मानसिक तनाव-चिन्तन का दुर्गुण

February 1977

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शारीरिक और मानसिक रोगों की शृंखला में इन दिनों जिस भयंकर व्यथा की अभिवृद्धि हैं वह हैं- तनाव हम में से अधिकाँश व्यक्ति मानसिक तनाव से पीड़ित रहते हैं।, और उसी दबाव से अशान्त एवं विक्षुब्ध मनःस्थिति में समय गुजारते हैं। यह एक प्रकार का मानसिक ज्वर हैं। ज्वर-पीड़ितों को कितनी शक्ति उस व्यथा को सहन करने तथा निपटने में खर्च करनी पड़ती हैं, यह किसी से छिपा नहीं हैं। मानसिक तनाव से भी प्रायः उसी स्तर की क्षति होती हैं। जीवन रक्षा के लिए प्रकृति ने हमारे भीतर एक ऐसी विशेष-व्यवस्था बना रखी हैं, जो प्रतिकूलताओं से निपटने के लिए शारीरिक सक्रियता एवं मानसिक स्फूर्ति के रूप में काम करती हैं और उपलब्धों को एकत्रित करके आगत संकट का सामना करने के लिए जुट जाती हैं। इसे अनुकूल प्रणाली कहते हैं। उस ऊर्जा के सहारे ही मानवी क्षमता की रक्षा होती हैं और उसे महत्त्वपूर्ण प्रयोजनों में संलग्न करके उच्चस्तरीय सफलताएँ प्राप्त करना सम्भव होता है। यह अनुकूलन ऊर्जा तनाव जैसी प्रतिकूलताओं से निपटने में अत्यधिक क्षीण होती चली जाती हैं और अन्ततः विक्षुब्ध मनुष्य उन्मादियों और दरिद्रों की तरह मौत के दिन पूरे करता है।

यों इस व्यस्तता के युग में तृष्णा और वासना की अतृप्त आकाँक्षाएँ, जटिल परिस्थितियाँ आर्थिक कठिनाइयाँ पारिवारिक कलह, प्रति-स्पर्धा सामाजिक विकृतियाँ छल प्रपंच, दुष्ट दुर्व्यवहार जैसे संक्षोभ उत्पन्न करने वाले कारण भी बढ़े हैं। उनने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को दुर्बल किया हैं। इतने पर भी यह कहा जा सकता है कि तनाव जैसी भयंकर विपत्ति का प्रधान कारण चिन्तन में अधीरता, उत्तेजना एवं भ्रान्तियों का भर जाना ही सबसे बड़ा कारण हैं। स्पष्ट हैं कि तनावग्रस्त मनुष्य उन समस्याओं के समाधान में अपंग, असमर्थ सिद्ध होता है, जिन्हें इस दबाव का कारण समझा और माना जाता है। उलटे अति महत्त्वपूर्ण जीवन रस उसी व्यर्थ की उलझन को समेटने में नष्ट होता चला जाता है, जिसे प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए आवश्यक साधन के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता था। तनाव स्वाभाविक कम और अस्वाभाविक अधिक हैं। उसे प्राकृतिक कम और कृत्रिम अधिक कह सकते हैं। कठिनाइयों से रहित किसी का भी जीवन नहीं। उलझनें जिसमें हों ही नहीं ऐसी जिन्दगी पत्थर की तो हो भी सकती हैं, पर जीवधारी उनसे बचा नहीं रह सकता। बुद्धिमान अवरोधों से हँसते-खेलते जूझते रहते हैं, जो नहीं हट सकते उन्हें सहन करते और तालमेल बिठाते हैं। इसके विपरीत अधीर लोग तनिक सी बात पर तुनकते और सन्तुलन बिगाड़ते देखे जाते हैं। इसी गड़बड़ी का नाम तनाव हैं।

तनाव के कारण भिन्न-भिन्न हो सकता है। लेकिन व्यक्ति मन पर उसकी जो प्रतिक्रिया होती हैं, वह जीव रासायनिक दृष्टि से एक-सी ही होती हैं, फिर वह ठंड, भूख या अत्यधिक थकाऊ शारीरिक श्रम जैसे शारीरिक दबावों से उपजा तनाव हो, किसी बीमारी के कारण हो अथवा मनोवैज्ञानिक तनाव हों।

कनाडा के प्रख्यात शरीर वैज्ञानिक हैं एक थी हंससेल्ये। इन्होंने कई वर्षों तक तनावों और उससे सम्बन्धित समस्याओं का गम्भीर अध्ययन किया हैं। उनका कहना हैं। कि एक व्यापारी जब व्यापार सम्बन्धी विचार तथा कार्य करता है। और योजनाएँ बनाता है, अथवा एक खिलाड़ी खेल में भाग लेता है और खेल के प्रति सतर्क रहता है अथवा एक वैज्ञानिक जब वैज्ञानिक समस्या से जूझता है, परिकल्पना और प्रयोग करता है, तब इन सभी की बाह्य परिस्थितियाँ यद्यपि भिन्न-भिन्न होती हैं, किन्तु इन क्रियाओं के कारण लोगों को जो अतिरिक्त मानसिक और शारीरिक प्रयास करना होता है, उससे भीतर जो प्रतिक्रियाएँ पैदा होती हैं, उनका शरीर वैज्ञानिक रूप एक-सा होता है। इन सभी लोगों की अधिवृक्क ग्रन्थि कार्टेक्स अधिक सक्रिय हो जाती है, रक्त से हारमोन अधिक स्रावित होने लगते हैं और छाती की इन्डोक्रीन ग्रन्थि, जिसे ‘थाइमस’ कहते हैं, सिकुड़ जाती है।

इन क्रियाओं में फर्क इस बात से नहीं पड़ता कि तनाव किस कारण पड़ रहा हैं- वैज्ञानिक क्रिया-कलाप से या कि व्यापारिक गतिविधि से या क्रीड़ा-स्पर्धा से या कि किसी अन्य कारण से।

तब क्या सदा बिलकुल एक-सी ही प्रतिक्रिया होती हैं? प्रतिक्रियाएँ तो एक तरह की ही होती हैं, पर तनाव की तीव्रता के अनुसार उनमें भिन्नताएँ होती हैं। यानी यदि तनाव अधिक तीव्र हुआ तो यही क्रियाएँ-कार्टेक्स की सक्रियता, हारमोनों का स्रवण और थाइमस का सिकुड़ना-अधिक तेज हो जायेंगी; कम तनाव हुआ तो कम हो जायेंगी।

आज के उत्तेजक वातावरण में हमें अत्यधिक तनाव का सामना करना पड़ता है और इसलिए अनुकूलन-ईंधन की हमारी आन्तरिक माँग अत्यधिक बढ़ गई है।

अत्यधिक तनाव की स्थिति में शरीर की अनुकूलन-प्रणाली संकट का संकेत पाकर तेजी से क्रियाशील हो उठती है और पूरी शक्ति से संकटग्रस्त मोर्चे पर डट जाती है। सेल्ये का कहना है कि यही कारण है कि विशेष संकट के समय कई व्यक्ति असाधारण काम कर डालते हैं। जैसे प्राण संकट में पड़ने पर भागने की जरूरत होने पर, लम्बी कूद का कभी भी अभ्यास न करने वाला व्यक्ति कोई काफी चौड़ी खाई पार कर जाये, अथवा कोई वैज्ञानिक किसी असाध्य सी समस्या का समाधान पा जाये।

लेकिन ऐसी स्थिति में, जबकि सम्पूर्ण अनुकूलन-ऊर्जा मुख्य मोर्चे पर डटी हो, तो शेष हिस्से में अनुकूलन-क्रियाएँ शिथिल पड़ जाती हैं, इससे भीतरी अंगों की सामान्य कार्य क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। इसी का नाम थकान है। अधिक तनाव से थकान आने की यही प्रक्रिया है। थकान से शरीर की विभिन्न माँस-पेशियों की कार्य क्षमता घट जाती है, क्योंकि उन्हें पर्याप्त अनुकूलन-ऊर्जा नहीं मिल पाती। इसका शरीर पर अवश्यम्भावी परिणाम होता है।

जैसे कि तेज मानसिक थकान से हृदय के पेशियों वाले भाग ‘मायोकार्डियम’ में स्नायविक सन्तुलन बिगड़ जाता है; इससे जैव-रासायनिक परिवर्तन होते हैं और रक्त के आवागमन नियन्त्रण में बाधा पहुँचती हैं।

कई बार आग से व्यक्ति की चमड़ी बहुत जल जाती है। ऐसे कई लोगों की डाक्टरी जाँच किए जाने पर उनके पेट में तथा आँतों में छाले पाये गये। इसका कारण भी यही है कि उनकी कुल अनुकूलन-ऊर्जा जले हुए स्थानों की मरम्मत में लग जाती है। तब पाचन-क्रिया की ‘होमोस्टेटिक’ नियन्त्रण प्रणाली को जितनी अनुकूलन-ऊर्जा चाहिए, वह नहीं मिल पाती। लम्बे समय तक इस कमी से पेट और आँतों में छाले पड़ जाते हैं।

हंससेल्ये ने एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य गिनाया है। यदि दिनोंदिन जीवन में तनाव अधिकाधिक बढ़ता जाये, तो हमारी अनुकूलन-ऊर्जा भी अधिकाधिक खर्च होती हैं। प्रकृति बनिया है और उसने एक निश्चित मात्रा में ही हर व्यक्ति को अनुकूलन-ऊर्जा का भण्डार सौंपा है। यदि हमने उस भण्डार को तेज गति से लुटाया, तो उतनी ही तेजी से हमारा सन्तुलन डिगता जाएगा और हम भयानक बीमारियों की चपेट में आते जाएँगे। आधुनिक समाज-जीवन में ये भयानक रोग भयानक-गति से बढ़ रहे हैं- ये हैं हृदयरोग, कैंसर, मादक द्रव्यों का व्यसन, आतंककारी गतिविधियाँ-मारपीट आत्महत्याएँ, और तरह-तरह की रहस्यमयी बीमारियाँ। ये रोग औद्योगिक रूप से विकसित देशों में बेतहाशा बढ़ रहे हैं। हंससेल्ये इन्हें “अनुकूलन के रोग” कहते हैं।

मानसिक थकान की समस्याओं पर वर्षों अनुसंधान करने वाले रूसी चिकित्सक इवान सेम्योनोविक खोरोल ने आधुनिक सभ्य समाज के लोगों की एक नौका-दौड़ में जुटे नाविकों की संज्ञा दी है, जो पूरी ताकत के साथ नाव खे रहे हैं- तेज और तेज। नाव निश्चित ही आगे बढ़ रही है, पर नाविकों की भीतरी ऊर्जा निचुड़ती जा रही है, निचुड़ चुकी है।

शारीरिक थकान में वस्तुतः माँस-पेशियों के अतिरिक्त खिंचवा में ऊर्जा खर्च होती है। यह ऊर्जा माँस-पेशियों में रहने वाले ‘ग्लूकोनेट’ से मिलती है। यह ‘ग्लूकोनेट’ माँस-पेशियों की क्रियाशीलता के समय आक्सीजन के साथ संयोग करता है और लैक्टिक-एसिड तथा कार्बन-डाई-आक्साइड गैस बनाता है। इसीलिए शारीरिक श्रम में अधिकाधिक आक्सीजन खर्च होती है, जिसके लिए तेज साँस जरूरी होती है।

इसी तरह कार्बन-डाई-आक्साइड तो साँस द्वारा बाहर चली जाती हैं, पर लैक्टिक-एसिड को ग्लूकोनेट में पुनः बदलने के लिए भी आक्सीजन चाहिए। हमारे अधिकाँश तनाव मानसिक होते हैं, जिन्हें हम स्वयं पैदा करते और आमन्त्रित करते हैं। इन तनावों के तीन मुख्य प्रकार हैं- (1) पहला है अनावश्यक आवेगमयता आज के जीवन में व्यर्थ की हड़बड़ी और अत्यधिक भाग-दौड़ (2) दूसरी प्रकार है प्रारम्भिक पालन-पोषण एवं शिक्षा के दौरान विकसित एवं प्रकल्पित आदर्शों से वास्तविक जीवन का अन्तर होने पर दैनिक जीवन में पैदा होने वाले तनाव। (3) तीसरे किस्म के तनाव उपभोगों की दौड़ में अपने पिछड़े होने की अहिर्निशि चिन्ता की उपज है।

पहले किस्म के तनावों के सन्दर्भ में हमें हंससेल्ये की यह बात भी याद करनी होगी कि एक पीड़ादायक प्रहार और एक वासनात्मक आवेग से भरपूर चुम्बन दोनों बराबर का तनाव पैदा कर सकते हैं।

इस तनाव से बचने का हंससेल्ये की दृष्टि में कोई उपाय नहीं। पर स्पष्ट है कि आवेश और असंयम के स्थान पर विवेक और संयम का दैनिक जीवन में समावेश होने पर इन तनावों में भारी कमी हो सकती है।

दूसरे प्रकार के तनावों ( जो आदर्श और वास्तविकता के बीच के अन्तर को देखकर पैदा होते हैं) को कम करने के लिए इवान खोरोल दो उपाय गिनाते हैं- (पहले और तीसरे किस्म के तनावों की बाबत खोरोल अथवा हंस सेल्ये ने कोई उपाय नहीं बताया है।)

तनाव से बचने का सरल तरीका यह है कि वास्तविकता को आदर्शों के अनुकूल ढालने के लिए संघर्ष किया जाय। हमारा जीवन कृत्रिमता, दंभ, छल, शेखीखोरी जैसे बड़प्पन प्रदर्शनों में तथा छल-प्रपंच शोषण, उत्पीड़न जैसे क्रूर-कर्मों में न लगे। भीतर और बाहर से सज्जनता ही जीवन-नीति बनकर रहे।

मनुष्य अपने आदर्शों को वास्तविकताओं के अनुरूप बदल दें। यह रास्ता ऊपर से सरल प्रतीत होता है, लेकिन व्यक्ति जब एक के बाद एक अपने आदर्शों तथा नैतिक सिद्धान्तों से पीछे हटता है, तो ऐसे हर समझौते में भी उसकी अनुकूलन-ऊर्जा खर्च होती है। मानव जीवन के अधिकाँश तनाव ईर्ष्याजन्य होते हैं। अभावग्रस्तता की कल्पना करके कितने ही लोग दुःखी और उद्विग्न रहते हैं। अपने इन कथित अभावों से हर व्यक्ति आकुल और अशाँत है। उपभोगों के साधनों की पड़ोसी के पास अधिकता से पता नहीं कितनों का खाना, सोना हराम रहता है।

ये तनाव जितने जटिल और भयंकर हैं, समाधान उतना ही छोटा व सहज है। वह है मात्र दृष्टिकोण परिवर्तन, विचार शैली को बदल देना। औरों की तुलना में अपने अभावों का स्मरण आते ही अपने से भी अधिक अभावग्रस्तों की ओर ध्यान ले जाया जाये, तो बदली स्थिति में अपने को प्राप्त वैभव बहुत अधिक तथा अभाव अत्यल्प प्रतीत होंगे। तब अपनी साधनहीनता के प्रति आत्म-हत्या के स्थान पर अपनी सम्पदाओं के सदुपयोग की सतर्कता की आत्म-चेतना का उदय होगा।

कठिनाइयों से जूझते-जूझते कभी असहायता की अनुभूति हो तो प्रचण्ड पुरुषार्थियों का स्मरण सहायक होता है। मिल्टन अन्धा था, पर महाकवि के रूप में आज विश्व प्रसिद्ध है। महानतम संगीतकारों में से एक बीथो-वेन बहरा था, आज भी वह अमर संगीत-धुनों का अनूठा सृष्टा माना जाता है। ऐसे असंख्य उदाहरण इतिहास तथा समाज में सर्वत्र बिखरे पड़े हैं।

क्या अधिक श्रम और सतत् संघर्ष से सदा अनुकूलन ऊर्जा का अधिक व्यय ही होता है? तब ऐतिहासिक महामानव जो कि शरीर-विज्ञान की दृष्टि से सामान्य मानवों जितनी ही अनुकूलन-ऊर्जा से सम्पन्न होते हैं, संघर्षों के प्रबल थपेड़ों को सहते तथा प्रतिकूलताओं के झंझावात झेलते हुए भी सदा प्रफुल्ल-प्रसन्न क्यों रहते हैं?

इस प्रश्न का उत्तर प्रख्यात रूसी शरीर विज्ञानी इवान पवलोव की स्थापना से मिल सकता है। पवलोव के अनुसार “लक्ष्य की प्रतिक्रिया किसी व्यक्ति की अत्यावश्यक स्फूर्ति का मूल रूप है।”

इसका यह अर्थ कि जिन प्रतिभाशाली नर-नारियों में लक्ष्य की प्रतिक्रिया असाधारण बौद्धिक क्रियाशीलता के रूप में होती है, जो लोग अपने आदर्शों के लिए असामान्य बौद्धिक सक्रियता से गतिशील रहते हैं, उनमें प्रखर स्फूर्ति होती है और यह स्फूर्ति अनुकूलन-प्रणाली के अनुकूल होती है। इसलिए ऐसे लोगों में असाधारण क्रियाशीलता से भी तनाव नहीं पैदा होता, बल्कि स्फूर्ति ही रहती है। तनाव न पैदा होने से अनुकूलन-ऊर्जा का अनावश्यक उपभोग नहीं होता।

आजकल वैज्ञानिक खोजों का क्षेत्र भी बढ़ा है और अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिक की संख्या भी बढ़ी है। वैज्ञानिकों की संख्या अधिक ही बढ़ी है। इस प्रकार जो खोजें हो रही हैं, वे सामूहिक कार्यों का परिणाम हैं। नूतन ज्ञान-भण्डार में प्रति व्यक्ति योगदान का औसत पहले से लगातार कम होता जा रहा है। ऐसा विशेषज्ञों का कहना है। इसका कारण वे यह बताते हैं कि वैसे असाधारण प्रतिभाशाली नर-नारी इन दिनों अपेक्षाकृत कम हो रहे हैं, जिनमें अपने लक्ष्य के प्रति प्रचण्ड उत्साह और उसके कारण प्रखर आन्तरिक स्फूर्ति से काम करने वाले लोगों की संख्या बढ़ जाए तो प्रति व्यक्ति योगदान का औसत भी बढ़ जाएगा और खोजों का विस्तार-क्षेत्र तब बहुत अधिक बढ़ जाएगा। मानविकी विद्याओं के अन्य क्षेत्रों में भी यही स्थिति है।

प्रगति के नाम पर हम अनेक क्षेत्रों में इन दिनों आगे बढ़े हैं, पर आदर्शवादी प्रतिभाओं की दृष्टि से मानव समाज दिन-दिन अधिक दरिद्र होता चला जा रहा है। इसका एक बड़ा कारण है- हमारा भोगवादी, स्वार्थरत एवं आदर्श विहीन दृष्टिकोण। इसके कारण मनुष्य की सारी क्षमता आकर्षक किन्तु पतनोन्मुख प्रयोजनों में लगी रहती है स्पष्ट है कि ओछे स्तर का जीवन-क्रम अन्तःक्षेत्र विविध-विधि विक्षोभ उत्पन्न करता है। उसकी प्रतिक्रिया से निपटने में ही वह जीवन-रस सूख जाता है, जिसके सहारे महामानव ऊँचे उठने और आगे बढ़ने में समर्थ हुए हैं। तनाव हमारे जीवन को नीरस, जटिल और स्वल्प बनाता है। ऐसी स्थिति में कोई बड़ी सफलता पा सकना तो दूर उलटे तनाव का दबाव ही आधि-व्याधिग्रस्त दीन-दुःखी लोगों की तरह-रोते कलपते दिन गुजारने के लिए विवश करता है।


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