अदूरदर्शिता की महाव्याधि से पीछा छुड़ायें।

February 1977

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इन्द्रियों की संरचना कुछ इस प्रकार हुई है कि वे समीपवर्ती चीजों को ही देख, समझ सकती है। जो उनके स्पर्श, संपर्क की परिधि में आता है वही उन्हें विदित होता है और उतनी ही जानकारी से मस्तिष्क परिचित रहता है। इस सीमाबद्धता के कारण व्यक्ति चेतना को समीपवर्ती व्यक्तियों और वातावरण से घिरा रहना पड़ता है। फलतः यही सीमा बन्धन अभ्यास में आ जाता है और मनुष्य का चिन्तन, स्वभाव एवं मनोरथ उतने तक ही सीमित बनकर रह जाता है। यह स्थिति शरीर निर्वाह के कामचलाऊ प्रयोजन तो पूरे कर देती है, पर जीवन महत्त्वपूर्ण समस्याओं को सुलझाने एवं प्रगति का पथ-प्रशस्त करने में असफल रहता है।

समीपवर्ती वातावरण की घेराबंदी और तात्कालिक प्रत्यक्ष लाभ को ही लाभ समझने की मनःस्थिति को विचारशील लोगों ने निन्दनीय ठहराया है। संकीर्णता एवं अदूरदर्शिता कहकर उसकी निन्दा की है। बाल-बुद्धि इसी प्रकार की होती है। बच्चे तात्कालिक इच्छापूर्ति के लिए मचलते हैं, उनके इतना विवेक नहीं होता कि जिसके लिए मचल रहे हैं वह परिणामतः हानिकारक तो सिद्ध नहीं होगा। विकसित चिन्तन एवं संग्रहित अनुभव के आधार पर ही दूरगामी परिणामों के सम्बन्ध में सोचा जा सकता है वे साधन जिसके पास जितने कम होंगे वह भावी परिणामों के सम्बन्ध में उतना ही अनजान बना रहेगा। तात्कालिक इच्छाएँ लोलुपता की तरंगें भी होती है। वे कभी-कभी आँधी-तूफान की तरह उठती है। इनमें से अनेकों अशोभनीय और अवांछनीय होती है। इतने पर भी उनमें प्रबलता रहती है। और वेग इतना रहता है कि दूरगामी परिणामों के बारे में सोच सकना भी कठिन पड़ जाता है। लिप्साएँ और ललकें मनुष्य के विवेक पर हावी होती देखी गई है और उस छाये उन्माद में ऐसे काम हो जाते हैं जिन्हें अनर्थ ही कहा जा सकता है। उसके दूरगामी दुष्परिणामों पर पीछे पश्चाताप की पश्चाताप हाथ रह जाता है। ऐसी उठक-पटक छोटे रूप में प्रायः होती रहती है और बड़े रूप में कभी-कभी दुर्घटना का रूप धारण कर लेती है ऐसे ही प्रसन्न मनुष्य जीवन को विकृत, विनष्ट, हेय और असफल बनाने के लिए पर्याप्त होते हैं।

सुव्यवस्थित, सुसंस्कृत और समुन्नत जीवन जीने की आकाँक्षा जिन्हें भी हो, उन्हें अपनी दूरदर्शिता को जगाना चाहिए, विवेकशीलता को उभारना चाहिए। आज कि क्रिया का कल क्या परिणाम होगा? इसे स्थिर चित्त से समझ सकने की क्षमता को बुद्धिमानी कहते हैं। मूर्ख वे है जो उठती ललकों को ही सब कुछ समझ लेते हैं और उन्हीं के पीछे दौड़ना आरम्भ कर देते हैं। एकाँगी चिन्तन की आदत से बढ़ कर व्यक्ति के लिए दुःखद दुर्भाग्य दूसरा नहीं हो सकता। जो सोचा या चाहा जा रहा है उसमें कितना औचित्य है? इस मार्ग पर चलने से कोई खतरा तो नहीं है? यह पगडंडी कही कँटीली झाड़ियों में तो नहीं भटका देगी? ऐसी आशंकाएँ मन में न उठें और जो भी भली-बुरी उमंग जी में उठे उसी को चरितार्थ करने को मन मचलने लगे तो समझाना चाहिए अनिष्ट की घटाएँ सिर पर घुमड़ रही है और विपत्ति के बादल बरसने ही वाले है। दुष्प्रवृत्तियाँ अनेकों है और उनके दुष्परिणाम भी सर्वविदित है किन्तु यह अनुभव नहीं किया जाता कि निर्दोष दीखने वाली अदूरदर्शिता से बढ़कर अन्य कोई अभिशाप मनुष्य के लिए हो नहीं सकता। यह ऐसा दुर्भाग्य है जिस अपने हाथों की गढ़ा और अपने ही सिर पर पटका जाता है। अपने हाथों अपनी कुल्हाड़ी अपने पैरों में मरने वाली कहावत अदूरदर्शिता के सम्बन्ध में ही पूरी तरह चरितार्थ होती है।

चिन्तन की परिपक्वता एवं प्रौढ़ता की परख इस आधार पर होती है कि आज की गतिविधियों के परिणाम भविष्य में क्या हो सकते है? खुली आँखों से स्वल्प सीमा तक ही दृश्य दीख पड़ता है यदि बहुत दूर की वस्तुएँ देखनी हों तो दूरबीन का सहारा लेना पड़ता है। उस उपकरण से दूरवर्ती दृश्य दीखने लगते हैं और जो सामान्यतः अविदित था, उसकी प्रत्यक्ष जानकारी मिल जाती है। जिसके उपयोग से लगता है कि दूरबीन कितना महत्त्व पूर्ण उपकरण है।युद्ध क्षेत्र में शत्रुओं की गतिविधियों पर नजर रखने और अपनी मोर्चाबन्दी सही बनाने के लिए इस दूरदर्शन से बड़ी सहायता मितली है। ठीक इसी प्रकार आज के कदम कल क्या परिणाम उत्पन्न करेंगे? इसकी सम्भावना को समझ सकने की क्षमता विकसित होने से गतिविधियों का सही निर्धारण सम्भव हो जाता है कहना न होगा कि मंगलमयी सभी सफलताएँ दूरदर्शिता की रीति-नीति अपनाने का ही परिणाम होती है। बालकों की तरह जो भी आकर्षक लगे उसी के लिए मचल पड़ना- आगा पीछा न सोचना-ऐसा दुःस्वभाव है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति का अपार हानि उठानी पड़ती है।

हमारे चिन्तन में विवेक को स्थान मिलना चाहिए। औचित्य की कसौटी पर कसने के पश्चात् ही किसी इच्छा का समर्थन करे और उसे कार्यान्वित करने के लिए तभी कदम उठाये जब हर दृष्टि से ठोक-बजाकर यह देख लिया जाय कि जो किया जा रहा है। उसमें उज्ज्वल भविष्य की संभावनाएँ पूरी तरह सन्निहित है। इसके लिए पथ और विपक्ष दोनों की ओर से सभी पहलू प्रस्तुत किया जाने चाहिए और बुद्धि का इतना अवसर देना चाहिए कि वह शान्त-चित्त से उपयुक्त निर्णय करने में समर्थ हो सके। न्यायालयों में यही नियम अपनाया जाता है। पथ और विपथ के दोनों वकील अपने-अपने समर्थन और दूसरे के विरोध में सभी प्रमाण और तर्क न्यायाधीश के सामने प्रस्तुत करते हैं। इस बहस से यह लाभ है कि न्यायाधीश को दोनों पक्षों की बात सुनने, समझने और किसी उचित निष्कर्ष पर पहुँचने में सुविधा पड़ती है। यह बहस न होती तो सम्भव है न्यायाधीश का मानसिक प्रवाह अविज्ञात रूप से किसी पथ के विरोध-समर्थन में फँस जाता है और ऐसी दशा में न्यायोचित निर्णय कर सकने में बाधा उत्पन्न होती। बहस से पथ-विपक्ष की जो काट-छाँट चली उस मंथन से उभय-पक्षीय प्रतिपादन सामने आया और सही निर्णय पर पहुँचने का मार्ग खुला। यही तरीका अपनी जीवन नीति बनाने और गतिविधियाँ अपनाने में भी अपनाया जाना चाहिए।

आदर्शवादी उमंगें भी कई बार अविवेक युक्त होने से हानिकारक परिणाम उत्पन्न करती है। उदारता बहुत अच्छी वृत्ति है। दान परोपकार को कौन बुरा कहेगा? किन्तु यदि निठल्ले, धूर्तों की चालबाजीयों में फँसकर उदारता के नाम पर जेब कटाई जाती रहे तो उससे अनाचार का ही पोषण होगा। ऐसी स्थिति में वह दान पुण्य भी निष्ठुरता से बढ़कर हानिकारक सिद्ध होगा। प्रेम-निर्वाह और मित्रता के आदर्शों को सर्वत्र सराहा ही जाता रहा है किन्तु यदि कोई धूर्त किसी भोले व्यक्ति को मित्रता के जाल में फँसाकर प्रेम की दुहाई देकर उसे कुमार्गगामी बनाने या ठगने, गाँठ काटने में लगा हुआ हो तो उस मित्रता को कैसे उचित ठहराया जा सकेगा? मित्र पर विश्वास करने, उसकी सलाह मानने और सहायता करने की कोमल भावनाएँ सहज ही स्नेह सम्बन्धों के कारण उभरती है। यदि उन्हें अति भावुकता का आश्रय मिल और सतर्कता को- आशंका को उठाकर ताक में रख दिया जाय तो वह मित्रता परिणाम में शत्रुता से भी अधिक भयंकर सिद्ध होगी। इन दिनों शत्रु सामने आकर उतना अनिष्ट नहीं करते, जितना कि मित्र बनकर अहित कर जाते हैं। छल,छल को इन दिनों लड़ने, आक्रमण करने की अपेक्षा अधिक चतुरतापूर्ण और सफल रणनीति मान लिया गया है। अस्तु घात-प्रतिघात का शस्त्र मित्रता के रूप में ही चलाया जाता है। इन दिनों शत्रुओं से उतना डरने की जरूरत नहीं जितना कि मित्रों से सावधान रहने की। इस सतर्कता को केवल उभय-पक्षीय चिन्तन से- पक्ष-विपक्ष के मंथन से ही उत्पन्न किया जा सकता है अन्यथा अन्धी भावुकता भोले व्यक्ति को किसी धूर्त द्वारा बेमौत मारने वाला शिकार ही बनाकर छोड़ती है। प्रेम और उदारता के दुरुपयोग की तरह अन्य सत्प्रवृत्तियों के अदूरदर्शी प्रयोग से हानिकारक परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं। अस्तु आदर्शों को अपनाने और कार्यान्वित करने में भी प्रथम स्थान विवेक एवं औचित्य को देना चाहिए। श्रद्धा की सराहना की जा सकती है, किन्तु अन्ध-श्रद्धा अपनाने से तो मनुष्य ठगा ही जाता रहोगे और उससे धूर्तता को ही परिपोषण मिलता रहेगा।

बच्चे पढ़ने से कतराते हैं और आवारागर्दी में उत्साह दिखाते हैं यदि उन्हें पढ़ने की महत्ता और बेकार भटकने की हानि समझाई जा सके तो वे अपनी गतिविधियाँ बदल सकते हैं अनपढ़ मन भी एक प्रकार का बच्चा होता है उसे दूरगामी सत्परिणामों को ध्यान में रखते हुए आज नियन्त्रित गतिविधियाँ अपनाने में बड़ा अनोखा लगता है। स्वच्छन्दता सब को प्रिय लगती हैं मनमौजी उच्छृंखलता अपनाने में कुसंस्कारी आदतों को सन्तोष मिलता है। सृजनात्मक प्रवृत्तियाँ अपनाने में कई तरह के अंकुश लगाने पड़ते हैं और अनुशासन की रीति-नीति अपनाने का अभ्यास करना पड़ता है। उसे मन स्वीकार नहीं करना चाहता जो अनपढ़ को सुगढ़ बनाने के लिए आवश्यक है यदि आत्मानुशासन स्वीकार न किया जा सका तो किसी व्यक्तित्व का सुयोग्य एवं सुसंस्कारी बन सकना सम्भव नहीं हो सकता। स्पष्ट है कि इससे बिना समुन्नत स्तर का जीवन नहीं जिया जा सकता और उस स्थिति में किसी प्रकार दिन गुजार लेने के अतिरिक्त किसी महत्त्वपूर्ण सफलता की आशा नहीं की जा सकती।

किसान को लगातार कृषि कर्म में निरत रहना पड़ता है उस अवधि में उसे कठोर श्रम भी करना पड़ता है और खाद, बीज आदि के लिए संचित पूँजी भी लगानी पड़ती है। यह कार्य प्रत्यक्षतः अप्रिय ही हो सकता है। किन्तु बुद्धिमान किसान जानता है कि समय पर फसल पकेगी और वह उसका समुचित सत्परिणाम प्राप्त करेगा। दूरदर्शिता उसे विश्वास दिलाती है कि उचित प्रयोजन के लिए निष्ठापूर्वक किया गया श्रम अपने सत्परिणाम प्रस्तुत करता है। इसी विश्वास के आधार पर संसार में खेती हो रही हैं। यदि प्रत्यक्ष और तात्कालिक लाभ ही सब कुछ समझा गया होता और भविष्य चिन्तन की बात सामने न होती तो पशुओं की तरह मनुष्य भी भविष्य निर्माण की कोई योजना न बना पाते। व्यापारी पूँजी लगाते हैं। शिल्पी सृजन में संलग्न रहते हैं। कलाकार अभ्यास में तन्मय रहते हैं। उन्हें तत्काल क्या मिलता है? सवेरे से शाम तक कठोर श्रम में संलग्न रहने पर भी तत्काल कोई लाभ नहीं मिलता। इतने पर भी उनकी यह मान्यता अडिग ही रहती है कि इस प्रयत्न का लाभ उन्हें यथासमय मिल ही जायेगा। विद्यार्थियों का प्राथमिक पाठशाला से लेकर विश्व-विद्यालय तक की पढ़ाई पूरी करने में चौदह वर्ष का राम वनवास एवं पाण्डव बन गमन जैसा तप करना पड़ता है। उनका प्रत्येक शुभ चिन्तन इसी प्रयास में प्रवृत्त रहने के लिए प्रोत्साहित करता है। दूरदर्शिता का यही मार्ग है जो जीवन के हर क्षेत्र में अपनाया जाना चाहिए।

अदूरदर्शिता की हानियाँ स्पष्ट है। नशेबाज, दुर्व्यसनी, आवारागर्दी अपनाने वाले, विलासी, अपव्ययी, आलसी तत्काल मौज-मजा देखते हैं और उसी में बेतरह चिपक जाते हैं। अन्धी होकर चासनी पर टूट पड़ने वाली मक्खी को प्राण गँवाना पड़ता है वही दुर्गति इन तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ मान बैठने वालों की होती हैं दाने को देखने वाले और फँदे से बेखबर रहने वाले पक्षी बहेलियों की हाँड़ी में पकते हैं। आटे के लिए आतुर मछली अप्रत्यक्ष काँटे का विचार नहीं करती और मछुआ की टोकरी में जान गँवाती है। रोशनी की चकाचौंध पर टूट पड़ने वाला पतंगा दीपक से जलने वाली आग से नहीं देखता और उसी आतुरता में बेमौत मारा जाता है। अदूरदर्शिताजन्य असावधानी से हर किसी को दुष्परिणाम ही भुगतने पड़ते हैं।

अनीति अपनाकर तत्काल लाभ उठा लेने की प्रवृत्ति ही अनाचार अपनाने की प्रेरणा देती हैं। दुष्ट दुराचारी यही नीति अपनाते हैं और यह भूल जाते हैं कि इस मार्ग पर चलते हुए वे अपनी सारी प्रामाणिकता गँवा देंगे। अविश्वस्त ठहराये जायेंगे और सम्मान गँवा बैठने के कारण सर्वत्र उपेक्षा एवं असहयोग के भागी बनेंगे। विश्वास सम्मान और साहस यह तीन सम्पत्तियाँ ही व्यक्ति को प्रामाणिक बनाती है और उन्हीं के आधार पर समाज में स्थान बनाते हैं। प्रगति के मार्ग पर एकाकी नहीं चला जा सकता, उसके लिए सहयोग की आवश्यकता अनिवार्य रूप से रहती है। स्पष्ट है कि सच्चा सहयोग प्रामाणिकता के अभाव में कही भी किसी को भी नहीं मिल सकता।

अनाचार पर उतरने वाले आतंक के बल पर जो कमाते हैं। उसकी तुलना में उन्हें उज्ज्वल भविष्य की सभी सम्भावनाओं से हाथ धोना पड़ता है। निन्दित और हेय जीवन आत्म-प्रताड़ना से और विश्वास की आग से जल-भुनकर नष्ट ही होता रहता है।

दूरदर्शी व्यक्ति धैर्यवान होता है। तत्काल सफलता के लिए आतुर नहीं होता, वरन् वट-वृक्ष को बोने से लेकर छाया पाने के लिए जितने धैर्य की आवश्यकता पड़ती है उतना ही अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत बनाने वाले सदाचरण को दृढ़तापूर्वक अपनाये रहता है। इस तप साधन का समुचित फल मिलता है। छोटी परिस्थिति में पैदा हुए असंख्य व्यक्ति इतिहास में जगमगाने वाले उज्ज्वल नक्षत्र बने है, उन्हें यह उपहार करके चरित्र एवं कर्तृत्व की उत्कृष्टता द्वारा ही उपलब्ध हो सका है। लोकसेवी, तपस्वी, विद्वान इसी मार्ग पर चले है। साधु ओर ब्राह्मणों की परम्परा यही रही है। उन्होंने आदर्शों को अपना कर आरम्भिक घाटा सहा है। और स्वल्प सन्तोष का निर्वाह किया है। किन्तु जब उन्हें परख लिया गया तो फिर सर्वत्र सिर आँखों पर ही बिठाया गया है। लोक-श्रद्धा के सुमन उनके चरणों पर अनायास ही चढ़ते चले गये है।

वह भ्रम कितनों को ही कितने समय तक बना रहता है। कि छपछिप सकता है ओर लोगों की आँखों में धूलि झोंक कर अप्रामाणिक रहते हुए भी लोगों की आँखों में प्रामाणिक रहा जा सकता है। कुछ समय तक कुछ लोगों को भ्रम में डाले रहा जा सकता है पर धूर्तता देर तक सज्जनता के पर्दे में छिपी नहीं रह सकती। हींग रखने पर भी उसकी महक बाहर फैलती है कहते हैं कच्चा पारा खाकर उसे पचाया नहीं जा सकता, वह शरीर में जहाँ-तहाँ से फूटकर निकलता है। ठीक इसी प्रकार अनाचारों का आभास समीपवर्ती लोगों को लगता है और फिर बुराई दो से दस हजार के कानों तक पहुँचती है। सज्जनता का प्रमाण देने में देर लगती है, पर दुर्जनता की दुर्गन्ध तो देखते-देखते हवा में छा जाती है। मुँह सामने भले ही लोग कुछ कहें, पर भीतर से जो घृणा उत्पन्न होती है। उस पर अंकुश लगा सकना किसी के बस की बात नहीं है। बात छिपी रहेगी यह सोचकर जो लोग अनाचार बरतते रहने और छल-छेल की नीति अपनाते रहने के लिए प्रयत्न करते हैं वे पूर्णतया असफल ही रहते हैं। कुटिलता की नीति अपनाते हुए सज्जनता का विश्वास और सम्मान प्राप्त करने में आज तक किसी को भी सफलता नहीं मिली है और न भविष्य में वैसा होने की आशा की जा सकती है।

असंयमी लोक तात्कालिक इन्द्रिय लोभ में आतुर होकर अपना स्वास्थ्य नष्ट करते, बीमारियों के कराहते और अकाल मृत्यु के मुख में जाते देखे गये है। आहार बिहार का असंयम जवानी में ही बुढ़ापे को निमन्त्रित करके ले आता है। आलसी और प्रमादी तत्काल तो परिश्रम ओर तत्परता के झंझट से बचे रहते हैं। पर पीछे प्रतीत होता है कि यह आरामतलबी और दीर्घसूत्रता उन्हें पिछड़ेपन के गर्त में कितना गहरा गिराने वाली सिद्ध हुई हैं और कितनी महँगी पड़ी है।

सुरदुर्लभ मनुष्य जन्म को नर-वानरों जैसे निरर्थक क्रिया-कलापों में नष्ट करते रहने वाले-जीवन लक्ष्य की उपेक्षा करने वाले- हम लोग कितने अदूरदर्शी सिद्ध हुए यह पता तब चलता है जब मृत्यु का दिन सामने आ खड़ा होता है। ईश्वर ने अपनी सारी कलाकारिता नियोजित करके मनुष्य प्राणी का सृजन इस उद्देश्य से किया था कि वह इस विश्व उद्यान को सुविकसित बनाने में उसका योगदान करेगा। उस आशा को रौंदते हुए मनुष्य लोभ मोह और अहंकार जैसी दुष्प्रवृत्तियों के परिपोषण में सारा समय गँवा देता है और खाली हाथ ईश्वर के दरबार में पहुँचकर तिरस्कार का भाजन बनता है। तब उसे पता चलता है कि संगी-साथियों में बुद्धिमान समझा जाने पर भी वह वास्तविकता की कसौटी पर कितना मूर्ख और अदूरदर्शी सिद्ध हुआ। इस सर्वभक्षी अदूरदर्शिता से जो कोई अपना पिण्ड छुड़ा सके उसकी बुद्धिमत्ता सार्थक है।


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