जलना पड़ेगा। खिलाड़ी की तरह नाटक के पात्रों की तरह अपनी भूमिका पूरी जिम्मेदारी और ईमानदारी के साथ निबाही जाय। हम सामर्थ्य भर अपना कर्तव्य पालन सही रीति से कर रहे हैं, इतने भर से सन्तोष किया जा सकता है और हर घड़ी हर स्थिति में प्रसन्न रहा जा सकता है।

हम न भूतकाल की शिकायत करें और न भविष्य के लिए आतुरता व्यक्त करें। वर्तमान का पूरा जागरूकता एवं तत्परता के साथ सदुपयोग करें। न हानि में सिर पटकें और न लाभ में हर्षोन्मत्त बनें। विवेकवान, धैर्यवान, कर्मयोगी की भूमिका अपनायें। मालिक बनने का प्रयत्न न करें। जो बोझ कन्धे पर है उसे जिम्मेदारी के साथ निबाहें और प्रसन्न रहें। कर्तव्य ही अपने हाथ में है- परिणाम तो परिस्थितियों पर निर्भर है। जो अपने हाथ की बात नहीं है उनके लिए विक्षुब्ध क्यों हो? ऐसा सन्तुलन बनायें रहने वाला व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में अध्यात्मवादी बन सकता है और हर परिस्थिति में प्रभदित रह सकता है। नैतिक जीवन जी सकना और महान कार्य कर सकना कर्मयोगी के लिए सम्भव हो सकता है।

(4) अपव्यय को भी अनर्थ समझें-

अनर्थ कृत्यों में सामर्थ्य को लगाने के उग्र दुष्परिणाम सर्वविदित है। कुकर्मी, दुष्ट, दुराचारी बदनाम होते हैं, घृणित तिरस्कृत बनते हैं, सहयोग से वंचित रहते हैं। आत्म-प्रताड़ना सहते हैं।, दण्ड पाते हैं ओर पतन के गर्त में गिरते हैं। अपनी ही तरह वे दूसरों की भी हानि करते हैं। अपने सम्पर्क में परिचितों को या प्रभावित लोगों को वे आग की तरह जलाते हैं। इन दुरात्माओं को आतंक जमाने की आसुरी अहंता की तृप्ति का- पहले हमले में ही जो समेट लिया उतने का- का यत्किंचित् लाभ भले ही मिल जाता हो, पर अन्ततः असीम हानि ही उठाते हैं। बाद में वे पछताते हैं कि क्यों हमने दुष्टता का मार्ग चुना और क्यों इतना घाटा उठाया?

अनर्थ अपनाने को दुष्टता कहते हैं उससे कुछ ही हलके दर्जे का पाप है- व्यर्थ में शक्तियों को गँवाते रहने की मूर्खता। देखने में यह कोई बहुत बड़ी बुराई नहीं लगती, पर हानि इसमें भी लगभग उतनी ही जा पहुँचती है, जितनी अनर्थमूलक दुष्टता से होती है। (1) शारीरिक श्रम-शक्ति को व्यर्थ में गंवाना ‘आलस्य’ (2) मन को अभीष्ट प्रयोजनों में न लगाकर इधर-उधर भटकने देना ‘प्रमाद’ (3) समय का, वस्तुओं का, धन का, क्षमता का बेसिलसिले उपयोग करना, उन्हें बर्बाद करना, ‘अपव्यय’ (4) तत्परता, जागरूकता, साहसिकता, उत्साह का अभाव-अन्यमनस्क मन से बेगार भुगतने की तरह, कुछ उलटा-पलटा करते रहना ‘अवसार।’ इन चारों दुर्गुणों की चतुरंगिणी जिस पर भी आक्रमण करती है वह जीवित मृतक जैसी स्थिति में जा पहुँचता है। उसके द्वारा कुछ पुरुषार्थ बन ही नहीं पड़ता। जो थोड़ा बहुत काम होता है वह भी अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित रहने से ऐसा रहता है जिसकी अपेक्षा न करना अधिक अच्छा समझा जाता है।

इन चारों में से जहाँ एक होगा वहाँ क्रमशः दूसरे साथी भी घुसते चले जायेंगे। पक्षाघात, पीड़ित, अपंग, असहाय की तरह वह अपने लिए और दूसरों के लिए भार भूत होकर रहेगा। अस्तु इन दुर्गुणों के निवारण, निराकरण के लिए भी वैसा ही प्रबल प्रयत्न करना चाहिए जो कि अवाँछनीयताओं, अनैतिकताओं, असामाजिकताओं के विरुद्ध संघर्ष करना आवश्यक माना गया है तथा बौद्धिक क्रान्ति , नैतिक क्रान्ति एवं सामाजिक क्राँति के लिए प्रयत्नशील। मूढ़ मान्यताएं, अनैतिकताएं तथा सामाजिक भ्रष्टताएं हमें सहन नहीं। ठीक उसी प्रकार आलस्य, प्रमाद, अपव्यय एवं अवसाद के असुरों से भी जूझा जाना चाहिए। न हम अनर्थ होने दें और न व्यर्थ की बर्बादी सहन करें। श्रमनिष्ठा, कर्म-परायणता उत्साह, स्फूर्ति, सजगता, व्यवस्था, स्वच्छता आपने स्वभाव के अंग होने चाहिए। भीरुता, आत्महीनता, दीनता, निराशा, चिंता जैसी मनुष्यता को लज्जित करने वाली एक भी दुष्प्रवृत्ति अपने में रहने न पायें। हर समय सैन्य प्रहरियों की तरह सुव्यवस्थित, सजग, कर्मनिष्ठा का परिचय देने वाला हमारा व्यक्तित्व होना चाहिए।

(5) अंशदान में कृपणता न करें-

जीवन को आत्मा और शरीर का सम्मिलित व्यवसाय माना जाय। उसके लिये का बँटवारा दोनों में समान रूप से होता रहे, इसके लिए सही रीति-नीति अपनाई जाय। शरीर निर्वाह और पारिवारिक उत्तरदायित्व यह दोनों ही कार्य भौतिक जीवनचर्या से सम्बन्धित है। आत्मिक प्रगति के लिए उन कर्त्तव्यों को पूरा करना आवश्यक है जिनके लिए ईश्वर ने मनुष्य शरीर जैसा अनुपम उपहार सौंपा है। विश्व उद्यान को सुन्दर, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए हम सहयोगी बने, हाथ बँटायें यही ईश्वर की आकाँक्षा रही हैं इन प्रयोजनों में हमारी सामर्थ्य जितनी अधिक लगेगी, आत्मा को उतना ही सन्तोष होगा। आत्मिक प्रगति पूर्णता के लक्ष्य की प्राप्ति इसी आधार पर सम्भव होती है। पुण्य परमार्थ के लिए-लोक-मंगल के लिए-लगने वाला अनुदान ही सच्ची ईश्वर भक्ति और जीवन की सार्थकता कही जा सकती है।

शरीर की माँग है कि उसे निर्वाह के साधन चाहिए। परिवार से शरीर को बहुत-सी सुविधाएँ मिलती हैं, इसलिए आश्रित परिजनों का भरण-पोषण भी कर्तव्य है। यह दोनों ही काम शरीर यात्रा के- भौतिक जीवन के आधार है। इनमें आधी सामर्थ्य लगे तो पर्याप्त है। शेष आधी श्रम, समय, मन, प्रभाव एवं साधन का उपयोग आध्यात्मिक प्रयोजनों में-अपनी और दूसरों की श्रेष्ठता बढ़ाने में लगनी चाहिए। लोक कल्याण के- सद्प्रवृत्ति संवर्धन के कार्यों में संलग्न रहने से अपनी श्रेष्ठता, उत्कृष्टता अनायास ही बढ़ती है। परमार्थ साधना में ‘स्व’ पर कल्याण समान रूप से सन्निहित है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए शरीर यात्रा की भाँति ही परमार्थ प्रयोजनों को भी नितान्त आवश्यक मानना चाहिए। उपलब्ध साधनों का विभाजन इन दानों के लिए समान मात्रा में करना चाहिए। उत्तमता तो इसमें है कि शरीर को कम और आत्मा को अधिक भाग दिया जाय। शारीरिक आवश्यकताएं स्वल्प रखी जाएँ, परिवार बढ़ाया न जाय, जो है उसी को स्वावलम्बी बनाने की अपनी सामर्थ्य जीवनोद्देश्य की पूर्ति में लगाने की तैयारी की जाय। भारतीय संस्कृति का वर्णाश्रम धर्म प्राण है। आधा जीवन ब्रह्मचर्य और गृहस्थ के रूप में शरीर परिवार के लिए शेष आधान वानप्रस्थ एवं संन्यास के रूप में समाज सेवा के लिए-निर्धारित किया गया हैं। इस विभाजन पर आरूढ़ न रहना एक प्रकार से आध्यात्मिक बेईमानी ही समझी जायेगी।

आधा विभाजन न बन पड़े तो भी जितना अधिक अंशदान आत्म-कल्याण के लिए-लोक कल्याण के लिए बन पड़े उतना लगाने की उदारता बढ़ाई जाती रहे। न्यूनतम अंशदान एक घण्टा समय और दस पैसा ज्ञान यज्ञ के लिए लगाते रहने का है। महीने में एक दिन की कमाई लगाने से निष्ठा की प्रौढ़ता झलकती है। यह अंश -दान ज्ञान-यज्ञ के लिए-विचार क्रान्ति के लिए-लगाना चाहिए। मनुष्य को यदि सद्बुद्धि, सत्प्रेरणा और सही दिशा मिल जाय तो वह अपने ही साधनों से अपनी समस्त सम्पदाएँ हल कर सकता है। अस्तु परमार्थ का केन्द्रबिन्दु ज्ञान-यज्ञ को ही माना जाना चाहिए।

उपरोक्त पाँच आध्यात्मिकशील जीवन-साधना के पाँच प्रमुख अंग समझे जाएँ और इन्हें जीवन-क्रम में उतारने के लिए सतत् प्रयत्न करते रहा जाय तो कुछ ही समय में सामान्य परिस्थितियों में रहते हुए भी आत्मिक दृष्टि से असामान्य एवं असाधारण बनना सम्भव होगा। हमारी जीवन-यात्रा सड़क पर चलते हुए लक्ष्य, पूर्ति के निकट स्थल तक जा पहुँची है। हम चाहते हैं कि अपने परिवार का प्रत्येक सदस्य इन्हें हृदयंगम करें। जीवन व्यवहार में उतारे। पंचकोशों के अनावरण का- पंचमुखी गायत्री साधना का- इसे उच्चस्तरीय प्रयास कहा जा सकेगा। ब्रह्म वर्चस् आरण्यक में अगले दिन विभिन्न स्तर की योग तप उपासनाओं का अभ्यास कराने के साथ-साथ इन पंचशीलों को अपनाने पर भी जोर दिया जायेगा और व्यक्तिगत स्थिति को देखते हुए यह बताया जायेगा और व्यक्तिगत स्थिति को देखते हुए यह बताया जायेगा और व्यक्तिगत स्थिति को देखते हुए यह बताया जायेगा कि इस मार्ग में किसे क्या कठिनाई आ सकती है और उसका निराकरण किस प्रकार सम्भव हो सकता है?

प्रातःकाल आँख खुलते ही “हर दिन नया जन्म” हर रात नई मौत” के स्वर्ण सूत्र का सघन आस्था के साथ निदिध्यासन करना चाहिए। उठते समय आत्मबोध और सोते समय तत्त्वबोध का चिन्तन, मनन नित्य का संध्या वन्दन समझा जा सकता है। इसमें फुरसत न मिलने जैसा कुछ बहाना करने की भी गुँजाइश नहीं है। आँख खुलते ही जीवन का महत्त्व, उद्देश्य, स्वरूप एवं उपयोग स्मरण किया जाय। इस अनुदान के पीछे ईश्वर की अपेक्षा तथा अपने कन्धे पर आई जिम्मेदारी को यदि समझा जा सके तो एक-एक क्षण का- क्षमताओं के एक-एक कण का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की बात ही सामने होगी। उठने से लेकर सोने तक के समय विभाजन, चिन्तन तथा सतर्कताओं का क्रम बना लेना चाहिए। उस निर्धारित कार्यक्रम पर दिन भर आरुढ रहना चाहिए। रात्रि को सोते समय, मृत्यु की गोद में जाने की स्थिति अनुभव करनी चाहिए। संन्यासी, वैरागी, निस्पृह खिलाड़ी की तरह निश्चित होकर सोया जाय। अपने मन का भार ईश्वर को सौंपकर सोने से चित्त कितना हलका और शान्त रहता है, उसकी दिव्य अनुभूति का लाभ हर दिन उठाना चाहिए।

आवाहन आमन्त्रण की उपेक्षा न करें-

दिसम्बर अंक में परिजनों से कुछ अपेक्षाएँ की गई है, जीवन के अन्तिम अध्याय में हम अपने घनिष्ठ आत्मीयजनों को कन्धों से कन्धा-कदम से कदम मिलाकर साथ-साथ चलते हुए देखने के इच्छुक हैं समय कम बचा और कार्य अधिक करने को पड़ा है। अच्छा होता इसमें वे लोग खुद हाथ बंटाते जिनकी परिस्थिति एवं मनःस्थिति इस योग्य है। वस्तुतः बात परिस्थिति की नहीं मनःस्थिति की है। मन हो तो साधन बन जाते हैं और अवसर निकल आते हैं। मन पर उपेक्षा छाई रहे तो समय न मिलने, आर्थिक तंगी पड़ने झंझट रहने आदि के हजार बहाने बने ही रहेंगे। जहाँ इच्छा होती है वहाँ रास्ता निकल आता है इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता। अगले दिन कितने महत्त्व के है इसे यदि समझा जा सके तो घरेलू झंझटों का समाधान में परिवार के अन्य लोग भी सहायता कर सकते हैं और अवकाश, अवसर, साधन बिलकुल भी न निकलने की आज जो स्थिति बनी हुई है उसका पलक मारते समाधान हो सकता है।

प्रतिभाशाली परिजन किस प्रकार क्या कुछ कर सकते हैं इसकी रूप-रेखा दिसम्बर अंक में मौजूद हैं प्रत्येक परिजन उसे बार-बार पढ़े ओर अपने आप से पूछे कि इस आवाहन आमन्त्रण की चुनौती को वह किस प्रकार किस हद तक स्वीकार कर सकते है? उससे क्या कुछ बन पड़ सकता है? उत्तर में अनेक ऐसी सम्भावनाएं उभर कर आवेंगी, जिनको अन्यमनस्क मन रहते कभी सम्भावना ही नहीं थी। आन्तरिक उत्साह जागने भर से ऐसे समाधान निकल सकते हैं जिनके सहारे नव-निर्माण के अति महत्त्वपूर्ण प्रयोजनों में अगले दिनों ऐसा कुछ कर सकना सम्भव हो सके, जिसे असाधारण, स्मरणीय, प्रशंसनीय, अनुकरणीय एवं ऐतिहासिक स्तर का समझा जा सके।

व्यक्तिगत भौतिक लाभों की तरह ही यदि आत्मिक कर्तव्यों को महत्त्व दिया जा सके तो व्यस्तता अभावग्रस्तता एवं कठिनाइयों की समस्या रहते हुए भी युग कर्तव्यों को पूरा करने के लिए कुछ न कुछ कर सकने का अवसर हर किसी को मिल सकता है। नव-निर्माण के लिए हमें क्या करना चाहिए इस सम्बन्ध में दिसम्बर अखण्ड-ज्योति के ‘अपनों से अपनी बात’ स्तम्भ में बसन्त पर्व का उद्बोधन भी पाक्षिक युग-निर्माण योजना में छपते रहे हैं। यदि उपेक्षा टूटे और श्रद्धा उमड़े तो हर व्यक्ति अपने लिए-नव निर्माण के लिए कुछ न कुछ कर सकने का मार्ग खोज सकता है।

प्रबुद्ध परिजन अपने सम्पर्क क्षेत्र पर नये सिरे से दृष्टिपात करें। छाई हुई उपेक्षा को श्रद्धा भरे उत्साह में परिणत करें। कर्त्तव्यों का उद्बोधन करने के लिए हमारे प्रतिनिधि के रूप में घर-घर जाने और जन-जन से सम्पर्क साधने का प्रयत्न करें। दिसम्बर की अखण्ड-ज्योति के ‘अपनों से अपनी बात’ तथा आवाहन आमंत्रण वाले पृष्ठ पढ़ने के लिए विशेष रूप से अनुरोध करें। इसके बाद चर्चा-परिचर्या में कुछ बदलने और कुछ करने का उत्साह उत्पन्न करें। यदि इतना बन पड़े तो अपने ही सम्पर्क क्षेत्र में अभिनव उत्साह उमड़ता देखा जा सकता है। साधना स्वर्ण-जयन्ती वर्ष के अन्त में अपने प्रत्येक प्रबुद्ध परिजन से हमें इस प्रकार उद्बोधन सम्पर्क के लिए एकाकी या टाली बाँधकर निकलने की अपेक्षा करेंगे।

महिला जागरण का शाखा संगठन-

एक सरल कार्य ऐसा ही इस युग की महती आवश्यकता की पूर्ति करने वाला होते हुए भी करने में अति सरल हैं महिला जागृति अभियान हमारे जीवन की अन्यतम साध है। इसमें युगान्तरीय चेतना सन्निहित है। व्यक्ति और समाज के बीच की कड़ी परिवार है। परिवार संस्था की काया-कल्प प्रबुद्ध नारी ही कर सकती है। घरों में स्वर्गीय वातावरण का सृजन, प्रखरता सम्पन्न नई पीढ़ी का निर्माण, सुयोग्य एवं स्वावलम्बी नारी के पुरुषार्थ से सक्तामुखी समृद्धि का अभिवर्धन, प्रगति रथ के दोनों पहियों का समानीकरण, लिंग भेद की अनीति, असमानता का निराकरण, आत्म -सम्पदा राम्पत्र वर्ग की नेतृत्व क्षमता का विकास जैसे अनेक अति-महत्त्वपूर्ण प्रयोजन नारी आन्दोलन से सम्बन्धित हैं। इस अभियान की सफलता के साथ नवयुग के अवतरण की सम्भावनाएँ पूरी तरह जुड़ी हुई हैं। हम चाहते हैं कि परिवार के प्रत्येक सदस्य की दिलचस्पी इस कार्य में हमारी ही तरह हों

इस दिशा में प्रथम किन्तु प्रमुख चरण यह हो सकता है कि हम लोग अपने घरों की महिलाओं को आगे करके उनका एक संगठन बना दें। उनमें से एक की कार्य संचालिका बना दें। उस संगठन की तब तक पूरी-पूरी देखभाल करें जब तक कि उनके साप्ताहिक संगठनों का क्रम ठीक प्रकार व्यवस्थित रूप से न चलने लगें। परस्पर मिलने, जुटने से घनिष्ठता बढ़ती हैं, शक्ति उत्पन्न होती हैं और उन रचनात्मक कामों का आधार बनता है। जो नारी जागरण की दृष्टि से नितान्त आवश्यक हैं। इस सन्दर्भ सदस्यता के आवेदन-पत्र प्रमाण-पत्र सदस्यों के टिन बैज, शाखा का साइन बोर्ड, शाखा संचालन की कार्य-पद्धति तथा अन्य उपयोगी पुस्तकें तथा वस्तुएँ हरिद्वार एवं मथुरा से मंगाई जा सकती हैं।

जहाँ भी युग-निर्माण शाखाएँ हैं- जहाँ भी अखण्ड ज्योति के दस सदस्य हैं- वहाँ महिला जागरण अभियान की शाखा अत्यन्त सरलतापूर्वक स्थापित हो सकती हैं। आन्दोलन को आरम्भ करने से लेकर उसे आगे बढ़ने तथा प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँचने का मार्ग-दर्शन “महिला जागृति अभियान” मासिक पत्रिका में बराबर प्रकाशित होता रहता है। पत्रिका शान्ति कुंज हरिद्वार से छपती हैं और वार्षिक चन्दा 6) मात्र हैं। जहाँ वह अभी तक न पहुँचती हो वहाँ माँगना आरम्भ किया जाय और महिला जागरण आन्दोलन को अग्रगामी बनाने के लिए -व्यवहारिक मार्ग -दर्शन प्राप्त किया जाय।

फरवरी की महिला जागृति अभियान पत्रिका को संगठन अंग के रूप में छापा जा रहा है॥ इस अभियान को अपने परिवार से आरम्भ करके देश-व्यापी विश्व -व्यापी बनाने के लिए हमें क्या सोचना और क्या करना चाहिए? इस दिशा में आवश्यक मार्ग-दर्शन इस अंग में दिया जा रहा हैं। उसे ध्यानपूर्वक पढ़ा और पढ़ाया जाय- तो यह रूप रेखा सहज ही मस्तिष्क में प्रेरक फिल्म की तरह भ्रमण करेगी, जिसमें थोड़े से प्रयत्न से इस महान् कार्य में महत्त्वपूर्ण योगदान करने की रूप रेखा सामने होगी। जो लोग अभी तक महिला पत्रिका के सदस्य न बने हो वे शान्ति -कुंज उसका चन्दा भेजकर अपनी सदस्यता चालू करा लें आन्दोलन के स्वरूप और मार्गदर्शन को परिजनों के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए इस पत्रिका का शुभारम्भ किया गया हैं। महिला जागरण शाखा का गठन-नारी उत्कर्ष की हलचलों का आरम्भ एक ऐसा कार्य समझा जायेगा जिसे स्वर्ण जयन्ती वर्ष का स्मारक स्तम्भ कहा जा सकें। जहाँ भी स्वर्ण जयन्ती वर्ष के लिए उत्साह रहा हो वहाँ उसकी स्मृति को चिर स्थायी बनाने के लिए महिला संगठन खड़ा कर देने और उसे चलाने रहने की ठोस योजना बनाने के रूप में श्रद्धा की अभिव्यक्ति होनी चाहिए।

साधना स्वर्ण जयन्ती का आयोजन परक स्वरूप उत्साहवर्धक रीति से सम्पन्न हो गया। अब उसके प्रकाश एवं प्रभाव को रचनात्मक दिशा में लगाने में प्रबल प्रयत्न किया जाना चाहिए। (1)उपासना में सघन श्रद्धा, उसके लिए नित्य समय लगाने का निश्चय (2) जीवन साधना के पंचशीलों का पालन (3) दिसम्बर अखण्ड ज्योति के आह्वान आमन्त्रण एवं अपनों से अपनी बात को अपने लिए व्यक्तिगत सब मानकर कुछ करने का साहस (4) अपने संपर्क क्षेत्र में इस प्रेरणा का विस्तार। उपेक्षा को उत्साह में परिवर्तन करने के लिए जन-संपर्क का कार्य क्रम (5) महिला जागरण शाखा संगठन का आरम्भ और उसे अग्रगामी बनना। यह पाँचों कार्य करने के लिए इस बसन्त पर्व पर हमारा विशेष आग्रह हैं इस दिशा में जो जितना कर सकें उसकी सूचना शान्ति-कुँज पहुँचा दें।


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