संकटों से डरें नहीं, लड़ें

February 1977

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विपत्तियाँ सभी के जीवन में आती हैं। साहसी व्यक्तियों का उनके द्वारा और अधिक परिष्कार होता है तथा वे अधिक साहस एवं प्रकाश से भर उठते हैं। कायर व्यक्ति विपत्तियों की कल्पना से ही अर्द्धमृत हो जाते हैं। संकटों से भिड़ने का अवसर ही नहीं आ पाता। पहले ही हथियार डाल देते हैं। आन्तरिक दुर्बलता काल्पनिक भय गढ़कर सचमुच ही प्राण-घातक बन बैठती है।

डरने लगें, तो उसका कोई अन्त नहीं। बहुतों को अँधेरा देखते ही डर के मारे पसीना आने लगता है। सुनसान में प्रवेश की कल्पना से ही हाथ-पैर काँपने लगते हैं। मन वहाँ शेर, साँप, बिच्छू, भूत, चोर, डाकू आदि की कितनी ही आशंकाएँ, कल्पनाएँ करने लगता है, दिल की धड़कन तेज हो जाती है, हिम्मत जवाब दे जाती है। उसी सुनसान अँधेरे को उसी समय दीपक लेकर देखने पर डरने योग्य कुछ भी देखने में नहीं आता। चोर, डाकू, साँप, बिच्छू, भूत-पलीत शेर-बाघ होते ही नहीं, ऐसा तो नहीं है। पर उनका आतंक तो दिन-दहाड़े बीच बाज़ार में भी कभी-कभार हो सकता है। इससे बाज़ार जाना नहीं छूटता। तब अँधेरे में ही डरने की कोई विशेष बात है नहीं। दुनिया में करोड़ों लोग अँधेरे में रहते और आते-जाते हैं। जंगली प्रदेशों में दीपक का उपयोग बहुत कम होता है। कृषक रात को खेतों पर अँधेरे में अकेले ही सोते हैं। बहुत से लोग घने वन-प्रदेशों के बीच छोटी झोपड़ियाँ बनाकर मजे से जीवन जीते हैं। मन दुर्बल हुआ, तो ही वह यदा-कदा घटने वाली दुर्घटनाओं की ही विशेष याद रखता तथा तिल का ताड़ बनाता रहता है।

यों, जोखिम तो कूदने-दौड़ने पेड़ पर चढ़ने, तैरने, पर्वतारोहण या व्यायाम प्रतियोगिताओं में सम्मिलित होने, मोटर या स्कूटर चलाने आदि सब में भी है। पर खतरे की आशंका से इन साहसिक कार्यों से लोग विरत नहीं हो जाते। इसलिए संकटों से भी डरने का कोई कारण नहीं।

संकट भयंकर तभी तक लगते हैं, जब तक उनसे भिड़ न जाएँ। जैसे-जैसे संकटों से जूझने का अभ्यास होता जाता है, वे दैनिक कार्यों की तरह सरल-स्वाभाविक प्रतीत होने लगते हैं। संकटों का डर मनोबल तोड़ देता है। जब जो संकट आ पड़ेगा, उससे निपट लेने का साहस सँजो रखा जाए, तो निःशंक , निश्चित जीवन जिया जा सकता है। भयाक्रान्त हो गये, तो चलना-उठना भी कठिन हो जाता है। रक्त ठण्डा पड़ जाता है, मस्तिष्क शिथिल हो जाता है, शरीर निढाल हो जाता है। पुरुषार्थ की शक्ति रहते हुए भी व्यक्ति कुण्ठित हो जाता है। हिरन सिंह को देखते ही भयाक्रान्त हो चौकड़ी मारना भूल जाते हैं, खड़े रह जाते और बेमौत मारे जाते हैं। यदि वे साहस बनाये रखे और छलाँग भरने लगें, तो सिंह से अधिक दौड़ सकने की सामर्थ्य के कारण उसकी पकड़ से बच जाएँ। संकटों के सामने भयभीत हो उठने पर मनुष्य भी इसी तरह अपनी शक्ति भुलाकर अपने को ही क्षतिग्रस्त करते हैं।

ऐसा कहा जाता है कि यमराज ने एकबार पाँच हजार मनुष्यों को मार लाने के लिए महामारी को पृथ्वी पर भेजा। वह आई और अपना काम कर लौट गई। देखा गया कि 15 हजार व्यक्ति मर गये थे यमराज ने डाँटकर निर्दिष्ट संख्या से तिगुना लोगों को मार डालने का कारण पूछा। तब महामारी ने बताया-कि उसने तो पाँच हजार ही मारे हैं। दस हजार तो डर से स्वयं ही मर गये हैं।

अज्ञान और मिथ्या धारणाएँ मनुष्य को भयाक्रान्त रखती हैं। ज्ञान की वृद्धि के साथ अनेक प्रकार के डर स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं। संकटों के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान भी उनसे भिड़ने पर ही होता है। तब अनुभव होता है कि जितना अनुमान किया गया था, उससे आधी शक्ति ही इस संघर्ष में व्यय हुई है और संकट से पार पा लिया गया है। अतः आवश्यकता भयभीत होने की नहीं, संकटों का डटकर मुकाबला करने की है।


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