आदमी मर गया या अभी जीवित है, इसकी घोषित मान्यता यह है-कि मस्तिष्क काम करना बन्द कर दे। इलेक्ट्रोएन से फेलोग्राम (ई. ई. जी.) मस्तिष्कीय कम्पनों की हरकत अकिंत करने से इनकार कर दे तो समझना चाहिए कि आदमी मर गया। ऐसे व्यक्ति को मृतक घोषित करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। चिकित्सा जगत की पूर्व मान्यता यही है। फ्राँस की नेशनल मेडिकल ऐकेडेमी के एक मृत्यु के फैसले को कानूनी मान्यता दिलाने के लिए विधिवत यह घोषणा करनी पड़ी थी कि यदि किसी व्यक्ति का ई. जी. 48 घण्टे तक लगातार निष्क्रियता प्रकट करता रहे तो उसकी ‘कानूनी मृत्यु’ घोषित की जा सकती है।
मृत्यु की परिभाषा करते हुए मस्तिष्क विशेषज्ञ डा. हैनीवल, हैयलिन ने भी यही कहा था-मस्तिष्क की मृत्यु को अन्तिम मृत्यु कहा जा सकता है। हारवर्ड मेडीकल कालेज के डा. रावर्ट एस. श्राव ने भी यही मत निर्धारित किया था कि यदि मस्तिष्क जवाब दे गय है तो हृदय को पम्प करके जीवित रखने का प्रयत्न करना बेकार है।
इस पूर्व मान्यता को झुठलाने वाली एक घटना अंकारा युनिवर्सिटी के डाक्टर ने स्वयं ही प्रस्तुत कर दी। डा. रील 30 वर्ष के नवयुवक थे। वे एक मरीज का एक्सरे ले रहे थे कि गलती से बिजली का नंगा तार छू गये। जोर का आघात लगा और उनके दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया। ई. ई. जी. के हरकत ने करने के आधार पर उन्हें मृतक घोषित कर दिया जाना चाहिए था, पर वैसा किया नहीं जा सका। क्योंकि उस हालत में भी उनके चेहरे पर और उँगलियों में हरकत पाई गई। उनकी आँखें खुली हइु थीं और कभी-कभी पलक झपकते देखे गये। डाक्टरों ने उनके मुँह में नली डालकर पेट में वेवीफ्रुड, फलों का रस, सीरस आदि पहुँचाया फलतः उनका दिल तक दूसरे अंग काम करते रहे।
इस विलक्षण जीवित मृतक को देखने के लिए अमेरिका, जापान, रुस, इंगलैंड, फ्राँस और जर्मनी के डाक्टर हवाई जहाजों से अंकारा पहुँचे और यह देखकर चकित रह गये कि मस्तिष्क के पूर्णतया निष्क्रिय हो जाने पर भी डा. रील पौधे की तरह जी रहे थे और उन्हें माँस का पौधा कहा जाने लगा। यों रोगी को जीवित तो न किया जा सका, पर आशा से बहुत अधिक दिनों तक वे जिये।
इससे इस नये सिद्धान्त की पुष्टि हुई कि मस्तिष्क का वह भाग जो ई. ई. जी. की पकड़ में आता है उससे भी भीतर एवं उससे भी गहरी कोई और सत्ता है जो जीवन के लिए मूल रुप से उत्तरदायी है। मस्तिष्क तो उस चेतना का एक औजार मात्र है।
जापान की कोवे युनिवर्सिटी के प्रो. स्यूडा डा. के किटो और डा. सी. आदाशी के त्रिगुटु ने मृत दिमाग को जीवित और जीवित को मृतक बनाने में एक नई सफलता प्राप्त की है। उन्होंने बिल्ली का दिमाग निकाल कर शून्य से 20 डिग्री नीचे शीत वातावरण में जमा कर रखा और 203 दिन बाद उसे धीरे-धीरे तापमान देकर पुनः सक्रिय किया। भय था कि आक्सीजन के अभाव में मस्तिष्क की कोशिकाएँ मर गई होंगी और दिमाग निकम्का हो गया होगा, पर वैसा हुआ नहीं। 203 दिन तक भी दिमाग जीवित रहा और उसे फिर सक्रिय बनाकर दूसरी बिल्ली के मस्तिष्क में फिट किया जा सका।
पिछले दिनों वैज्ञानिक क्षेत्रों में आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को अमान्य ठहराया जाता रहा है और कहा जाता रहा है कि मस्तिष्क ही आत्मा है और उसकी गतिविधियाँ समाप्त होते ही आत्मा का अन्त हो जाता है। नास्तिकवादी मान्यता मनुष्य को चलता-फिरता, पेड़-पौधा भर बताती रही है और कहती रही है कि शरीर के साथ ही जीवन का सदा के लिए अन्त हो जाता है। पर विज्ञान की नवीनतम शोधों ने सिद्ध किया है-मस्तिष्क चेतना के प्रकटीकरण का एक उपकरण मात्र है मूल चेतना उससे भिन्न है और मस्तिष्कीय गतिविधियाँ समाप्त हो जाने पर भी वह अपना काम काम करती रह सकती है। यह आस्तिकवादी सिद्धान्त का प्रकारान्तर से समर्थन ही माना जायगा।