‘ब्रह्म वर्चस’ की साधना प्रखर प्रक्रिया

February 1977

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तीन शरीरों का संवर्धन, पंचकोशों का आवनावरण एवं कुण्डलिनी जागरण

ब्रह्म वर्चस् प्रशिक्षण साधना प्रधान है। पिछले पाँच वर्षों में जीवन-साधना सत्र चले थे। उसके बहिरंग जीवन के परिशोधन को प्रधानता दी गई थी। भूमि को जोत कर खाद पानी देकर उपजाऊ बनाने का प्रयत्न किया जाता है। बीज बोने और फसल उगाने का अध्याय इसके बाद ही आरम्भ होता है। बहिरंग में-व्यवहार में-अध्यात्म तत्त्व का प्रवेश सरल भी है और आवश्यक भी। उसके प्रत्येक लाभ मिलते हैं। सुखी और समुन्नत बनने के लिए जीवन व्यवहार में अध्यात्मवादी आदर्शों का समावेश आवश्यक है। गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता अपनाये बिना शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक क्षेत्र में समृद्ध बन सकना सम्भव नहीं हो सकता। लूट-खसोट की वस्तुएँ ठहरती नहीं, ठहरती है तो सर्वनाश करती हुई विदा होती है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए गत पाँच वर्षों में जीवन-साधना का ‘प्रकाश’ प्रशिक्षण दिया जाता रहा है। शान्ति-कुंज के पिछले सत्र इसी प्रयोजन के लिए चलते रहे हैं।

अब द्वितीय पंच वर्षीय प्रशिक्षण प्रक्रिया ‘ब्रह्म वर्चस्’ नाम से आरम्भ होती है। इसे प्रशिक्षण का दूसरा-अध्याय कहना चाहिए। यह ‘प्रेरणा’ प्रधान रहेंगे। प्रकाश का अर्थ है- मार्ग-दर्शन प्रेरणा के पीछे ‘अनुदान’ जुड़ा रहते हैं। बहिरंग जीवन को सुविकसित बनाने का मार्ग जान लेने के उपरान्त ही अन्तरंग को परिष्कृत एवं समुन्नत बनाने का कार्य हाथ में लेना उचित था। सो ही किया भी गया है।

बसन्त पर्व 77 से आगे के सभी सत्रों को ब्रह्म वर्चस् स्तर का कहा जायेगा। यह दस-दस दिवसीय रहेंगे। जिन्हें अवकाश अधिक है और शान्ति-कुँज के तत्वावधान से अपनी साधनाएं अधिक समय चलाना चाहते हैं। उनकी इच्छा एवं सुविधा के अनुरूप वैसा प्रबन्ध विशेष रूप से कर दिया जाया करेगा। महिलाओं के दस-दस दिवसीय सत्र साथ ही चला करेंगे। वे प्रातः काल के ध्यान और मध्याह्न प्रवचन में तो सम्मिलित हो सकेंगी, पर शेष समय उनकी अतिरिक्त कक्षाएँ गृह-लक्ष्मी एवं नारी जागरण के लिए सेवा-साधना करने की योग्यता बढ़ाने की दृष्टि से चला करेंगी। एक-एक महीने के वानप्रस्थ सत्रों में भी अब ‘ब्रह्म वर्चस्’ साधना का समावेश रहा करेगा। साथ ही एक महीने के महिला सत्रों के ध्यान प्रवचन के अतिरिक्त वे भी महिला समस्याओं के संबंधित अतिरिक्त कक्षाओं में शिक्षा प्राप्त करेंगी।

‘ब्रह्म वर्चस’ साधना सत्रों के तीन आधार है- (1) स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर में छाई, तन्द्रा का निवारण और जागृति का प्रखरता का अभिवर्धन (2) अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोशों का अनावरण करने वाली गायत्री की उच्चस्तरीय पंचमुखी-पंचकोशी साधना (3) कुण्डलिनी जागरण की अन्त ऊर्जा का उभार। ओजस् तेजस् एवं आत्मबल का प्रचण्ड उन्नयन। साधना में इन्हीं तीन तत्त्वों का सन्तुलन समावेश रखा गया है।

तीन शरीरों के प्रखरता का अभिवर्धन-

स्थूल शरीर यह है जो आँखों से दीखता है। चलता फिरता, सोता-खाता और काम करता है। इसकी मान्य गतिविधियाँ सर्वविदित है। जीवन-यात्रा के नित्यकर्म ज्ञानेन्द्रियाँ द्वारा-विविध अनुभूतियों, क्रिया-कलाप द्वारा- अभीष्ट सफलताओं का उपार्जन-इन तीन कृत्यों में यह देह लगी रहती है। पेट की भूख और यौनाकर्षण की की उमंग यह दो प्रेरणाएँ ऐसी हैं जिनके लिए शरीर की सामान्य गतिविधियाँ चलती रहती है। इस चक्र में परिभ्रमण करते हुए सामान्य मनुष्यों का जन्म बीतता है।

सूक्ष्म शरीर का केन्द्र मस्तिष्क है। मन, बुद्धि, चित्त अहंकार की विभिन्न गतिविधियाँ इसमें चलती रहती है। कल्पना, विचारणा, पक्ष-विपक्ष के तर्क-वितर्क अनुभव, निष्कर्ष, निर्णय आदि का निर्धारण इसी क्षेत्र में होता है।

मूर्खता चतुरता के केन्द्र यही है। शिक्षा का प्रभाव इसी पर पड़ता है। आदतें यहीं जमी रहती है। ज्ञान की विभिन्न भूमिकाओं का संग्रह इसी में रहता है। स्वप्न यही देखता। मरने के बाद भूत-प्रेत की योनि में आत्मा का यही कलेवर जीवन रहता है।

कारण शरीर में भावनाएँ, आस्थाएँ, आकांक्षाएँ, मान्यताएँ रहती है। व्यक्तित्व का उद्गम केन्द्र यही है। दिशा धाराएँ यही से उद्भूत होती है। विचारणाओं, क्रियाओं की हलचलें यही के निर्देश पर निर्धारित होती है। उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की- पतन और पराभव की- भली-बुरी आस्थाएँ इसी में जड़ जमाये रहती है। आध्यात्मिक उत्कर्ष इसी परत का होता है। महानात्मा, देवात्मा एवं परमात्मा का स्तर मनुष्य इसी क्षेत्र को विकसित करने पर प्राप्त करता है। वेदान्त में आत्मा को ही परमात्मा कहा गया है यह इसी स्तर की परिष्कृत स्थिति की व्याख्या है। स्वर्ग मुक्ति, सिद्धि, ईश्वर प्राप्ति जैसी दिव्य विभूतियों का भण्डागार यही है और इसी केन्द्र से उन्हें उपलब्ध किया जाता है। सामान्य स्थिति में यह केन्द्र वासना, तृष्णा और अहंता के कषाय-कल्मषों से आच्छादित रहता है। प्राणी उन्हीं की मृग-तृष्णा में भटकता रहता है। उद्वेग और विक्षोभ यहीं उठते हैं। यदि इसी क्षेत्र को परिष्कृत कर लिया जाए तो तत्वदर्शी स्थितिप्रज्ञ परमहंस एवं जीवन मुक्त की दिव्य स्थिति इसी जन्म में प्राप्त हो जाती है।

सामान्यतया यह तीनों शरीर साँसारिक माया-मोह के जंजाल में फँसे रहते हैं। व्यर्थ, अनर्थ करते और शोक−सन्ताप सहते हैं। इन तीनों के भीतर एक से एक बढ़ी-चढ़ी दिव्य क्षमताएँ विद्यमान है। पर वे प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती है। यदि उन्हें जगाया जा सके तो सत्प्रवृत्तियाँ, सद्विचारणाएँ और सद्भावनाएँ उभरती है। फलस्वरूप व्यक्तित्व देवोपम बनता चला जाता है। सामान्य परिस्थितियों में रहते हुये भी अन्त चेतना परिष्कृत होने के कारण स्वर्गीय अनुभूतियों का आनन्द मिलने लगता है। गायत्री को त्रिपदा कहा गया हैं तीनों शरीरों की जागृति में वह तीन पदों या तीन चरण देखे जा सकते हैं। भूर्भुवः स्वः की तीन व्याहृतियाँ भी तीनों शरीर के परिष्कार की और इंगित करती है।

पाँच कोशों का अनावरण-

गायत्री के पाँच मुख की चित्रित किये गये हैं। यह पाँच मुख अन्त चेतना पर चढ़े हुए पाँच आवरण हैं जिन्हें अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय कोश कहा जाता है। जमीन खोदने पर ‘बहुमूल्य खनिज मिलते हैं। समुद्र में डुबकी लगाकर खोजने से मणि मुक्तकों की रत्न राशि मिलती है। जीवात्मा के साथ परमपिता ने बहुमूल्य खजाने सँजोकर रखे हैं, वे उपरोक्त तिजोरियों में बन्द है। यदि इन्हें खोलना आ सके तो एक व्यक्ति अपने पाँच स्तरों को पाँच देवताओं की तरह सहायता करते और सिद्धियाँ देते हुए अनुभव कर सकता है।

षट्चक्र वेधन से ऋद्धि-सिद्धियों के चमत्कारी प्रतिफल मिलने की फल श्रुति शास्त्रकारों ने बताई है। इसमें से एक चक्र ‘मूलाधार’ तो कुण्डलिनी शक्ति का उद्गम केन्द्र है। उसकी साधना स्वतन्त्र रखी गई है। शेष पाँच चक्रों को पाँच कोशों का केन्द्र कहा जाता है इन कोशों का ध्यान पद्धति से ‘अनावरण’ ही हठयोग ग्रन्थ से हठयोग पद्धति में “चक्र वेधन” बताया गया है। अन्नमय कोश को केन्द्र ‘स्वाधिष्ठान’ चक्र-प्राणमय कोश का मणिपुर-मनोमय कोश का अनाहत-विज्ञानमय कोश का विशुद्धि और आनंदमय कोश का केन्द्र सहस्रार चक्र हैं इनका अनावरण वेधन या जागरण होने पर वे दिव्य क्षमताएँ जागृत होती है। वह होती तो प्रत्येक मनुष्य में हैं, पर प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहने के कारण वह अपने को दीन-दरिद्र अनुभव करता रहता है। इस कोश अनावरण को ही ‘आत्म जागृति’ नाम दिया गया है। आत्मबोध होने पर इस जगत के सारे रहस्य खुल जाते हैं। तदुपरान्त और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता।

कुण्डलिनी जागरण-

हठयोग के माध्यम से प्रायः कुण्डलिनी जागरण के प्रयोग चलते हैं। नेति, धौति, नौलि, वस्ति, वज्रोली, कपालभाति क्रियाओं द्वारा नाड़ी शोधन और विशिष्ट प्राणायामों एवं बंध मुद्राओं द्वारा हठयोगी कुण्डलिनी जागरण करते हैं। मल-मूत्र छिद्रों के मध्य में मूलाधार चक्र अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति जब जगाती है, तब सर्पिणी की तरह फुफकारती हुई और अग्नि लपटों की तरह लपलपाती दीखती है। उसके आकस्मिक जागरण के सहन न कर पाने पर कई हठयोगी साधक खतरा भी उठाते हैं। अपनी ध्यानयोग पद्धति में सब कुछ सौम्य है। उसमें बाल-वृद्ध सभी के लिए समान रूप से सरलता एवं किसी प्रकार के विग्रह, उपद्रव की पूर्णतया सुरक्षा है।

मूलाधार चक्र को अग्नि कुण्ड माना गया है उसमें एक त्रिकोण अणु है, जिसे कूर्म रूप में चिह्नित किया गया है। समुद्र मन्थन की कथा मूलाधार चक्र की स्थिति का ही अलंकारिक चित्रण है। पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र मन्थन देव-दैत्य सहयोग से सम्भव हुआ था। कूर्म भगवान आधारशिला ड़ड़ड़ड़ थे। मदिराचल पर्वत की मंथनी रई बनाई गई थी। वासुकि सर्प की रस्सी थी इस मन्थन के फलस्वरूप 14 दिव्य रत्न निकले थे। यह मूलाधार स्थिति अन्तःऊर्जा-कुण्डलिनी कुण्ड समुद्र हुआ। उसका आधार त्रिकोण अणु-कूर्म कच्छप है। यह ब्रह्म सत्ता है। मदिराचल प्रकृति वैभव का प्रतीक। सर्प है जीव। ईश्वर प्रकृति और जीव का समन्वय सम्पर्क जिस केन्द्र में रहता है, जिसमें ऊर्जा और सम्पदा का भण्डार भरा पड़ा है वह उसी स्थान का सूक्ष्म समुद्र है। देव आत्मिक और दैत्य भौतिक शक्तियाँ है। भावनात्मक और क्रियात्मक प्रयोगों के सम्मिलित प्रयत्न में ही यह समुद्र मन्थन की कुण्डलिनी जागरण कि क्रिया-प्रक्रिया सम्पन्न होती है। इसी प्रयास से सर्वतोमुखी प्रगति में सहायता करने वाली विभूतियाँ उपलब्ध होती है जैसी कि लक्ष्मी, अमृत-कलश कौस्तुभ मणि, धन्वन्तरि, सूर्य, चन्द्र आदि के रूप में पौराणिक कथाकारों ने आलंकारिक चित्रण किया है।

गायत्री मंत्र के वामपक्षी प्रयोगों में ब्रह्मस्त्र, ब्रह्मदन्ड ब्रह्मबल आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। यह कुण्डलिनी जागरण से उत्पन्न प्रचण्ड ऊर्जा के उस भाग का वर्णन है, जो जीव और जगत् को प्रभावित करता है, जिसमें शाप-वरदान देने की सामर्थ्य सन्निहित रहती है। सामान्यतया मनुष्य की सामर्थ्य मूलाधार में सन्निहित क्रीड़ा कामुकता की लिप्सा लालसा में ही भटकती नष्ट होती रहती है। यह शक्ति का अधःपतन-वासनात्मक क्षरण है। वासना को कामना, अभिरुचि एवं आकाँक्षा को अर्धगामी बनाना कुण्डलिनी जागरण है। मस्तिष्क को ब्रह्म लोक कहा गया है। पतनोन्मुख-लिप्सा निरत अन्तःऊर्जा को सद्भावों के सोमरस तक-उत्कृष्ट चिन्तन तक पहुँचा दिया जाय तो मनुष्य जीवन की सार्थकता के समस्त आधार बन जाते हैं। कुण्डलिनी जागरण साधना से आत्मा को ऊर्ध्वगामी बनाने वाली प्रबल प्रेरणा मिलती है। यदि इस उद्भव को चिरस्थायी बनाया जा सके और सदुपयोग हो सके तो समझना चाहिए कि साधना कि सिद्धि मिलने का उद्देश्य प्रत्यक्ष रूप से पूर्ण हो गया।

सुगम किन्तु प्रभावशाली साधनाक्रम

यह तीनों धाराएँ सदैव से अति महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली मानी जाती रही है। इनके माध्यम से सत्रज् तम का सन्तुलन, कारण, सूक्ष्म, स्थूल का नियमन, ब्रह्म जीव प्रकृति का प्रत्यक्षीकरण अधिदैविक, आध्यात्मिक अधिभौतिक क्षमताओं का विकास, ब्रह्मवर्चस तेज, ओजस् एवं विभूति ऋद्धि-सिद्धि आदि को प्राप्ति होती है। हाँ! उन्हें कठिन एवं दुःसाध्य अवश्य कहा जाता रहा है। किन्तु जिस प्रकार जिस दिव्य सत्ता की स्फुरणा तथा कृपा से गायत्री साधना जैसी दुरूह और गुह्ममानी जाने वाली प्रक्रिया को वर्तमान परिस्थितियों में भी अपनाया जाने योग्य व्यावहारिक, सुगम रूप दिया जा सका, उसी प्रकार इन साधनाओं को भी सर्वसुलभ बनाया जा रहा है। उनका प्रभाव यथावत् बनाये रखकर भी उनकी साधना विधि का जन-साधारण द्वारा अपनाये जाने योग्य बनाया गया है। सीमित साधनों एवं सीमित समय में भी इन साधनाओं को उत्साही साधक कर सकते हैं तथा पर्याप्त लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

यह साधन क्रम शांतिकुंज में चलने वाले सभी साधना एवं प्रशिक्षण सत्रों में जोड़ दिया गया हूँ। क्षेत्रों साधना एवं प्रशिक्षण सत्रों में जोड़ दिया गया है। क्षेत्रों में भी परिजन इसे प्रारम्भ कर सकते हैं। शांतिकुंज में जप, तप, उपासना, हवन आदि के क्रम में साथ-साथ प्रतिदिन दो बार इन साधनाओं का अभ्यास कराया जाता है। दस दिवसीय शिविरों में तीन-तीन दिन तक एक-एक साधना का क्रम चलता है। प्रातः 45 मि0 ध्यान साधना एवं सायंकाल क्रियायोग सहित साधना का प्रशिक्षणात्मक अभ्यास कराया जाता है। साधक दिये जाने वाले निर्देशों का अनुसरण करते हुए साधना की गहराइयों में उतरते और दिव्य अनुभूतियाँ प्राप्त करते हैं।

प्रातःकालीन ध्यान साधना के अंतर्गत तीनों साधनों का आरम्भ में उपस्थित साधकों को निर्देश दिया जाता है कि वे कमर सीधी-हाथ को गोदी में-बाँया हाथ नीचे दाहिना ऊपर-शान्तचित्त-नेत्र बन्द की ध्यान मुद्रा में बैठें। मन को एकाग्र रखें। निर्धारित निर्देशों के अनुरूप कल्पना क्षेत्र में भाव चित्र बनायें। उन चित्रों से मन स्पष्ट और प्रखर करने का प्रयत्न करें। अनुभूतियाँ जो बताई गई हैं, उन्हें उभारने के लिए तन्मयता एवं श्रद्धा का परिपूर्ण समावेश करें।

चलना व्यष्टि से समष्टि की और है। इसलिए उपस्थित सभी साधकों को अपनी सत्ता पृथक रखने की अपेक्षा-सामूहिकनभ एकता की- समष्टि समग्रता की बनानी चाहिए। हम उपस्थित लोगों का मन एक है। संयुक्त मन ही हमारा वास्तविक मन है। ध्यान उसी सामूहिक चेतना के आधार पर किया जा रहा है। जिस प्रकार सूर्य एक और किरणें अनेक होती है- जिस प्रकार समुद्र एक और लहरें अनेक होती हैं- उसी प्रकार हम सब की व्यक्ति-सत्ता अलग दीखते हुए भी, वस्तुतः हम सब एक-अभिन्न और अविच्छिन्न है। संयुक्त अस्तित्व ही वास्तविकता है। हम विराट् के एक घटक है। विलगाव अवास्तविक और एकत्व यथार्थ है। पृथकता से विरत होकर हम एकता की और चल रहे हैं। साधना संयुक्त मन से सर्वजनीन लोकमंगल के लिए हो रही है। यह ध्यान आरम्भ से पूर्व की प्रथम भूमिका है जिसे कुछ समय शान्त चित्त से करना होता है। इससे अनेकता में एकता की अनुभूति होने लगती है।

साधना स्थल एवं वातावरण के सम्बन्ध में उच्चस्तरीय भावनाएँ लेकर चलना पड़ता है। तप की परम्परा में हिमालय पिता की गोद तथा गंगा माता के आँचल को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। उच्चस्तरीय आध्यात्मिक साधनाओं का इतिहास इसी भूखण्ड के साथ जुड़ा हुआ है। राम लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न चारों भाई वृद्धावस्था में अयोध्या छोड़कर इसी भूमि में तप करने के लिए आये थे। भगवान कृष्ण ने रुक्मिणी सहित इसी भूमि में तप किया था। पाण्डव स्वर्गारोहण की साधना करने यहीं आये थे। सप्त ऋषियों का तप यहीं सम्पन्न हुआ था। भागीरथ ने गंगावतरण की और परशुराम ने शक्ति पुँज दिव्य परशु प्राप्त करने तथा सफलता प्राप्त करने की दिव्य साधनाएँ इसी भूमि पर तप करते हुए सम्पन्न की थी। इस वातावरण में तपश्चर्या के उपयुक्त ऐसे दिव्य आधार मौजूद है, जिनके कारण अन्यत्र जन्म भर तप साधना करने की अपेक्षा यह प्रयोजन स्वल्प-काल में ही अधिक सरलता और सफलता के साथ सम्पन्न हो जाता है।

हिमालय की गोद और गंगा के अंचल में विनिर्मित शान्ति कुंज प्रस्तुत साधना के लिए अत्यन्त उपयोगी स्थान है। यहाँ अखण्ड दीपक, नित्य जप, नित्य हवन एवं साधनाओं का दिव्य वातावरण बना रहता है। यह केन्द्र वस्तुतः किसी महान अध्यात्म शक्ति के संरक्षण में चल रहा है। आचार्य दम्पत्ति जो उसका प्रबन्ध कार्यवाहक के रूप में करते हैं। इसलिए इस क्षेत्र में ‘दिव्यता’ अनायास ही छाई रहती है। फिर प्रत्यक्ष मार्ग-दर्शन और स्पष्ट अनुदान देने के लिए-तथा स्नेह दुलार की दिव्य संवेदनाएँ उभारने के लिए दो प्रत्यक्ष प्रतिमाएँ भी यहाँ मौजूद है। गायत्री माता और यज्ञ पिता के प्रतीक यहाँ गायत्री मन्दिर एवं विनिर्मित यज्ञशाला की पूजा अर्चा एवं हवन-प्रक्रिया में ही नहीं-जीवन्त रूप से अनुभव की जा सकती हैं। इन सबको मिलाकर यह अनुभूति होती है कि यह साधना-स्थल दिव्य-लोक के रूप में है। दिव्य वातावरण और दिव्य संरक्षण की अद्भुत सुविधा यहाँ मौजूद है।

समष्टि मन-दिव्य वातावरण -की अनुभूतियों के साथ-साथ त्रिविधि ध्यान आरम्भ करने से पहले-योगनिद्रा और आत्म-जागृति की अनुभूति उभारनी पड़ती है। इससे मनःस्थिति ऐसी बन जाती है। जिसमें ध्यान के बीजारोपण और अंकुर उगने का कार्य भली प्रकार सम्भव हो सकें। योगनिद्रा का अर्थ है बहिरंग की सुषुप्ति शिथिलता एवं शान्ति। इसके लिए चिन्तन करना होता है कि शरीर अर्ध निद्रित जैसी स्थिति में शिथिल हो रहा है। मन में भगदड़ बन्द कर दी और वह शान्ति, स्थिरता तृप्ति एवं सरसता का अनुभव करते हुए अर्धतंद्रित बन रहा है। शरीर शिथिल-मन शान्त की स्थिति उत्पन्न कर लेना ध्यान साधन की पृष्ठभूमि बनाने के लिए आवश्यक है। वासना, तृष्णा और अहंता की उत्तेजनाएं ही शरीर को दुष्प्रवृत्तियों में मन को कुकल्पनाओं में और अन्तःकरण को दुर्भावनाओं में घसीटती रहती है। ध्यान के पूर्वाभ्यास में इन तीनों के शान्त होने का संकल्प एवं विश्वास जमाना पड़ता है। ब्रह्मवर्चस् साधना में इसी की स्थिति में उत्पन्न करने के लिए निर्देश दिये जाते हैं। साधक अनुभव करता है कि वह वस्तुतः शरीर शिथिल और मन में समाहित होकर गम्भीर शान्ति अनुभव कर रहा है। यह योग निद्रा प्रकरण हुआ।

ध्यान की पृष्ठभूमि बनाने में बहिरंग की सुषुप्ति ही नहीं अन्तरंग की जागृति भी आवश्यक होती है। इस अभ्यास का नाम आत्म-जागृति दिया गया है। अन्तरात्मा में आत्म-ज्ञान जगने एवं आत्म-बल बढ़ने की भावना की जाती है। आत्मा का वास्तविक स्वरूप और जीवन का परम लक्ष्य उभारना पड़ता है। आत्मा ईश्वर का जेष्ठ पुत्र, उसी की अभिलाषी अंश हैं अपने पिता की सभी दिव्य सम्भावनाएं बीज रूप में उसमें विद्यमान हैं सत्य, शिव ओर सुन्दर का आधार उसकी सत्ता में पूर्णतया समावेश है। अपूर्णता के भव-बन्धनों से छुटकारा पाना, पूर्णता की मुक्ति सम्पदा को उपलब्ध करना जीवन का लक्ष्य है। सृष्टि के प्राणियों की तुलना में अद्भुत अनुदान उसे इसलिए मिले है कि ईश्वरीय इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह कारगर प्रयत्न कर सके। इस सृष्टि को सुन्दर, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाना ही उसे सौंपा गया कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व हैं वह उसे निबाहने में पूर्णतया समर्थ हैं इन भावनाओं को अन्तःक्षेत्र में जागृत करने की आत्म-जागृति कहते हैं। आत्मज्ञान एवं आत्मबल का अभिवर्धन इसी भाव शृंखला को अन्तःक्षेत्र में उभारने से सम्भव होता है।

यह बात प्रातःकालीन ध्यान प्रक्रिया से पहले की पूर्व भूमिका हैं इसे साधना की पृष्ठभूमि कहा जा सकता है। साधना के लिए निर्धारित 45 मिनट से पहले 15 मिनट इस लिए सुरक्षित है। शेष आधा घंटा ध्यान करना होता है। तीन साधनाओं के लिए तीन-तीन दिन की- आधा-आधा घण्टे की- ध्यान धारणा निर्धारित है। उस अवधि में तीन दिन तीनों शरीरों सम्बन्धी, तीन दिन पाँच कोशों सम्बन्धी तथा तीन दिन कुण्डलिनी जागरण सम्बन्धी ध्यान विशेष निर्देशों के साथ कराया जाता है।

ब्रह्म वर्चस् साधना सत्रों की प्रक्रिया में यह प्रातः कालीन ध्यान धारणा मुख्य हैं परन्तु इन तीनों ही साधनाओं में से हर एक के साथ ध्यान सहित कुल पाँच-पाँच क्रियाएं रखी गई है। (1) आसन, (2) मुद्रा, (3) प्राणायाम, (4) जप, (5) ध्यान।

औषधियों को प्रभावशाली बनाने के लिए जड़ी-बूटियों की पंचाँग सहित लिया जाता है पूजन में पंचोपचार, पंचामृत, पंचगव्य आदि का महत्त्व सर्वविदित हैं ज्योतिष में भी पंचांग का ही सहारा लेना पड़ता है। उपर्युक्त क्रियाओं को भी साधना पंचांग, साधना पंचक, अथवा साधना पंचापचार कह सकते हैं।

हर साधना के साथ, उसके विज्ञान के अनुरूप इन क्रियाओं के भिन्न-भिन्न रूप रखे गये है। तीनों ही साधनाओं में प्रमुख भूमिका ध्यान की ही है, अन्य क्रियाएं उसी की सहयोगी क्रियायें है। ध्यान को प्रधान मानने का अर्थ अन्य को निरर्थक मान लेना नहीं है। सभी क्रियाएं अपना-अपना महत्त्व रखती है, और प्रकारान्तर से ध्यान को प्रखर तथा सुनियोजित बनाती है। इनके सहारे साधक का ध्यान भटकता नहीं है तथा साधना प्रवाह अबाध चलता रह सकता है।

यह पाँचों क्रियाएं उभय-पक्षीय है। एक तो उनकी क्रिया विधि है- दूसरा उनका दर्शन एवं प्रेरणा पक्ष है। दोनों के संयोग से ही हर क्रिया पूर्ण बनती है। प्रस्तुत साधना क्रम में उन दोनों का ही उल्लेख है, ताकि उनका सही प्रयोग-उपयोग किया जा सके।

आसन-सर्वमान्य व्यायाम तो है ही। उसका शरीर के अन्तरंग स्थानों पर योग साधना के अनुकूल प्रभाव पड़ता है। साथ ही आसन का अर्थ आधार स्थिति नींव भी होता है। आधार गलत हो तो अगली रचना ही बिगड़ जाती हैं साधनाओं के साथ जोड़ा गया आसनों का दर्शन पक्ष साधक को उपयुक्त आधार की दिशा और प्रेरणा देता है। उसे तो अनिवार्य रूप से तुरन्त हृदयंगम करना ही चाहिए। क्रिया पक्ष का भी अभ्यास चालू रखना चाहिए। प्रारम्भ में आसन थोड़े समय ही करें। साधना में केवल मुद्रा-अथवा मुद्रा एवं प्राणायाम उसके लिए नियुक्त विशेष आसन में की जाय। अभ्यास से जब वह सहज हो जाय तभी से जप एवं ध्यान के समय उसका उपयोग किया जाय, अन्यथा सामान्य सुखासन में ही जप ध्यान करना उचित है।

मुद्राओं के भी दोनों पक्ष है। क्रिया पक्ष का अपना प्रभाव है, और प्रेरणा पक्ष का अपना। मुद्रा का अर्थ होता है, रुख, स्थिति। योग साधना के लिए सही आधार आसन के साथ-साथ साधक की दिशा, रुख भी ठीक हो तभी लाभ होता है। मुद्रा के अभ्यास से वृत्तियाँ एक दिशा विशेष की ओर मोड़ी जाती है। हर मुद्रा के साथ उसके दर्शन को इसीलिए हृदयंगम करना होता है।

प्राणायाम द्वारा योग साधना के लिए आवश्यक हलचल एवं ऊष्मा शरीर एवं अन्तःकरण में पैदा की जाती हैं योग साधना का प्राणायामक वल श्वास-प्रश्वास नहीं होता, उसके साथ संकल्प युक्त प्राण प्रयोग होता है। संकल्प एवं चिन्तन की प्रखरता के अनुरूप ही प्राण संचरण में सबलता आती है।

जप में मात्र शब्दोच्चार नहीं उसमें मनोयोग युक्त मंत्र-शक्ति की तरंगें पैदा करनी होती हैं उपाँशु जप, जिसमें कण्ठ, औठ, जीभ आदि चले तो पर स्वर बाहर न सुनाई पड़े। अन्दर उसकी तरंगें संचरित होती रहे, यह क्रम जप में चलाया जाता है।

आसन के साथ क्रमशः मुद्रा एवं प्राणायाम करना चाहिए। जप एवं ध्यान के समय श्वास स्वाभाविक ही रहती है। सारी शक्ति ध्यान प्रक्रिया पर ही केन्द्रित कर देनी होती है। अन्य क्रियाएं स्वचालित ढंग से चलती रहे तो चले ध्यान के समय उनको लक्ष्य न बनाया जाय।

(1) तीन शरीरों की साधनाएँ

इस साधना क्रम में (1) स्वतिस्तकासन (2) खेचरी मुद्रा (3) सोऽहं प्राणायाम (4) तीन प्रणवयुक्त गायत्री मंत्र का जप एवं (5) सविता देवता के प्रकाश का ध्यान, यह पाँच क्रियाएं सम्मिलित है।

विधिः- यह आसन सामान्य पालथी लगाकर बैठने (सुखासन) से मिलती-जुलती है। सामान्य रूप से बैठें। बांये पैर की जाँघ और पिंडली के बीच दबायें, फिर दाँये पैर का पंजा बांये पैर की पिंडली तथा जाँघ के बीच में जमा दे। दोनों पंजे पूरे अन्दर दबे रहें, केवल अंगूठे ऊपर झाँकते रहे। कमर सीधी रखें।

(2) खेचरी मुद्रा- स्वाभाविक आसन में बैठें। शरीर सीधा, नेत्र हलक से बन्द, जीभ को पलट कर तालू से लगाये। ‘णं’ शब्द के उच्चारण के लिए जीभ तालू से जिस रूप में लगानी पड़ती हैं उसी स्थिति में उसे स्थिर रखें। जीभ की स्थिति पर ध्यान केन्द्रित करें, जम्हाई आने अथवा थूक निगलने में अथवा अन्य कारण से जीभ अपने स्थान से हट जाय तो उसे पुनः वही लगा लें।

जीभ हमारी रसानुभूति प्रवृत्तियों, इन्द्रियों की प्रतिनिधि, उसे पलटना, अर्थात् उपर्युक्त प्रवृत्तियों को अधोगामी, बहिर्मुखी से पलटकर ऊर्ध्वगामी, अन्तर्मुखी बनाना। तालु से लगाना अर्थात् मस्तिष्क स्थिति अमृत-कलश अम्त-निर्झर से जोड़ना। दिव्य तुष्टि प्रदान करता है इसे प्राप्त करके साँसारिक विकृत रसों का आकर्षण तथा उनके पीछे भटकना स्वतः रुक जाता है।

(3) सोऽहं प्राणायाम विधि- शान्त स्थिति में सीधे बैठें। धीरे-धीरे गहरी श्वास खींचे। श्वास नली में वायु की रगड़ से स्वर पैदा होता है ‘सो’ पूरी श्वास खींच लेने पर बिना झटके के धीरे से श्वास को पलटें, अन्दर रोकने की आवश्यकता नहीं, जिस गति से श्वास खींची गयी थी, उसी गति से उतने ही समय में उसे निकाल दें। श्वास निकालते समय वायु-घर्षण से स्वर पैदा होता है- हं बाहर पूरी श्वास निकल जाने पर धीरे से श्वास पलटें तथा पुनः खींचना प्रारम्भ करें। यही क्रिया बार-बार दोहराएं।

श्वास के साथ ‘सो’ एवं प्रश्वास के साथ ‘हं’ के स्वर पर ध्यान केन्द्रित। सोऽहं स्वर की झनकार सारे शरीर संस्थान में अनुभव होने लग। ‘सो’ का अर्थ वह-परमात्मा ‘हं’ का अर्थ अहम्-आन्तरिक विकार। प्राण रूप परमात्मा का प्रवेश, अहंकार जनित विकारों का निष्कासन। अपने अन्दर क्रमशः प्राण रूपी प्रकाश, परमात्मा की सत्ता बढ़ना। ‘सोऽहं’ अर्थात् हम भी वही है- परमात्मा और हम एक है- की अनुभूति।

(4) जप- तीन शरीरों को प्रभावित करने के लिए तीन प्रणव युक्त गायत्री मंत्र का जप। क्रम- ॐ ॐ ॐ, भूर्भुवः स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।

मनोयोगपूर्वक मंत्रजप, उसकी तरंगों का सारे शरीर में प्रसारण, क्रमशः तीनों शरीरों के केन्द्रों पर ध्यान के साथ मंत्र शक्ति की तरंगों का आघात, उनमें प्रवेश, शरीरों में हलचल स्पन्दन पैदा करके उन्हें सविता देवता के स्वर्णिम प्रकाश में ओत-प्रोत होने में मंत्र शक्ति का सहयोग।

(5) तीनों शरीरों की ध्यान साधना

पूर्ण दिशा, प्रातःकाल उदय होता हुआ स्वर्णिम सूर्य-सविता देवता-गायत्री शक्ति के अधिष्ठाता, अपने इष्ट देव, लक्ष्य, आराध्य; उपास्य इस ध्यान धारणा को इष्ट दर्शन कहा गया है। नेत्र बन्द करके इसी का चिन्तन किया जाता है। आँखें बन्द रहती है, पर अनुभव यही होने लगता है कि किसी निर्जन प्रदेश में हम उपस्थित हैं और उदीयमान सविता देवता की इष्टदेव के रूप में भाव भरी झाँकी कर रहे हैं।

सविता देव-ज्ञान के, तेज के, ऊष्मा के, ऊर्जा के, जीवन के, मर्यादा के, सामर्थ्य के, परमार्थ के प्रतीक हैं। उनकी स्वर्णिम आभा में भौतिक स्वर्ण की सभी विशेषताएँ विद्यमान हैं। सोना अन्य धातुओं की तुलना में बहुमूल्य, भारी, सुन्दर, निर्मल,एवं नरम होता है। अपने इष्टदेव में भी यह विशेषताएँ, अध्यात्म स्तर की मौजूद हैं। इन दिव्य विशेषताओं से सुसम्पन्न अपने इष्टदेव हैं। उनके सान्निध्य में स्वभावतः यही अनुदान वरदान अपने को भी मिलने वाले हैं। इस भावना के साथ सविता देव का भावनात्मक दिव्य दर्शन किया जाता है।

इष्ट दर्शन का दूसरा चरण है उनमें मिलन, घुलन, लय, समर्पण। समीपता एवं शरणागति में द्वैत भाव रहता है। यह ध्यान में उससे आगे की ‘अद्वैत’ स्थिति उत्पन्न करनी होती है। साधक को साध्य से मिलकर एक बन जाने की अनुभूति उभारनी होती है। जिस प्रकार दीपक के साथ पतंगा एकता का प्रयास करता है। नाला अपना अस्तित्व गँवाकर नदी में विलीन होता है। अग्नि के साथ ईंधन तद्रूप बनता है। दूध, चीनी, नमक, पानी मिलकर जिस तरह एक हो जाते हैं। वैसी ही एकता अपने और इष्टदेव के बीच उत्पन्न हो रही है। इसी अनुभूति को इष्ट दर्शन का अगला कदम इष्ट-मिलन या दिव्य आत्म-समर्पण कहते हैं। एकत्व भावना साथ ही आत्म साक्षात्कार एवं ईश्वर मिलन की संवेदनाएँ उभरती हैं और परमानन्द का, सच्चिदानन्द का रसास्वादन होता है।

इष्ट दर्शन एवं इष्ट मिलन के उपरान्त तीनों शरीरों में सविता देवता के प्रवेश का आत्म सत्ता को ब्रह्म तेज से ओत-प्रोत होने का, दिव्य अनुभव होता है। पहले स्थूल शरीर में, पीछे सूक्ष्म शरीर में और अन्त में कारण शरीर में, सविता तेज के प्रवेश एवं विस्तार आधिपत्य की भाव संवेदना उभारनी होती है।

(क) स्थूल शरीर- प्रवेश द्वार नाभि केन्द्र, अग्नि चक्र, शक्ति भ्रमर, चक्रवात, रुदग्रन्थि। इस अनुभूति के उपरान्त इस केन्द्र में सविता देव के प्रवेश का, समस्त स्थूल शरीर में उनका प्रकाश सुविस्तृत हो जाने का ध्यान करना होता है। अनुभव होता है कि समस्त स्थूल शरीर अग्नि पिंड बन गया- अग्नि पुँज हो गया। यह अनुभव जितना ही प्रखर होता है उतना ही अपने में असीम आत्मबल के उभरने और सामर्थ्य से ओत-प्रोत होने का भान होता है।

स्थूल शरीर में सविता देव की ऊर्जा ‘ओजस्’ शक्ति बनकर प्रवेश करती है। इसे बलिष्ठता, कर्मनिष्ठा एवं साहसिकता के रूप में अनुभव किया जा सकता है। लगता है यह विशेषताएँ सविता देव के स्थूल शरीर में प्रवेश करने की भावना के साथ ही उठती, उमड़ती चली आ रही हैं। शरीर की स्थिति कर्मयोग साधना में ढलने के उपयुक्त बन गई। उससे सत्कर्ष ही बन पड़ेंगे। क्रिया क्षेत्र में घुसी हुई दुष्प्रवृत्तियाँ उस दिव्य ऊर्जा के अवतरण से सहज ही जल-भुनकर नष्ट होंगी। पुरुषार्थ और वर्चस्व निखरेगा।

(ख) सूक्ष्म शरीर-दोनों भावों के मध्य आज्ञाचक्र, तृतीय नेत्र-सूर्य चक्र, विष्णु ग्रन्थि-सूक्ष्म शरीर का प्रवेश द्वार शक्ति भ्रमर-चक्रवात; इस द्वार से सविता देव का सूक्ष्म शरीर में प्रवेश मस्तिष्क क्षेत्र के कण-कण में दिव्य-ज्योति का समावेश, पूरा मनः क्षेत्र आलोकमय, मन की कल्पना शक्ति, बुद्धि की निर्णय शक्ति, चित्त की आदतें, अह के संस्कार सभी अग्निमय, ज्योतिर्मय, आलोकमय, सूक्ष्म शरीर को सविता देव का अनुग्रह, अनुदान ‘तेजस्’ शक्ति के रूप में उपलब्ध, तेजस् की प्रतिक्रिया, विवेक-शीलता दूरदर्शिता, ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में विकसित। इस ध्यान धारणा को


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