अदृश्य से दृश्य - दृश्य से अदृश्य

September 1975

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जो कुछ हम आँखों से देखते हैं क्या यही संसार है? इस प्रश्न का उत्तर हाँ में ही दिया जा सकता है, पर वह वस्तुतः नितान्त बालकों का ही होगा। वस्तुतः जो कुछ हम देखते हैं वह उन अस्तित्वों का अति स्वल्प अंश है जिसे हम देख नहीं सकते। न केवल खुली आँखों से वरन् सूक्ष्मदर्शी यन्त्र भी उन्हें देखने में ही नहीं अनुभव करने में भी असमर्थ रहते हैं।

कई बार दृश्य के अद़श्य में और अदृश्य के दृश्य में परिणत होने की घटनाएँ घटित होती रहती हैं और वे इतनी विभिन्न होती हैं कि उन्हें भूत-प्रेत, देवी-देवता की करतूत, सिद्धि चमत्कार अथवा अतीन्द्रिय चेतना की अनुभूति आदि कहकर मन समझाना पड़ता है। वास्तविकता क्या है इसका सही पता लगा सकना और उन अद्भुत घटनाओं का समाधान करण विश£षण कर सकना प्रायः सम्भव नहीं ही हो पाता।

इस सर्न्दभ में आये दिन जहाँ-तहाँ घटित होने वाली घटनाओं में से दो इस प्रकार हैं-

(1) मनीला की यू. पी. आई नामक प्रामाणिक समाचार ऐजेन्सी ने पूरी खोज-बीन के पश्चात् एक समाचार प्रकाशित कराया था कि-कार्नेलियो क्लोजा नामक एक बारह वर्षीय छात्र जब तक अनायास ही अदृश्य हो जाता है। स्कूल के क्लास से गायब हो जाना और दो-दो दिन बाद वापिस लौटना आरम्भ में लड़के की चकमेबाजी समझा गया किन्तु पीछे उसके दिये गये ब्यौरे पर ध्यान देना पड़ा। वह कहता था कोई समवयस्क परी जैसी लड़की उसे खेलने के लिए अपने पास बुलाती है और वह रुई की तरह हलका होकर उसके साथ खेलने, उड़ने लगता है।

पुलिस ने बहुत खोज की उस पर विशेष पहरा बिठाया गया। यहाँ तक कि उसके पिता ने कमरे में बन्द रखा तो भी उसका गायब होना रुका नहीं। पीछे किसी पादरी के मन्त्रोपचार से वह संकट दूर हुआ।

(2) फ्राँसीसी वैज्ञानिक सेलारियर जिनकी विश्वासनीयता पर किसी को उँगली उठाने का साहस नहीं हो सकता। उनने एक घटना का उल्लेख किया है-पैरिस की एक प्राचीन प्रतिमा की जब वैज्ञानिकों का एक दल परीक्षा कर रहा था तो वह मूर्ति देखते-देखते अदृश्य हो गई और उसके स्थान पर एक दूसरी विशालकाय मूर्ति आ विराजी जो पहली की तुलना में कहीं बढ़ी थी।

यह घटना अभी बहुत पुरानी नहीं हुई है जिसमें टेनेसी राज्य के गालिटिन नगर के एक धनी किसान डेविड लेंग के अचानक गायब हो जाने के समाचार ने दूर दूर तक आँतक पैदा कर दिया था और उस सम्बन्ध में भारी जाँच-पड़ताल हुई थी। वह किसी जरुरी काम से घर से बाहर जा रहा था कि देखते-देखते आँखों के सामने से अदृश्य हो गया और फिर कभी नहीं लौटा। कोई ऐसी वजह भी नहीं थी जिससे वह जान-बूझकर भाग जाता। हँसता-हँसता यह कहकर घर से निकला था कि “अभी दस मिनट में आता हूँ।” जिस स्थान से यह गावब हुआ था उसके आस-पास पन्द्रह फुट के घेरे की घास बुरी तरह झुलस गई थी। पुलिस तथा दूसरे खोजी सिर तोड़ प्रयत्न करने पर भी उसका कुछ पता न लगा सके।

ऐसे घटनाओं की विवेचना करते हुए वैज्ञानिक क्षेत्रों में कई प्रकार से चर्चा होती रहती है। अब विज्ञान इस निश्चय पर पहुँच चुका है कि मनुष्य की इन्द्रिय चेतना के आधार पर विकसित बुद्धि जितना जान पाती है, दुनिया वस्तुतः उससे कहीं अधिक है। उसे न बुद्धि समझ पाती है और न मानव निर्मित यन्त्र ही उसे पूरी तरह पकड़ पाते हैं। फिर भी कुछ विशेष सूक्ष्म सम्वेदना वाले यन्त्र थोड़ी बहुत जानकारी कभी-कभी देते रहते हैं और यह सिद्ध करते हैं कि प्रत्यक्ष दर्शन न केवल अधूरा वरन् भ्रामक भी है।

हम नित्य ही सूर्य की ‘धूप’ को देखते हैं। पर सच्चाई यह है कि धूप कभी भी नहीं देखी जा सकती। उसके प्रभाव से प्रभावित पदार्थ विशेष स्तर पर चमकने लगते हैं, यह पदार्थों की चमक है। सूर्य की किरणें जो इस चमक का प्रधान कारण हैं हमारी दृश्य शक्ति से सर्वथा परे है। अन्तरिक्ष में प्रायः पूरे सौरमण्डल को प्रकाशित एवं प्रभावित करने वाली धूप वस्तुतः सोलर स्पेक्ट्रमा-सौरमण्डलीय वर्ण क्रम है। उसे ऊर्जा की तरंगों एवं स्फुरणाओं की एक सुविस्तृत पट्टी कह सकते हैं। इस मिट्टी में प्रायः 10 अरब प्रकार के रंग है। पर उनमें से हमारी आँखें लाल से लेकर बेंगनी तक एक-एक रंग सप्तक की तथा उसके सम्मिश्रणों को ही देख पाती है। बाकी सारे रंग हमारे लिए सर्वथा अदृश्य अपरिचित और अकल्पनीय हैं।

अब हम कुछेक सूक्ष्म किरणों की किन्हीं विशेष यन्त्रों की सहायता से देख समझ सकने में थोड़ा-थोड़ा समर्थ होते जाते हैं। जैसे धूप में “इन्फ्रारेड” तरंगें देखी तो नहीं जातीं पर जलन के रुप में अनुभव होती हैं। इन किरणों का फोटोग्राफी में प्रयोग करके दुनिया का वास्तविक रंग विचित्र पाया गया है घास-पात, पेड़-पौधें वस्तुतः बिलकुल सफेद हैं, आसमान समुद्र बिलकुल काले। जबकि पंक्तियाँ हरी और आसमान तथा समुद्र नीले देखते हैं। इन किरणों की सहायता से अमेरिका ने क्यूबा में लगे रुसी प्रक्षेपणास्त्राो के फोटो हवाई जहाज में खींचे थे। आर्श्चय यह कि उसमें वे उन जलती सिगरेटों के फोटो भी आ गये जो 24 घण्टे पहले वहाँ के कर्मचारियों ने जलाई थीं और वे तभी बुझ भी गई थी। दृश्य जगत में पदार्थ समाप्त हो जाने पर भी वह अन्तरिक्ष में अपनी स्थिति बनाये रह सकता है यह यह अजूबा हमें भूत और वर्तमान के बीच खिची हुई लक्ष्मण रेखा से आगे बढ़ा ले जाता है। जो वस्तु अपने अनुभव के अनुसार समाप्त हह्वो गई वह भी अन्तरिक्ष में ‘वर्तमान’ की तरह यथावत् मौजूद है, यह कैसी विचित्रता है।

ट्रेवर जेम्स ने इन्फ्रारेड मूवी फिल्म के लिए प्रयुक्त होने वाले एक विशेष कैमरे आई. आर. 135 का उपयोग करके मोजावे रेगिस्तान के अन्तरिक्ष की स्थिति चित्रित की है। फिल्म में ऐसे पक्षी दिखाई पड़ते हैं जो अपनी आँखों में कभी भी दिखाई नहीं पड़ते।

जीवाणुओं की अपनी अनौखी दुनिया है वे मिट्टी, घास-पात, पानी और प्राणियों के शरीरों में निवास करते और अपने ढर्रे की मजेदार जिन्दगी जीते हैं। पर हम उनमें से कुछ को ही सूक्ष्मदर्शी यन्त्राो से देख पाते हैं। बाकी तो इतने सूक्ष्म हैं कि किसी भी यन्त्र की पकड़ में नहीं आते किन्तु अपने क्रिया-कलाप बड़ी शान के साथ जारी रखते हैं।

शास्त्रकार ने उसे “अणोरणीयान् महतो महीयान्” कहा है। परमाणु से भी गहरी-उसकी संचालनकर्ती सूक्ष्मता को देखा और जाना ता नहीं जा सका पर उसका आभास पा लिया गया है। महतो महीयान् की बात भी ऐसी ही है। विशालकाय ग्रहपिण्ड और नीहारिका समुच्चय अत्यन्त विशाल है इतना विशाल जिसकी तुलना में अपना सौरमण्डल बाल बराबर भी नहीं है। फिर भ वह सब कुद अधिक दूरी होने के कारण दीखता नहीं। रेडियो, दुरबीनें जिन आकाशीय पिण्डों का परिचय देती हैं वह आँखों से देखे जा सकने वाले सितारों की तुलना में अत्यधिक विस्तृत है। आर्श्चय यह है कि यह रेडियो, दुर्बीने भी पूरी धोखेबाज है वे अब से हजारो लाखों वर्ष पुरानी उस स्थिति का दर्शन करती हैं जो सम्भवतः अब आमूलचूल ही बदल गई होंगी सम्भव है वे तारे बूढ़े होकर मर भी गये हों जो हमारी रेडियो, दुरबीनों पर जगमगाते दीखते हैं।

अल्ट्रा वायलेट फोटोग्राफी से ऐसे प्राणियों के अस्तित्व का पता चलता है जो हमारी समझ, परख और प्रामाणिकता के लिए काम में लाई जाने वाली सभी कसौटियों से ऊपर है। इन प्राणियों को ‘प्रेत मानव’ अथवा ‘प्रेत प्राणी’ कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी। अब हमारे परिवार में यह अदृश्य प्राणधारी भी सम्मिलित होने आ रहे हैं। सूक्ष्म जीवाणु की तरह उनकी हरकतें और हलचलें भी अपने अनुभव की सीमा में आ जाँयगी।

हर्बर्ट गोल्डस्टीन ने अपने शोध निबन्ध “प्राँपगेशन आफ शार्ट रेडियो वेब्स” में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि वायुमण्डल में संव्याप्त अपवतानाँव प्रवणता के पर्दे से पीछे अदृश्य प्राणियों की दुनिया है। वह दुनिया हमारे साथ जुड़ी है और दृश्यमान सहचरों से कर्म प्रभावित नहीं करती। वर्तमान सूक्ष्मदर्शी साधन अपर्याप्त हैं तो भी हमें निराश न होकर ऐसे साधन विकसित करने चाहिए जो इस अति महत्वपूर्ण अदृश्य संसार के साथ हमारी अनुभव चेतना का सम्बन्ध जोड़ सकें।

साधारणतया हमारी जानकारी पदार्थ के तीन आयामों तक सीमित है-लम्बाई-चौड़ाई और ऊँचाई। अब इसमें “काल” को चौथे आयाम के रुप में सम्मिलित कर लिया गया है। आइन्स्टीन ने अपने सापेक्षवाद सिद्धान्त की विवेचना करते हुए यह समझने का प्रयत्न किया है कि यह भौतिक संसार वस्तुतः “सयुक्त, चतुर्विस्तारीय दिक् काल जगत्” है। वे देश और काल की वर्तमान मान्यताओं को एक प्रकार से सापेक्ष और दूसरे प्रकार से अपूर्ण अवास्तविक मानते हैं।

कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के डा. राबर्ट सिरगी अपने दल के साथ ऐसे उपकरण बनाने में संलगन हैं जिनसे पदार्थ के चौथे आयाम को समझ सकना सम्भव हो सके। वे कहते हैं जो हम जानते और देखते हैं उनसे आगे की गतियाँ और दिशाएँ मौजूद हैं, हम केवल तीन आयामों की परिधि में आने वाले पदार्थों का ही अनुभव कर पाते हैं जबकि इससे आगे भी एक विचित्र दुनिया मौजूद है। उस विचित्रता को समझे बिना हमारी वर्तमान जानकारियाँ बाल बुद्धि स्तर की ही बनी रहेंगी।

दृश्य का अदृश्य बन जाना और अदृश्य का दिखाई देने लगना मोटी बुद्धि से बुद्धि भ्रम अथवा कोई दैवी चमत्कार ही कहा जा सकता है। इतना होते हुए भी एक ऐसे सूक्ष्म जगत का अस्तित्व मौजूद हैं जो अपने इस ज्ञात जगत् की तुलना में न केवल अधिक विस्तृत वरन् अधिक शक्तिशाली भी है। भूतकाल में उसे सूक्ष्म जगत एवं दिव्य-लोक कहा जाता रहा है। उसमें पदार्थों का ही नहीं प्राणियों का भी अस्तित्व मौजूद है। वे प्राणी मनुष्य की तुलना में बहुत छोटे भी हो सकते हैं और बहुत बड़े भी। आवश्यकता एवं परिस्थितियाँ उनकी भी हो सकती हैं और जिस प्रकार हम उस सूक्ष्म जगत के साथ सम्बद्ध जोड़ने को उत्सुक हैं उसी प्रकार वे भी हमारे सहचरत्व के लिए इच्छुक हो सकते हैं। प्राणियों और पदार्थ का लुप्त एवं प्रकट होते रहना इन स्थूल और सूक्ष्म जगत के बीच होते रहने वाले आदान-प्रदान का एक प्रमाण हो सकता है।

सुप्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक एच. जी. वेल्स ने अपनी एक पुस्तक “दि इन विजिविल मौन” अदृश्य मानव में उन सम्भावनाओं पर प्रकाश डाला है, जिनके अनुसार कोई दृश्य पदार्थ या प्राणी अदृश्य हो सकता है और अदृश्य वस्तुएँ दृष्टिगोचर होने लग सकती हैं। इस विज्ञान की उन्होंने अपर्वतनाँक-रिफ्रैक्टिव इण्डिसेन्स-नाम देकर उसके स्वरुप एवं क्षेत्र का विस्तृत वर्णन किया है।

हम ज्ञात को ही प्रर्याप्त न मानें। प्रत्यक्ष को ही सब कुछ न कहें। प्रस्तुत मस्तिष्कीय और यान्त्रिक साधनों को सीमित मानकर न चलें और जो अविज्ञात है उसकी शोध में बिना किसी पूर्वाग्रह के लगे रहें तो इस अणोरणीयान् महतो महीयान् जगत के वे रहस्य जानने की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं जो अभी तक नहीं जाने जा सके।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles