ऊँचा उठने की आकाँक्षा और उसकी पूर्ति।

February 1977

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ऊँचा उठना-आगे बढ़ना जीव का स्वभाव है। उसका प्रगति क्रम इसी आधार पर चला है। पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचाने में ही प्रवृत्ति प्रेरणा बनकर काम करती और क्रमशः आगे-आगे धकेलती है। एक कोशीय जीवाणु से लेकर विशालकाय और बुद्धिमान प्राणियों तक की प्रगति यात्रा में जहाँ प्रकृति-प्रक्रिया सहायक रही है वहाँ चेतना के साथ जुड़ी हुई अग्रगामी प्रवृत्ति का योगदान भी कम नहीं रहा है।

अग्रगमन की यह मूल प्रवृत्ति न तो त्याज्य है और न हेय। गड़बड़ी तब पड़ती है, जब उस असन्तोष को पूरा करने के मार्ग और प्रकार के चुनाव में भूल होती है। भटका हुआ पथिक सारे दिन चलते रहने पर भी थकान के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त नहीं करता, कई बार तो वह इस दिग्भ्रान्ति के कारण आगे बढ़ने की अपेक्षा और पीछे चला जाता है भूल-भूलैयों में उलझा हुआ मनुष्य अपने परिश्रम को सार्थक कहाँ कर पाता है और जहाँ पहुँचता था। उधर प्रगति कहाँ हो पाती है।

महत्त्वपूर्ण प्रश्न उस चुनाव का है जिसके आधार पर आगे बढ़ने और ऊँचे बढ़ने और ऊँचे उठने में से एक की प्रधान और दूसरे को गौण मानकर चलना होता है। आमतौर से मानवी चेतना का व्यवहार भौतिक पदार्थों से पड़ता है। इन्द्रियाँ उन्हीं में उलझी रहती है। और शरीर को पदार्थों के उपभोग और व्यक्तियों के सहयोग से ही अपनी गाड़ी आगे चलानी पड़ती है। अस्तु उसका अपना आप इसी बहिरंग में रंग और खप जाता है। वह अपने आप को भी पदार्थ मानने लगता है और सोचता है कि असन्तोष की तृप्ति के लिए भौतिक साधन सामग्री को अधिक मात्रा में जुटाने की आवश्यकता है। यहाँ मात्रा के साथ -साथ स्तर बढ़ाने की भी आवश्यकता अनुभव होती है। कारण कि उससे दूसरों की तुलना में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का अवसर मिलता है। दूसरे लोग सस्ता कपड़ा पहनते हैं, इनकी तुलना में यदि अपनी स्थिति महँगाई वस्त्र पहनने की है तो उसका प्रदर्शन करने से मन को बड़प्पन का आभास होगा, फलतः अग्रगमन की अनुभूति से उतनी तृप्ति मिलेगी। अमीरी के प्रदर्शन इसीलिए होते हैं। ठाट-बाट इसीलिए रोपे जाते हैं। सस्ते में गुजर हो सकना सम्भव और सरल है, पर लोग उपयोगिता की दृष्टि से नहीं अहंता की पूर्ति के लिए महँगे सरंजाम इकट्ठे करते हैं।उनकी मात्रा का अधिक होना, अधिक धनी होने का चिन्ह है। इस मान्यता के कारण अमीरी का प्रदर्शन करते के लिए अनेक तरह की पोशाकें रखी और बदली जाती है। आभूषण, श्रृंगार, साधन आदि की साज-सज्जा में उपयोगिता का नहीं अहंता के परिपोषण का ही भाव रहता है।

विलासी अपव्यय का अर्थशास्त्र की दृष्टि से कोई समर्थन नहीं हो सकता। स्पष्ट है कि श्रृंगार-सज्जा एवं ठाट-बाट रोपने में जो धन खर्च होता है उससे स्वास्थ्य को कदाचित् ही कोई लाभ पहुँचता हो। फिर भी लोग उस पर अनाप-शनाप खर्च करते रहते हैं। विवेक सहज ही यह निर्णय देगा कि इस अपव्यय को रोक कर उस धन का ऐसा सदुपयोग हो सकता है जिससे अपने-अपने सम्बन्धित व्यक्तियों की वे आवश्यकता पूरी की जा सकती है जो व्यक्तित्वों की सर्वतोमुखी प्रगति के लिए आवश्यक है। किन्तु आमतौर से विवेक दबा रहता है और अहंता के उभार खर्चीले ठाट-बाट इकट्ठे करने की प्रेरणा देते रहते हैं संग्रह की वृत्ति के मूल में भी यही कारण काम करता है। आवश्यकता पड़ने पर संग्रह से सेहत ही सुविधाएँ पाई जा सकती है, यह पक्ष संग्रह का समर्थन करता है, पर उससे प्रेरित होकर नहीं, अमीरी इसलिए बढ़ाई जाती है कि दूसरों की तुलना में अपनी अधिक सफलता का प्रदर्शन करके-साथियों पर छाप डालने और अपने अहंता को सन्तोष देने का अवसर मिले।

मनुष्य अपने को शरीर भाव में अत्यधिक गहराई से ओत-प्रोत कर लेता है, इसीलिए उसके अग्रगमन की दिशा भी पदार्थों के संग्रह एवं उपभोग को बढ़ाती जाती है। वासना और तृष्णा के रूप में ही यह आकाँक्षा उभरी रहती है। उसी के लिए सिर तोड़ परिश्रम किया जाता है। स्थिति के अनुरूप सफलता भी मिलती है। पर कठिनाई एक ही है कि उससे तृप्ति नहीं मिलती। आग पर ईंधन पड़ते जाने से लपटें और भी अधिक तीव्र होती है। इसी प्रकार गरीबी से अमीरी की ओर बढ़ते चलने पर भी राहत नहीं मिलती। अतृप्ति और बेचैनी का समाधान होना तो दूर और उलटे सफलताओं के साथ-साथ अतृप्ति का दौर बढ़ता चला जाता है गरीबी से अधिक असन्तुष्ट अमीर पाये जाते हैं।

उपयोगिता का जहाँ तक सम्बन्ध है वहाँ हर व्यक्ति के उपयोग की एक सीमा है, उससे अधिक मात्रा का प्रयोग भी नहीं हो सकता। संग्रह पड़ा रहता है और बढ़ता रहता है उसे देखकर अपनी सफलता पर गर्व तो किया जा सकता है पर उपभोग नहीं हो सकता। उसे उत्तराधिकारी मुक्त की लूट की तरह प्राप्त करते हैं। स्पष्ट है कि जिसे कठोर परिश्रमपूर्वक कमाया नहीं गया है उसके उपभोग का सही तरीका भी विदित नहीं होता। हराम की कमाई दुर्व्यसन में ही नष्ट होती देखी गई है। यही कारण है कि अमीरों की सन्तानें आमतौर से अपव्ययी होती है। और उत्तराधिकार में मिले प्रचुर धन को अपव्यय में नष्ट करने के साथ-साथ अपने व्यक्तित्व को भी नष्ट करती पाई जाती है।

जब तक नैतिक मर्यादाओं में भौतिक बड़प्पन बना रहता है तब तक उसे स्वार्थ-परता तो कहा जा सकता है, पर उससे कोई बड़ा विग्रह उत्पन्न नहीं होता। व्यक्त स्वयं कमाता, खाता और इतराता, इठलाता रहता है। किन्तु जब यह ललक आतुरता बन जाती है और सामाजिक मर्यादाओं को चुनौती देने लगती है तब यह अपराधों का रूप धारण करती हैं लोभ के लिए छल से लेकर हत्या तक के कुकर्म किये जाने लगते हैं। इन्द्रिय भोग के लिए नैतिक और सामाजिक मर्यादाओं को उठाकर ताप पर रख दिया जाता है। तथा अहंता प्रदर्शन के लिए उद्दण्डता, उत्पीड़न अनेक आततायी कृत्य किये जाने लगते हैं। नर-पशु से भी नीचे उतर कर नर-पिशाच के रूप में मनुष्य को अनर्थरत होते ऐसी ही स्थिति में देखा जाता है।

यह भी उन्नति का क्रम है पर दिशा उसकी पतनोन्मुख है इसकी प्रतिक्रिया आत्म-प्रताड़ना से लेकर सामाजिक दण्ड भुगतने और सम्पर्क क्षेत्र में अविश्ररत घृणित समझे जाने के रूप में सामने आती है। ऐसी उन्नति को अवनति या पतन कह सकते हैं गिरने की भी एक दिशा है चला तो उस पर भी जा सकता है, पर उससे वह लाभ नहीं मिल सकता जिसे प्राप्त करने के लिए अन्तःकरण में अग्रगामी और गौरवशाली बनने की ललक उठती है। यदि सीमा में रहकर भी भौतिक उन्नति करते रहा जाय तो उससे मात्र शरीर सुख मिल सकता है मन की अहंता की आँशिक पूर्ति हो सकती है अथवा सम्पर्क क्षेत्र के लोगे को मुफ्त की सम्पत्ति मिलने का लाभ मिल सकता है। जहाँ तक जीवात्मा की मूलसत्ता को परिष्कृत बनने का प्रश्न है वहाँ तक उस सारे प्रयास से कोई परिणाम नहीं निकलता। सुरदुर्लभ कहा जाने वाला मनुष्य जीवन व्यर्थ की विडम्बनाओं में भटकते हुए ऐसे ही नष्ट हो जाता है। क्या खोया? क्या पाया का हिसाब लगाने पर जीवन के अन्तकाल में यही पश्चाताप रहता है कि जीवन-लक्ष्य की पूर्ति का स्वर्णिम अवसर ऐसे ही हाथ से निकल गया।

फिर जीवात्मा की वह मूल-भूत प्रवृत्ति किस प्रकार चरितार्थ एवं सार्थक हो जिसे पूरा करने के लिए अन्तः क्षेत्र में अनवरत रूप से उत्कण्ठा उठती रहती हैं इसका उत्तर प्राप्त करने से पूर्व अपनी स्थिति पर विचार करना होगा ओर ‘स्व’ को शरीर नहीं आत्मा के रूप में देखना होगा। शरीर सुख से आत्मिक आनन्द को भिन्न माना जा सकें तो वह दिशा मिलेगी जिस पर चलते हुए आत्मोत्कर्ष का प्रकाश मिलता है। शरीर उपकरण एवं वाहन है। उसकी सुरक्षा और समर्थता के लिए जितने साधनों की आवश्यकता है उतने जुटाने में भौतिक उपार्जन को सीमाबद्ध किया जाय और बची हुई क्षमता का उपयोग अन्तरात्मा का स्तर ऊँचा उठाने में किया जाय तो बात बने। जीवन नीति में इस प्रकार सुधार परिवर्तन करने से दृष्टिकोण परिष्कृत होता है और उस आधार पर वह सूझ-बूझ विकसित होती हैं जो आत्मिक प्रगति के लिए आवश्यक है। उस स्थिति में अमीरी नहीं महानता जीवन लक्ष्य बन जाती है और उसी के लिए किये गये प्रयासों की सार्थकता प्रतीत होती है।

आगे बढ़ना’ भौतिक प्रगति के अर्थ में समझा जा सकता है और ऊँचा उठना आत्मिक उन्नति के अर्थ में प्रयुक्त होना चाहिए। शरीर को वस्तुएँ चाहिए। अनुकूल व्यक्तियों का सम्पर्क तथा सुविधाजनक परिस्थितियाँ चाहिए। यह सब सुयोग मिलते रहना और उनका स्थिर बने रहना सम्भव नहीं। संसार चक्र अपने ढंग से चलता है उसमें इस बात को कोई निश्चय नहीं कि व्यक्त की मनःस्थिति के अनुकूल ही परिस्थितियाँ बनी रहेगी। प्रतिकूलताओं और असफलताओं और सफलताओं के। ऐसा दशा में प्रसन्नता एवं तृप्ति भौतिक सम्पन्नता को आधार मानकर चलने पर न तो सम्भव हो सकती है और न स्थिर रह सकती है। फिर एक कठिनाई यह भी है कि जितने सुख-साधन मिलते हैं, वे क्रमशः अपर्याप्त लगने लगते हैं और अधिक मात्रा तथा अधिक ऊँचे स्तर की ललक उठने लगती है। और असन्तोष घटने की अपेक्षा उलटा बढ़ता ही चला जाता है उपलब्धियाँ एवं सफलताएँ कितनी ही बढ़-चढ़ क्यों न हो तो भी तृष्णा की तुलना में कम ही रहेगी और व्यक्ति सदा अपने को अभावग्रस्त ही अनुभव करता रहेगा

शरीर को सुविधा-मन को अहंता चाहिए। इनका उचित रीति से परिपोषण आत्मिक उत्कृष्टताओं के लिए प्रयत्नशील रहने पर भी सम्भव हो सकता है। महामानव न तो भूखे-नंगे रहे हैं और न श्रेय, सम्मान की कमी रही है। लोलुप और मोहग्रस्त व्यक्ति जितना श्रेय,संतोष उपलब्ध कर पाते हैं उसकी तुलना में आत्मिक प्रगति की दिशा में बढ़ने वाले व्यक्ति घाटे में नहीं, लाभ में ही रहते हैं।

आत्मा चेतन है, उसकी प्रगति सम्वेदनाओं, सद्भावनाओं एवं शुभेच्छाओं के रूप में ही सम्भव हो सकती है। आत्मिक सम्पदा है, इसी को प्राप्त करके व्यक्ति की मूलसत्ता, परिष्कृत और सन्तुष्ट होती है। गुण, कर्म, स्वभाव में श्रेष्ठता के सतोगुणी तत्त्व जितने बढ़ते जाते हैं उसी अनुपात से आत्मिक प्रगति का मूल्याँकन किया जा सकता है।

धन उपार्जन, इन्द्रिय उपभोग एवं अहंता प्रदर्शन में जितनी शक्ति लगाई जाती है, इससे आधी भी यदि अपने चिन्तन ओर क्रिया-कलापों में समाये हुए कुसंस्कारों के उन्मूलन तथा सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में लगाई जाय तो वह आत्म-निर्माण का प्रयास तथा व्यक्तित्व में काया-कल्प प्रस्तुत कर सकने वाली चमत्कारी सिद्ध हो सकती है। आत्मिक विभूतियों को बढ़ाने के लिए ऐसे कर्म करने पड़ते हैं जिन्हें परमार्थ एवं जन-कल्याण के नाम से जाना जाता है ऐसे कार्यों में रुचि लेने-समय श्रम एवं चिन्तन लगाने से लगता है, पर कुछ ही समय में प्रतीत होने लगता है कि यह घाटा उच्चस्तरीय लाभ प्राप्त करने की भूमिका भर था। बीज के गलने में आरम्भिक घाटा भर है कुछ ही समय में वह अंकुर पौधा और वृक्ष बनकर जल फलता-फूलता है तो उससे विशाल आकार एवं वैभव को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि यह आरम्भिक त्याग भावी उत्कर्ष का आधार सिद्ध हुआ ओर इसका आयोजन दूरदर्शी बुद्धिमत्ता सिद्ध हुआ।

आत्मोत्कर्ष के लिए विशिष्ट उपचार रूप से किन्हीं योगाभ्यासों की आवश्यकता हो सकती है और जीवन-क्रम के क्रान्तिकारी परिवर्तन करने के लिए उन्हें भारी उलट-पुलट के लिए उपयोगी कहा जा सकता है, पर मात्र इतने भर से ही काम नहीं चल सकता। करना यह होता है कि सामान्य जीवन-चक्र के प्रत्येक क्रिया-कलाप से उत्कृष्ट आदर्शवादी सिद्धान्तों का समावेश किया जाता रहे। दैनिक जीवन में निर्वाह एवं कौटुम्बिक उत्तरदायित्वों के लिए लोगों को जो करना पड़ता है उसे योग-साधना माना जाय और इसी क्रिया-कलाप में उत्कृष्ट आदर्शवादिता को सँजोये रखने का अभ्यास किया जाय। आरम्भ में यह अभ्यास कुछ कठिन, जटिल और असुविधा उत्पन्न करने वाला लगता है पर जब उसकी आदत पड़ ताजी है तो प्रतीत होता है कि आदर्शवादी जीवन कितना सरल और कितना सुखद है।

उत्कर्ष की मूलभूत प्रवृत्ति शारीरिक नहीं आत्मिक है। उसे भौतिक साधनों से नहीं आन्तरिक सद्भावनाओं के संवर्द्धन से पूरा किया जा सकता है। इसका मार्ग-दर्शन दिव्य आलोक के सहारे ही सम्भव हो सकता है चारों ओर घिरे हुए पशु-प्रवृत्तियों के वातावरण की धुन्ध में कर्तव्य-अकर्तव्य का कुछ बोध ही नहीं हो पाता। आदर्शवादिता कल्पना-लोक की ऐसी उड़ान भर लगता है, जिसका कहना सुनना भर पर्याप्त है, उसे कार्यान्वित किया जा सकना शक्य नहीं। यही वह भ्रान्ति है जिसके कारण अध्यात्म की उत्कृष्टता को व्यावहारिक जीवन में उतारते नहीं बनता। इसके लिए ऐसे स्वाध्याय की आवश्यकता पड़ती है। जो जीवन-क्रम में उत्कृष्टता के समावेश का क्रान्तिकारी आधार खड़ा कर सकें। दुर्भाग्य से अध्यात्म और धर्म-क्षेत्र में भी शास्त्रों के नाम पर ऐसा जाल-जंजाल भी उपलब्ध होता है जो स्पष्ट दिशा निर्देश करने की अपेक्षा उलटे भ्रान्तियों में उलझा देता है। इसी प्रकार सत्संग के नाम पर होती रहने वाली बकवास को प्रगतिशीलता के स्थान पर प्रतिगामिता के पत्थर गले से बँध जाते हैं। इतने पर भी यदि जाँच-परख की कसौटी हाथ में हो तो साहित्य अथवा व्यक्तियों के माध्यम से ऐसा परामर्श मार्ग’दर्शन मिल सकता है जो जीवन समस्याओं को सुलझाने और उत्कृष्टता की दिशा में सही रीति से बढ़ चलने का उपयुक्त मार्ग-दर्शन कर सके।

आदर्श और व्यवहार में रहने वाले अन्तर की खाई पाटने के लिए एकान्त में शान्त-चित्त से मनन, चिन्तन किया जाना चाहिए। यह आत्म-निरीक्षण जितना गहरा होगा उतने ही ऐसे तथ्य उभर कर आवेंगे, जिन पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है परिशोधन की आवश्यकता समझी जा सके और उसके सत्परिणामों का मूल्यांकन किया जा सके तो पुरानी अभ्यस्त अवाँछनीयताओं के विरुद्ध संघर्ष करने की साहसिकता जाग सकती है। इस प्रकार के देवासुर संग्राम को आत्मोत्कर्ष का प्रथम चरण माना गया है। गीता में जिस महाभारत को वर्णन किया गया है और अर्जुन को जिस युद्ध में प्रवृत्त किया गया है वह वस्तुतः अन्तःक्षेत्र में घुसी हुई अवांछनीयता के उन्मूलन में प्रवृत्त शौर्य, साहस ही कहा जा सकता है यह स्थिति बन पड़े तो समझना चाहिए कि अवरोधों को चीर कर ऊँचाई की ओर अग्रसर हो सकने का आधार उपलब्ध हो गया।

जीवन निर्वाह के क्रिया-कलाप प्रायः सामान्य ही होते हैं। ऐतिहासिक महत्त्व की घटनाएँ तो कभी-कभी किसी-किसी के ही सम्मुख आती हैं उनकी प्रतीक्षा में बैठे रहने अथवा चौंकाने वाले उद्धत कर्म करने की आवश्यकता नहीं समझी जानी चाहिए। सामान्य जीवन-अनैतिक कृत्यों में संलग्न नहीं है, इतना ही ध्यान रखना पर्याप्त है। फिर परिस्थिति वश जिस प्रकार का जीवनयापन करना पड़ रहा है उसी के कृत्यों में आदर्शवादी, चिन्तन एवं व्यवहार का पुट लगाते चलने से बात बन जाती हैं सामान्य कामों के कर्मयोग बनाया जा सकता है यदि उनमें उद्देश्य, स्वरूप, चिन्तन एवं व्यवहार का उच्चस्तरीय समावेश किया जाय। महत्त्व क्रिया का नहीं, उसके पीछे काम करने वाली मनोवृत्ति एवं विचारणा का है। यदि सदुद्देश्य रखकर शालीनता पूर्वक सामान्य समझे जाने वाले कृत्यों में भी संलग्न रहा जाय तो आत्मोत्कर्ष का द्वार खुला रह सकता है और उस पर चलते हुए चरम लक्ष्य तक पहुँच सकना सम्भव हो सकता है।

सदुद्देश्य ओर सत्कर्मों के समन्वय से जो भावनात्मक प्रतिक्रिया होती है- उसे सुसंस्कार कहते हैं यह सुसंस्कार ही वह सम्पत्ति है। जिन्हें उपार्जित करने पर अन्तरात्मा को अपना वैभव और वर्चस्व बढ़ता हुआ प्रतीत होता है। आत्मोत्कर्ष का यही सरल और सीधा मार्ग है। इस पर चलते हुए उस महानता का वरण किया जा सकता है जिससे ऊँचा उठने के साथ-साथ आगे बढ़ने का भी, रसास्वादन हर घड़ी मिलते रहना सम्भव हो सके।


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