सद्गुरु प्राप्त कर सकने का असाधारण सौभाग्य

September 1975

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सद्गुरु की महिमा गाते-गाते शास्त्रकार थकते नहीं। मनीषियों ने निरन्तर यही कहा है कि आत्मिक प्रगति के लिए गुरु की सहायता आवश्यक है। इसके बिना आत्म-कल्याण का द्वार खुलता नहीं। साधन सफल होता नहीं। सामान्य जीवन-क्रम में माता, पिता और गुरु को देव मान गया है और उनकी अर्भ्यथना समान रुप से करते रहने का निर्देश किया गया है।

सामान्य अर्थ में शिक्षक को गुरु कहते हैं। साक्षरता का अभ्यास कराने वाले-शिल्प-उद्योग, कला, व्यायाम आदि क्रिया कौशलों की शिक्षा देने वाले भी गुरु ही हैं। तीर्थगुरु, ग्रामगुरु, कुलगुरु आदि कितने ही उनके नियमित वर्ग भी ब गये हैं। असाधारण चातुर्य में प्रवीण व्यक्ति को भी व्यंग में गुरु कहते हैं। जिसका वास्तविक अर्थ होता है हरफनमौला-तिकड़मी अथवा धूर्तराज। कितने ही लोग धर्म की आड़ में चेली-चेला मुँडने का धन्धा परम्परा के आधार पर ही चलाते हें। हमारा बाप तुम्हारे बाप का गुरु था इसलिए हम तुम्हारे गुरु बनेंगे यह दावा करने वाला और इसी तर्क से प्रभावित करके अपना धन्धा चलाने वाला एक बहुत बड़ा वर्ग मौजूद है। परम्परावादी लोगों के गले यह दलील उत्तर भी जाती है और वे योग्य अयोग्य का विचार किये बिना इन तथाकथित गुरुओं का नमन करते हुए भेंट पूजा करते रहते हैं। गले में कण्ठी बँधाई और कान फुकाए तो आजीवन कुछ दान-दक्षिणा देते ही रहनी पड़ेगी। शिष्य लोग इस प्रकार से धर्म सन्तोष कर लेते हैं, भले ही वह निराधार हो। गुरु लोग इस विडम्बना को मुफ्त में मान और धन प्राप्त करते रहने का एक र्स्वण सुयोग मानकर अपने सौभाग्य पर गर्व करते हैं। इस विडम्बना को जड़ जमाये हुए किसी भी बौद्धिक क्षेत्र में पिछड़े हुए क्षेत्र में आसानी से देखा जा सकता है।

यह तो प्रचलन की बात हुई। परम्परा से परम्परा-ढर्रा से ढर्रा-मुक्ताचीनी करने की गुँजाइश नहीं रहती। लोगों की बुद्धि भी विलक्षण है। एक ओर जहाँ फूँक-फूँककर कदम रखने और गुण, दोष परखने की क्षमता पाई जाती है दूसरी ओर परम्परागत बातों में उनका अर्न्तमन इतना रुढ़िवादी हो जाता है कि ढर्रे को ही सही मानते रहने की अतिरिक्त उनकी बौद्धिक क्षमता एक इन्च भी आगे नहीं बढ़ पाती। कितने ही क्षेत्र में बड़े तार्किक और प्रतिभाशाली व्यक्ति कितनी ही ऐसी रुढ़ियों एवं मान्यताओं में जकड़े देखे जाते हैं जिनको तात्विक दृष्टि से देखने पर उपहासास्पद और निरर्थक ही ठहराया जा सकता है। इतने पर भी वे लोग इस बुरी तरह उनसे चिपके होते हैं मानो यथार्थता की कसौटी पर कसकर ही उन्होंने उस मान्यता को अंगीकार किया हो। यह कैसी विचित्रता है कि एक ही व्यक्ति एक दिशा में प्रखर बुद्धि और दूसरे क्षेत्र में सर्वथा मूढ़मति सिद्ध होता है।

गुरुवाद के ऊपर यह बात आर्श्चयजनक रुप से लागू होती है। कोई विरला ही ऐसा होगा जो इस क्षेत्र में उपयोगिता, आवश्यकता एवं यथार्थता की कसौटी लेकर आगे बढ़ता हो। अनुकरण, अतिशयोक्ति, मूढ़ मान्यताओं एवं अन्ध परम्पराओं का ही उस क्षेत्र में बोलबाला रहता है। अस्तु गुरु शिष्य परम्परा का वर्तमान स्वरुप लगभग वैसा बन गया है जिसे विचारशील अनावश्यक ही नहीं अवाँछनीय भी कह सकते हैं। इस रुढ़ि से आत्मिक प्रगति का नहीं अवगति का ही द्वार खुलता है।

शास्त्रकारों ने जिस गुरु तत्व की महिमा का वर्णन और आवश्यकता का निरुपण किया है वह प्रचलित विडम्बना के साथ कोई ताल-मेल नहीं खाता। शब्द साम्य भर उनमें है तात्विक अन्तर तो उनके बीच जमीन-आसमान जितना है। शास्त्र सम्म्मत गुरु तत्व और विडम्बनाग्रस्त गुरु वस्तुतः एक दूसरे से सर्वथा भिन्न है।

जिस सद्गुरु का माहात्म्य वर्णन शास्त्रकारों ने किया है वह वस्तुतः मानवी अन्तःकरण ही है। निरन्तर सद्शिक्षण और ऊर्ध्वगमन का प्रकाश दे सकना इसी केन्द्र तत्व के लिए सम्भव है। बाहर के गुरु शिष्य की वास्तविक मनःस्थिति का बहुत ही स्वल्प परिचय प्राप्त कर सकते हैं, अस्तु उनके परामर्श भी अधूर ही रहेंगे। फिर कोई बाहरी गुरु हर समय शिष्य के साथ नहीं रह सकता जबकि उसके सामने निरुपण और निराकरण के लिए अगणित समस्याएँ पग-पग पर-क्षण-क्षण में - प्रस्तुत होती रहती हैं। इनमें से किस का किस प्रकार समाधान किया जाय? इसका मार्ग-दर्शन करने के लिए किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं रहा जा सकता, भले ही वह कितना ही सुयोग्य क्यों न हो। सुयोग्य व्यक्ति अपने गज से सबको नाप सकते हैं और ऐसी सलाह दे सकते हैं जो उन्हीं के लिए फिट बैठतीं। दूसरों की स्थिति में भिन्नता रहने से परामर्श का स्तर भी बदल जाता था-यह अन्तर कौन करे? इसे केवल अपना अन्तःकरण ही कर सकता है। क्योंकि भीतरी और बाहरी परिस्थितियों की वास्तविक जानकारी जितनी अपने आपको हो सकती है उतनी और किसी को नहीं।

अपने अन्तःकरण को निरन्तर कुचलते रहने-उसकी पुकार को अनसुनी करते रहने से आत्मा की आवाज मंद पड़ जाती है। पग-पग पर अत्यन्त आवश्यक और अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रकाश देते रहने का उसका क्रम शिथिल हो जाता है। आत्मा की अवज्ञा करते रहने वालों को ही दुर्बुद्धिग्रस्त और दुर्ष्कम लिप्त पाया जाता है अन्यथा सजीव आत्मा की प्रेरणा सामान्य स्थिति में इतनी प्रखर होती है कि कुमार्ग का अनुसरण कर सकना मनुष्य के लिए संभव ही नहीं होता। यह आत्मिक प्रखरता ही वस्तुतः सद्गुरु है इसी का नमन, पूजन और परि-पोषण करना गुरु भक्ति का यथार्थ स्वरुप है।

गुरु-दीक्षा इस व्रत धारण का नाम है कि “हम अन्तरात्मा की प्रेरणा का अनुसरण करेंगे।” ऐसा निश्च करने वाला व्यक्ति मानवोचित चिन्तन और कतृत्व से विरत नहीं हो सकता। जैसे ही अचिन्त्य चिन्तन मनःक्षेत्र में उभरता है वैसे ही प्रतिरोधी देवतत्व उसके दुष्परिणामों के सम्बन्ध में सचेत करता है और भीतर ही भीतर एक अन्तर्द्वन्द उभरता है। यदि अन्तःचेतना को कुचल-कुचलकर मूर्च्छित न बनाया गया तो वह इतनी प्रखर होती है कि अचिन्त्य चिन्तन के साथ विद्रोह खड़ा कर देती है और उस अवाँछनीय विजातीय तत्व के पैर उखाड़ कर ही दम लेती है।

रक्त के श्वेत कण शरीर में रोग विषाणुओं के प्रवेश करते ही उनसे लड़ने के लिए एकत्रित हो जाते हैं और उन विषाणुओं को पूरी तरह खदेड़ देने तक प्रबल संघर्ष करते रहते हैं। रक्त को पहले से ही विषाक्त या दुर्बल बना लिया हो तो बात दूसरी है अन्यथा श्वेत रक्त कण शरीर को रोगों के आक्रमण से बचाये रहने का अपना उत्तरदायित्व पूरी तरह निभा देते हैं। ठीक इसी प्रकार चेतना के क्षेत्र में अन्तःचेतना द्वारा यही उत्तरदायित्व निवाहा जाता है। अनैतिक और निकृष्ट स्तर का कोई विचार उस मस्तिष्क में देर तक अपने पैर नहीं जमा सकता जिसका संरक्षण आन्तरिक ‘सद्गुरु’ सतर्कतापूर्वक कर रहा है। सद्विचारों की रक्षा पंक्ति को भेदकर मानवी चेतना पर दुर्विचारों का आधिपत्य जम सकना तभी संभव होता है जब अन्तरात्मा मूर्छित या मृतक स्थिति में पहुँचा दी गई हो।

कुकर्म करते समय-शरीर गत दिव्य चेतना का विद्रोह देखते ही बनता है। पैर काँपते हैं, दिल धड़कता है, गला सूखता है, सिर चकराता है और भी न जाने क्या क्या होता है। ध्यानपूर्वक देखने से कुकर्म के लिए कदम बढ़ाते समय की भीतरी स्थिति ऐसी होती है, मानो किसी निरीह पशु को वध करने के लिए ले जाते समय कातर स्थिति में देखा जा रहा हो। सामान्य व्यक्तियों में से अधिकाशं की आन्तरिक स्थिति ऐसी हो जाती है कि वे उस अवाँछनीय कर्य को पूरा कर ही नहीं पाते, विचार अधूरा छोड़कर अथवा असफल होकर वापिस लौट आते है। वस्तुतः यह पराजय-यह असफलता उस अर्न्तद्वन्द्व से ही उत्पन्न की होती है जो कुकृत्य न करने के पक्ष में प्रबल प्रतिपादन कर रहा था। सद्गुरु डुबते को उबारते हैं वाली उक्ति ऐसे ही अवसरों पर सर्वथा लागू होती है।

जिन्हें क्रूर कर्म करने होते हैं वे प्रायः उसके लिए गहरा नशा कर लेते हैं ताकि अन्तःचेतना उस कुकृत्य को करने से रोकने की बाधा उपस्थिति न करे। हत्या करने जैसे कार्य तो शराब जैसे नशे पिये बिना किसी उस कला में पराँगत व्यक्ति से ही हो पाते हैं। नशे का प्रचलन न हो पाता तो सम्भवतः आधे से अधिक दुर्ष्कम सम्भव ही न हो पाते और मस्तिष्क का आधा भाग, आधा समय जिस अचिन्त्य चिन्तन में रुचिपूर्वक संलग्न रहता है वह बात भी न बन पाती। अन्तरात्मा की पुकार को निरस्त करने में नशे ने शैतान के प्रमुख शस्त्र का काम किया है।

अन्तरात्मा को कुचलते जाना, अपने आपको सर्वतोमुखी पतन के गर्त में धकेलना है। उज्ज्वल भविष्य को अन्धकारमय बनाने का प्रधान कारण आत्मा की पुकार को अनसुनी करते हुए उसे क्षीणतम दीन-दुर्बल बनाते जाना ही है। स्थिर और उच्चस्तरीय प्रगति के लिए उत्कृष्ट गुण, कर्म, स्वभाव की आवश्यकता पड़ती है। व्यक्तित्व इसी आधार पर निखरता है और प्रतिभा इसी सम्बल के सहारे उभरती है। सफल जीवन-प्रबल पुरुषार्थी महामानवों की प्रधान विशेषता उनका मनस्वी होना ही है। मनस्वी वे हैं जो बाहरी प्रलोभनों एवं परिस्थितियों की परवान करते हुए उच्च आदर्शों के लिए अपनी विचारणा एवं क्रियाशीलता को व्यवस्थित रुप से सँजोया करते हैं। ऐसे लोग बाहरी परामर्थ की अपेक्षा नहीं करते और न जन-प्रवाह किधर बहता जा रहा है यह देखते हैं। उन्हें अपनी जीवन नीति अन्तरात्मा की पुकार को प्रधानता देते हुए निर्धारित करनी पड़ती है। जो इतना साहस सँजो सके उन्हीं को असाधारण, अति मानव बनने का सुअवसर मिला है। इसे सद्गुरु कृपा का सबसे बड़ा अनुग्रह एवं वरदान कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

शास्त्रकारों ने सद्गुरु का वंदन करते हुए उसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश की उपमा दी है। परमानन्ददायक परब्रह्म कहा है। यह उपमा किसी व्यक्ति विशेष के लिए प्रयुक्त नहीं हो सकती भले ही वह कितना ही सुयोग्य क्यों न हो। यह वर्णन विशुद्ध रुप से परिष्कृत अन्तःकरण के लिए ही किया गया है। गुरु को गोविन्द से बढ़कर मानने की मान्यता अन्तरात्मा को परमात्मा का उपलब्धि आधार समझने के लिए ही प्रतिष्ठापित की गई है। निरन्तर सत्परामर्श देने के लिए अहर्निशि साथ रहना उसी के लिए सम्भव है। अपनी वस्तुस्थिति की समझने और तदनुरुप प्रगति पथ पर आगे बढ़ने का क्रम निर्धारण कर सकना उसी के लिए सम्भव है। अस्तु सद्गुरु की उपमा ऐसी परिष्कृत और प्रखर अन्तरात्मा को ही दी गई है जो अवाँछनीयता को डटकर प्रतिरोध खड़ा कर सके और अकर्म में उद्यत उन्मुक्त हाथी जैसे दुस्साहस को जंजीरों में जकड़ कर उलटा टाँग सके।

व्यक्ति विशेष को गुरु मानने की भी आवश्यकता पड़ती है, पर उसका कार्य सद्गुरु की पहचान करा देता-उसका भक्त उपासक बना देना भर है। इतने भर से उसकी आवश्यकता पूरी हो जाती है। किसी व्यक्ति को सद्गुरु कहना उसकी सहकारिता का पोषण करना है। यात्रा पूरी करने में टाँगों की ही प्रधान भूमिका रहती है लाठी तो सहारा भर देती है। सद्गुरु हमें पार उतारते हैं उन्हें प्राप्त करने के लिए शरीरधारी गुरु भी अपने ढंग की आरम्भिक किन्तु महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न करते हैं इसलिए पूजन-वन्दन उनका भी किया जाता है।

सद्गुरु भक्ति को ईश्वर भक्ति के तुल्य माना गया है, पर वह बात सही तभी सिद्ध होगी जब अन्तःकरण को सद्गुरु माना जाय और उसे स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन जैसी सेवा साधना के आधार पर प्रखर और परिष्कृत बनाया जाय। हर कुविचार की काट कर देना और कुकर्म में प्रतिरोध कर सकना सद्गुरु का ब्रह्म तेजस है जिसके कारण उसे ब्रह्मानि की उपमा दी गई हैं। सत्पवृत्तियों को उभार सकना-सद्भावनाओं को समर्थ बना सकना-सद्गुरु का अनुदान वरदान है। जब अपना अन्तःकरण ज्ञान भक्ति की विविध साधना से सम्पन्न होकर शिष्य के व्यक्तित्व का छा जाने योग्य बन जाय तो समझना चाहिए कि सच्चे सद्गुरु के मिलन का सौभाग्य प्राप्त हो गया। शिष्यत्व के साथ जो दीक्षा संकल्प जुड़ा रहता है वह यही है कि सद्गुरु के निर्देश को शिरोधार्य किया जायगा उसकी प्रेरणा का सच्चे हृदय से अनुगमन किया जायगा। ऐसी ही गुरु भक्ति को ईश्वर भक्ति के तुल्य ठहराया गया है। वास्तविकता भी ऐसी ही है।


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