दुःख में गम्भीर-शान्त रहने वालों के प्रति सभी के मन में श्रद्धा-आदर का भाव जगता है। चीखने-चिल्लाने वालों के प्रति भी ध्यान आकर्षित होता ही है, सहानुभूति भी व्यक्त की जाती है पर मुख्यतः उसे दयनीय ही माना जाता है अधिक रोने-धोने वालों से तो घृणा ही करने लगते हैं। इसलिए मनुष्य की शोभा तो इसी में है कि वह साहसपूर्वक परिस्थितियों का सामना करे, उन्हें बदलने का प्रयत्न करे और प्रशान्त-गम्भीर बना रहे सुख ओर दुःख की कुछ अनुभूतियाँ तो परिस्थितियों के स्पष्ट प्रभाव की प्रतिक्रिया होती है- जैसे शारीरिक पीड़ाएँ , प्रकृति उत्पीड़न, जीवन-यापन के न्यूनतम के न्यूनतम साधनों का भी अभाव तथा प्रियजनों का आकस्मिक विछोह। ये आपत्तियाँ कभी-कभी सहनी पड़ती है। इनका प्रभाव तो होता ही है। पर उसे भी गम्भीरतापूर्वक सहने में ही शोभा और गरिमा है। शेष अधिकांश सुख-दुःख में ही शोभा और गरिमा है। शेष अधिकांश सुख-दुःख तो मनःस्थिति पर निर्भर रहते हैं। और उनके लिए साहस की ही नहीं , स्वस्थ जीवन-दृष्टि की आवश्यकता होती है।
वास्तविक विपत्तियों का सामना साहस द्वारा ही किया जाता है। विपत्तियों के निवारण और संकटों में उपचार के लिए सामान्य से अधिक ही बुद्धि-कौशल की, सूझ-बूझ की आवश्यकता पड़ती है। साहस ही खो दिया, तो अपेक्षित सूझ-बूझ सम्भव नहीं हो सकती। उपलब्ध साधनों के भी उपयोग की ओर ध्यान नहीं जा पाता। साहस हो तो साधन भी जुट जाते हैं।
साहस ही व्यक्तिगत की वास्तविक सर्वप्रधान पूँजी है। सत्कर्म ही नहीं, दुष्कर्म भी साहस के बिना सम्पन्न नहीं हो पाते। निश्चय ही दुष्कर्मी समयानुसार अपने दुष्कृत्यों का दण्ड पाते हैं, पर जो क्षणिक सफलता के प्राप्त करने है, वह साहस के बल पर ही।
आपत्तियाँ किस पर नहीं आती? महापुरुषों का जीवन तो आपत्तियों-प्रतिकूलताओं से संघर्ष की ही गधा होती है। वे उनमें साहस और धैर्य से उत्तीर्ण होकर ही अपनी छाप इतिहास में छोड़ जाते हैं। साहस ही उनके व्यक्तित्व को उस चुम्बकीय शक्ति से सम्पन्न बनाता है ,जिससे संकटों से मुक्ति दिलाई
विपत्तियों के पीछे ईश्वरीय अनुग्रह छिपा होता है, अनेक ऐतिहासिक घटनाओं से यह निष्कर्ष भी प्राप्त होता है। सन्मार्गगामी जब अपने महत् लक्ष्य के लिए संकट सहते हैं, तो अनेक मौकों पर उन्हें दैवी सहायता मिलती भी सदा स्पष्ट देखी जाती है। इतिहास-पुराणों में इसके असंख्य उदाहरण भरे पड़े है। असम्भव प्रतीत होने वाले कार्यों को करने के लिए संकल्पित-समर्पित महापुरुषों को ईश्वरीय अनुग्रह सदैव ही मिलता रहा है और उसी के आधार पर साधन शून्य स्थितियों तथा प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच वे आगे बढ़ते और सफल होते हैं।
महापुरुषों के विशेष पराक्रम की बात, यदि रहने भी दें, तो भी सामान्य जीवन-क्रम भी साहस के बिना भारभूत हो उठता है। दुःख उपस्थित होते ही आकुल-उद्विग्न हो उठने पर परिस्थितियाँ गंभीरतम हो जाती है। प्रतिकूलताएँ अनियंत्रित रही आती है तथा कष्ट बढ़ता ही जाता है। धैर्य बना रहा तो बड़ी से बड़ी आपत्ति में से मार्ग मिल ही जाता है। संघर्ष से प्राप्त अनुभवों का अमूल्य लाभ अलग से हाथ लगता है और अपने व्यक्तित्व की पूँजी बढ़ ही जाती है, घटती तनिक भी नहीं। इसके विपरीत, अधीर, कायर व्यक्ति विपत्तियों के प्रहार से तो क्षतिग्रस्त होते ही है, साथ ही उस क्षति से उनका भय और बढ़ जाता है, मनोबल में और कमी आ जाती है।, तथा और बढ़ जाता है, मनोबल में और कमी आ जाती है। तथा सभी और से वे घाटे में ही रहते हैं। साहस विहीन जीवन में न तो ऊष्मा होती है न ही गरिमा।