जगत का सनातन नियम (kahani)

February 1977

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मातंग मुनि का आश्रम जिस सघन वन में था उसी के एक कोने पर बड़ा सा तालाब था और दूसरे कोने पर छोटा सा झरना। छात्रों समेत महामुनि उन्हीं दोनों से जल प्रयोजन पूरा करते थे। शीत की अधिकता उस पर्वत प्रदेश में बढ़ गई तो छात्रों समेत महामुनि लम्बी पद यात्रा का कार्यक्रम बनाकर निकल पड़े। इसमें मनोरंजन का भी उद्देश्य था और ज्ञानार्जन का भी।

निर्झर के किनारे-किनारे ही उन्होंने लम्बी यात्रा की योजना बनाई। झरना छोटा था पर क्रमशः उसमें अन्यान्य झरने सम्मिलित होते गये अस्तु, वह बड़ी नदी महानदी बनते हुए विशाल विस्तार के साथ समुद्र में जा मिला।

झरने का विकास विस्तार उसका निर्मल जल, प्राणियों द्वारा उसका उपयोग, कृषि उद्यान का उसके द्वारा सिंचन, तट क्षेत्र में घाट, मन्दिर उसकी शोभा मूल उद्गम की तुलना में उसकी शोभा सम्पदा बढ़ाते ही गये। सागर संगम का दृश्य तो और भी मनोरथ था।

महामुनि की शिष्ट मंडली को निर्झर का यह सौंदर्य बहुत भाया सो उसी मार्ग से वे गये और उसी मार्ग से वापिस लौटे। झरने की रीति-नीति उन्हें भली लगी क्योंकि उसमें क्रमिक विकास की सम्मान पद सफलता भी जुड़ी हुई थी।

शीत ऋतु समाप्त हो गई। बसन्त भी बीता। लम्बी तीर्थ यात्रा पूरी करके लौट कर वे आश्रम में पहुँचे तो ग्रीष्म आ पहुँची थीं। आश्रम अस्त-व्यस्त हो गया सो वे उसे संभालने में लगे। जल की आवश्यकता पड़ी। तालाब अपेक्षाकृत निकट था सो वे जल पात्र लेकर वही से पानी लाने के लिए चल पड़े।

देखा तो तालाब की दुर्गति हो रही थी। पानी सूख चुका था। गंदी कीचड़ ही जहाँ तहाँ भरी थी। निराश छात्र खाली हाथों वापिस लौटे और वन के दूसरे कोने पर बहते हुए झरने से पानी लाये। निर्झर ग्रीष्म ऋतु में भी कल-कल ध्वनि से पूर्ववत् प्रवाहित हो रहा था।

रात्रि को महामुनि के समीप छात्रों की मंडली बैठी थी। शंका समाधान का हृदयग्राही क्रम चल रहा था। एक छात्र ने पूछा- देव निर्झर अपनी सम्पदा उन्मुक्त हाथों से लुटाता रहा फिर भी उसका वैभव घटा नहीं। दूसरी ओर तालाब किसी के काम नहीं आया फिर भी वह क्षीण हो गया, इसका क्या कारण है?”

महर्षि की आँखें चमक उठी उसने कहा- तात जो देता है उसकी सहायता के लिए ईश्वर के हजार हाथ सहायता करते हैं और जो तृष्णता बरतता है उसकी संगृहीत संपदा भी छिन्न ही जाती है इस जगत का यही सनातन नियम है।


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