मानसिक रोग कितने विचित्र, कितने भयावह

September 1975

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अमातौर से ऐसा समझा जाता है कि इच्छित परिस्थितियाँ प्राप्त होने पर मनुष्य सुखी होता है। पर वास्तवकिता इससे सर्वथा विपरी है। परिष्कृत दृष्टिकोण से सोचने का तरीका इतना सरल और सुन्दर होता है कि सामान्य वस्तुएँ भी सुन्दर लगती हैं। अन्धेरे में जो वस्तुएँ अदृश्य रहती हैं अथवा काली लगती हैं वे ही प्रकाश की किरणें पड़ने पर अपना पूरा स्वरुप दिखाती हैं और चमकने लगती हैं। यही बात परिष्कृत मनःस्थिति के संबंध में है। सोचने की प्रकाशवान प्रक्रिया को ऐसा दिव्य आलोक कहा समझा जा सकता है जिसके प्रकाश में सारा समीपवर्ती क्षेत्र अन्धकार की कालिका में से निकल कर मनोरम आभा लिये हुए दिखाई देने लगे।

जर्मन पत्रिका ‘मेडिजिनिशे क्लीनिक’ में छपे एक विस्तृत लेख में कई शरीर विज्ञानियों के अनुभवों का साराँश छपा है जिसमें बताया गया है कि दर्द में जितना अंश शारीरिक कारणों का होता है उसमें कहीं अधिक मानकिस तथ्य जुड़े होते हैं। ऐसे प्रयोग किये जा चुके हैं जिनमें मात्र पानी की सुई लगाकर रोगी को यह बताया गया है कि ‘यह गहरी नींद की दवा है’, उसी से दर्द पीड़ितों का दर्द बन्द हो गया और वे सो गये। इसके विपरीत मर्फिया के इजेन्शन देकर यह कहा गया है कि, “यह हलकी दवा है शायद इससे थोड़ा बहुत दर्द हल्का पड़े और संभव है कुछ नींद आये।” यह सन्देह उत्पन्न कर देने पर रोगी दर्द की शिकायत कर सके और अधूरी निद्रा में झपकी लेते रहे। इस प्रयोग के बाद उन्हीं इंजेक्शनों को जब विपरीत व्याख्या करते हुए भिन्न दवा बनाकर रोगियों को दिया गया तो उसकी पहले की अपेक्षा सर्वथा भिन्न प्रतिक्रिया हुई। पहले दिन पानी का इन्जैक्शन जब मामूली दवा बताकर लगाया गया तो उसने दर्द कम नहीं किया और मर्फिया को बड़ी शक्ति का बताकर निश्चित रुप से नींद का आश्वासन देकर लगाया गया तो रोगियों को गहरी नींद आई। इन प्रयोगों से डाक्टर इस निर्ष्कष पर पहुँचे कि दवाएँ जितना परिणाम प्रस्तुत करती हैं उससे अधिक प्रभाव मान्यताओं का होता है।

एक ही स्तर के दर्द को भिन्न-भिन्न मनःस्थिति के लोग अलग अलग तरह अनुभव करते हैं। डरपोक रोगी इतने से ही दर्द में बेतरह चीखते चिल्लाते हैं। मध्यम मनःस्थिति वाले मात्र हलके हलके कहराते रहते हैं। साहसी लोग उसी कष्ट को बहुत हल्का मानते हैं। युद्ध मोर्चे के घायल अपनी बहादुरी की मान्तया के आवेश में कम कष्ट अनुभव करते हैं और कम चीखते चिल्लाते हैं जब कि उतने ही कष्ट में सामान्य लोग तीन गुना अधिक दर्द अनुभव करते हैं।

भावनात्मक स्थिति भी कई बार दर्द में परिणत हो जाती है। सिर दर्द, पेट का दर्द, जोड़ों का दर्द, छाती का दर्द, कमर का दर्द बहुत करके मनोवैज्ञानिक कारणों से होते हैं। इनके मूल में कोई चिन्ता, आशंका भय की भावी कल्पना अथवा भूत काल की कोई दुखद स्मृति काम करती रहती है। मन की वह विपन्न अवस्था शरीर के किन्हीं अंगों पर आच्छादित होकर उन्हें पीड़ा अनुभव कराती है जब कि शारीरिक दृष्टि से उन अवयवों में उस तरह के कष्ट का कोई कारण नहीं होता।

कई बार ऐसी स्थिति भी देखी गई है कि डाक्टर अपने समस्त निदान परीक्षण करने के उपरान्त भी रोगी में कोई अस्वस्थता का कारण नहीं दीखता और रोग का कारण जानने में अपनी असमर्थता प्रकट करता है। किन्तु रोगी बराबर कष्ट से पीड़ित रहता है। दिन-दिन दुबला होता जाता है और साधारण काम काज कर सकने में भी समर्थ नहीं रहता, उसका पीड़ा जन्य कष्ट स्पष्ट दीखता है। ढोंग बनाने का कोई कारण नहीं होता। क्योंकि दूसरों पर नहीं उस रुगणता का पूरा भार अपने ही कंधों पर आता है।

इस विचित्र स्थिति में मनोवैज्ञानिक कारण ही कमा कर रहे होते हैं। कोई पुरानी आघात करने वाली अनुभूति मस्तिष्क के किसी भाग पर आक्रमण करती है और उसे अकचका देती है। चूँकि मस्तिष्क की प्रत्येक कोशिका अपने सूत्र तन्तुओं के सहारे अन्य अनेक कोशिकाओं के साथ जुड़ी होती है और उनसे कई तरह के आदान-प्रदान करती रहती है। इसी प्रक्रिया के अर्न्तगत लगे हुए आघात अपने संबंद्ध केन्द्र को प्रभावित करने तक सीमित न रहकर जब शरीर के किसी अन्य अवयव से संबंद्ध केन्द्र से जा टकराते हैं तो वह अंग ही रुगणता अनुभव करने लगता है। वह अंग शारीरिक दृष्टि से निरोग होता है, पर मस्तिष्क विद्युत प्रवाह उस स्थान पर ठीक तरह नहीं पहुँच पाता क्योंकि संप्रेषण वाले मस्तिष्कीय कोष रुगणवास्था में पड़े हैं। प्रेषण की गड़बड़ी उस अंग को पूरी खुराक और सही निर्देश नहीं दे पाती इस विचित्र स्थिति की अनुभूति मस्तिष्क के अन्य तन्तुओं को अमुक रोग जैसी होती है। रोगी वस्तुतः उन्हीं कष्टों से पीड़ित होता है जैसा कि वह बताता है। पर डाक्टर क्या करे, उसकी परीक्षा पद्धति तो अंगों के रक्त माँस आदि से संबंधित स्थिति के आधार पर बनी है। मानसिक भूल भुल्लैयों की उसे जानकारी नहीं होती। अस्तु ऐसे रोगियों को किसी मानसोपचारक के पास जाने की सलाह देकर वह अपना पीछा छुड़ा लेता है। अनिश्चित स्थिति में वह उपचार करे भी तो क्या करे।

मानसिक आघात लगना किस कारण से होता है इसका भी एक जैसा विवेचन नहीं होता। कई व्यक्ति आये दिन अपमान सहते हैं और उसके अभ्यस्त हो जाते हैं उन पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता, पर कोई ऐसे भी होते हैं जो उतनी सी बात को अत्यधिक महत्व देकर तड़प उठते हैं। द्रौपदी ने दुर्योधन से एक निर्दोष मजाक करते हुए ही यह कहा था कि ‘अन्धों के अन्धे होते हैं।’ उल्टी व्याख्या करके उसे असभ्य अपराध मान लिया गया और प्रतिशोध की चरम सीमा का दंड उसे दिया गया। अपनी दृष्टि में दुर्योधन भी सही हो सकते हैं। उनके मस्तिष्क ने उन शब्दों को तिलमिला देने वाला अपमान समझा हो उस आघात को गहराई के समतुल्य प्रतिशोध ढूँढ़कर अपने आघात को हलका करने का उपाय निकाला हो। ऐसे ही हर व्यक्ति की अपनी-अपनी व्याख्या और अनुभूति होती है कौन किस घटना को किस दृष्टि से देखेगा और उसकी प्रतिक्रिया ग्रहण करेगा इसका कोई निश्चित माप दण्ड निर्धारित है कि इस सीमा का असामाजिक आचरण करने पर उसे दंडनीय माना जायगा पर उसमें भी अपराधी की नीयत, परिस्थिति, प्रतिक्रिया आदि का ध्यान रखा जाता है। संभव है अपराध गलती, गफलत या भ्रान्त स्थिति में बन पड़ा हो, ऐसी दशा में दंड हलका दिया जाता है। मन के लिए ऐसी आचार संहिता निर्धारित नहीं कि वह किस घटना को किस रुप में ग्रहण करे। यदि कोई घटना अप्रिय या अवाँछनीय स्तर की समाने आई है तो उसका आघात किस पर कितना पड़ेगा यह उसकी भावुकता एवं विचार शक्ति के समन्वय पर निर्भर है।

कितने ही व्यक्तियों के सामने हत्या, मारकाट, उत्पीड़न के दृश्य आते ही रहते हैं उन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता किन्तु किसी अनभ्यस्त और भावुक व्यक्ति पर उन्हीं घटनाओं का इतना प्रभाव पड़ सकता है कि वह किसी भयंकर अवसाद में डूब जाय अथवा विक्षिप्ति हो उठे। अपमान, असफलता, हानि, विछोह, जैसी अप्रिय घटना, यों मनुष्य जीवन का एक पक्ष है और वह भी घटित होता ही रहता है। सम्मान, सफलता, लाभ, मिलन जैसे प्रसन्नतादायक प्रसंग आते हैं तो उससे भिन्न प्रकार की घटनाएँ क्यों घटित न होंगी। रात और दिन के विपरीत प्रसंगों की तरह जीवन की संरचना प्रिय और अप्रिय घटनाओं के लाने वाले से हुई है। सदा एक जैसी स्थिति में विशेषता प्रिय स्थिति में सदा सर्वथा के लिए बने रहना किसी के लिए भी संभव नहीं। उतार चढ़ावों का आना स्वाभाविक है। धनवान, विद्वान, बलवान, व्यक्ति को भी प्रियजनों का विछोह बढ़ी-चढ़ी महत्वाकाँक्षाओं में असफलता, शारीरिक रुगणता, मित्रों का छल-कपट दुख का कारण बन सकता है। सबसे बड़ी बात है अपने रचे हुए कल्पना लोक में अवाँछनीय चिन्तन का चल पड़ना। आशंकाएँ प्रायः इसी स्तर की होती हैं। दूसरे व्यक्तियों का व्यवहार, परिस्थितियों का प्रवाह निकट भविष्य में हमारे प्रतिकूल चलेगा और उससे भयंकर विपत्ति आवेगी ऐसा चिन्तन कितने ही व्यक्ति करते और अत्यधिक उद्विग्न रहते हैं। जब कि वैसा व्यवहार एवं घटनाक्रम कदाचित ही सामने आता है। अधिकाँश आशंकाएँ निर्मूल होती हैं। वे कल्पना लोक की काली घटाएँ बरसती नहीं केवल गर्जन तर्जन करके चली जाती हैं। पर इससे क्या, जिसने आशंकाओं की भयभीत करने वाली कल्पनाओं का जाल बुना था उसके लिए तो वही असह्य पीड़ा देने के लिए बहुत बड़ा कारण बन गया।

मानसिक आघात विपरीत परिस्थितियों के वास्तविक एवं काल्पनिक घटनाक्रमों के सहारे लगते हैं। अब यह व्यक्ति की भावुकता या संवेदना शक्ति पर निर्भर है कि वह उन्हें ऐसे ही मजाक में टाल देता है-साहस समेट कर निपटने का फैसला करता है, या भयभीत होकर असन्तुलित हो बैठता है। यदि व्यक्ति डरपोक प्रकृति का और अति भावुक है तो उसके लिए छोटी घटना भी बहुत बड़ी हो सकती है और उन्हीं सी अशुभ कल्पना से तिलमिला कर उद्विग्न हो सकता है। जो हा आघातों का पूरे मानसिक संस्थान पर बहुत बुरा असर पड़ता है। इसकी प्रतिक्रिया शरीर पर भी भयंकर होती है। ज्वर, सिर दर्द आदि की स्थिति में शरीर असहाय बन जाता है। उसे कुछ करते धरते नहीं बनता, बेचेनी सताती है। मानसिक असन्तुलन इससे भी बुरी स्थिति पैदा कर देता है। पूरे शरीर पर मन का नियंत्रण है। रक्त माँस से नहीं मानसिक निर्देशों से ही देह अपनी गाड़ी चलाती है। मन के विकृत होने पर शरीर का स्वस्थ बने रहना असंभव है। चिकित्सा शास्त्र द्वार निर्धारित निदान व्यवस्था का व्यतिक्रम करके मनुष्य ऐसे रोगों में ग्रसित हो सकता है जो शरीर शास्त्रियों की पकड़ से बाहर हैं।

मानसिक रोग उत्पन्न करने वाले आघात अमुक घटनाओं या परिस्थितियों के कारण लगेंगे ऐसा कुछ निश्चित नहीं। यह व्यक्ति के अपने निजी स्तर पर निर्भर है कि वह किस प्रकार की घटनाओं को किस दृष्टि से देखता है और उनकी क्या प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है। एक ही घटना की अनेक व्यक्तियों पर परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएँ हो सकती है। घटनाओं को रोका नहीं जा सकता है। समाज का पुनर्निर्माण हो, व्यक्तियों के स्वभाव व्यवहार बदलें, यह दोनों ही बातें संसार से मानसिक रोगों को दूर कर सकती हैं, पर वैसी स्थिति बनना आज की स्थिति में कठिन है। तत्काल तो यही हसे सकता है कि मनुष्यों को सोचने का सही तरीका सिखाया जाय ताकि वे परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठा सकें औ अपनी चिन्तनात्मक दुर्बलता के कारण ऐसे मानसिक रोगों से अपना बचाव कर सकें जो उनके जीवन क्रम को एक प्रकार से अस्तव्यस्त और निरर्थक बना कर रख देते हैं।

भूत प्रेत और देवी देवता जादू टोना से होने वाली हानि असंख्यों को पीड़ित करती है। अवास्तविक की ऐसी प्रतिक्रिया जो वास्तविकता से किसी भी प्रकार कम नहीं होती, आर्श्चय जनक है। अवास्तविक भूत प्रेतों से भाक्रान्त व्यक्ति वस्तुतः उतना ही कष्ट उठाता है जितना कि वास्तविक भूत होते तो अपने आक्रमण से हानि पहुँचाते। दूसरों से भारण, उच्चाटन, वशीकरण करके हमें सताया जा रहा है। यह मानकर कितने ही व्यक्ति वस्तुतः उद्विग्न, विक्षिप्त एवं परमासन्न होते देखे गये हैं। कितनी ही जानें इस कुचक्र में चली जाती है। अधोरी, ताँत्रिक, कापालिक, डायने कितने ही लोगों के लिए आँतक का कारण बनते हैं, कितने ही राहु, शनिचर आदि की अशुभ ग्रह दशा की कल्पना से हर घड़ी चिन्ता ग्रस्त रहते हैं, कईयों को स्वप्न की डरावनी घटना, अपशंकुशों की सूचना बहुत कष्ट कारक होती है। यह आशंकाएँ प्रायः सर्वथा निर्मूल होती हैं, इनके पीछे तथ्य राई रत्ती भी नहीं होता, पर जिस पर उनका आँतक छा गया है, उनकी दयनीय मनोदशा देखकर तरस आता है। यह लोग एक संवेदन के शिकार होते हैं। किसी औंधे-सीधे आधार के सहारे उनकी आशंका इस स्तर की विभीषिका बन जाती है कि मनुष्य को प्राण संकट जैसी भयभीत स्थिति में होकर गुजरना पड़ता है। झाड़-फूँक, मंत्र तंत्र से कई मनुष्यों को बहुत राहत मिलती है और संतोषजनक लाभ होता है। यह सब क्या है? निश्चित रुप से यह उस व्यक्ति की स्वसंवेदना ही है जो विधेयक बनकर सामने आई और उत्साह प्रदान करके सरल स्वाभाविक अच्छी स्थिति को जादू का परिणाम बताकर अपना वरदान दे गई है। पिछ़डे हुए लोगों में अभी भी भूत पलीतों और जादू टोनों का पूरा जोर है। उससे वे वस्तुतः हानि उठाते और लाभान्वित होते हैं। यह चमत्कार अपनी कल्पना शक्ति एवं मान्यताओं का है जो अवास्तविक को भी प्रत्यक्ष वास्तविकता से भी बढ़कर तथ्यमय बना देती है।

मानसोपचार कर्ता डा. फ्लीडर्ड ने अपनी अनुभव पुस्तक में ऐसे अनेक रोगियों का उल्लेख किया है जो चिकित्सा पर बहुत खर्च करा चुके हैं और पीड़ा से छुटकारा नहीं पा रहे थे। डाक्टर असहाय थे उन्हें सूझता ही न था कि उपचार किस रोग और किस आधार पर किया जाय। रोगी के बताये लक्षणों से जिस रोग का आभास होता था। उसकी चिकित्सा करने पर भी कोई लाभ न हुआ। ऐसी दशा में उन्हें मानसोपचार का ही आश्रय लेना पड़ा और वहीं जाकर उनकी गुत्थी सुलझी। एक दूसरे मनोविज्ञानी डा. डर्नवार ने ऐसे रोगियों के विवरण प्रकाशित कराये हैं जो मानसिक विक्षोभ से पीड़ित थे किन्तु उपचार शरीर चिकित्सकों से कराते-कराते थक गये थे। जब उनके अर्न्तमन में लगे हुए घाव कुरेदे गये और उनकी मरहम पट्टी की कई तो वे सामान्य स्वास्थ्य की स्थिति में लौट आये।

खीज से मुक्ति पाने, दिलाने के लिऐ दूसरे लोग किसी की बहुत कम सहायता दे सकते हैं। असली उपचार तो रोगी को स्वयं ही करना पड़ता है। उसे यह मानकर चलना चाहिए कि यह दवा दारु से अच्छी हो सकने वाली बीमारी नहीं वरन् अपने आप से पैदा की गई और अपने प्रयत्न से हट सकने वाली एक छोटी-सी आदत भर है। यह मान लेने पर आदत से आदत को काट करने वाले प्रयत्न उत्साह पूर्वक आरंभ किये जा सकते हैं और वे भली प्रकार सफल भी हो सकते हैं।

अपने आस-पास अनुकूलताएँ तलाश करनी चाहिए। प्रिय पात्र, प्रिय पदार्थ, प्रिय दृश्य अवश्य दिखाई पड़ेगें उनकी उपस्थिति को तनिक अधिक गहराई से देखा समझा जाय और जो उपलब्ध है उसका मुसकान के साथ स्वागत किया जाय। पेड़, पौधे, फूल, खिलौने, चित्र किसी कदर हमारा म हलका कर सकते हैं। पक्षियों की चहचहाहट आसानी से सुनी जा सकती है। छोटे बच्चे घर में ही उछलते कूदते, तोतली बोली बोलते और भोलेपन भरी अटपटी हरकतें करते हुए आसानी से देखे जा सकते हैं। उन्हें दिलचस्पी के साथ देखा जाय तो मुस्कान भरी प्रसन्नता की एक लहर चहरे पर दौड़ सकती हैं।

खीज यदि प्रकट न हो तो वह घुटन के रुप में बदल जाती है और मन ही मन आदमी न जाने क्या-क्या वे सिर-पैर की बातें सोचता चला जाता है। कड़ी से कड़ी मिलती जाती है और चिन्तन की धारा शैतान की आँख की तरह कहीं से कहीं जा पहुँचती है। प्रिय स्वप्न दर्शी भी कई होते हैं जो सुखद कल्पनाओं एवं संभावनाओं के लोग बिना पर लगाये ही उड़ते रहते हैंः उसके ठीक विपरीत खीज ग्रस्त लोगों की मनःस्थिति होती है। छिन्द्रान्वेषण, दोषारोपण, अशुभ भविष्य, अनिष्ट संभाव्य के कुरुप-कई बार तो भयावह तक चित्र सामने आते हैं और आँतक करके आस-पास ही लुके-छिपे आँख मिचौनी करते रहते हैं।

इस जंजाल से निकलने का एक सुगम तरीका यह है कि किसी सहानुभूति युक्त, उदार हृदय एवं संतुलित मस्तिष्क वाले व्यक्ति के सामने अपने मन की घुटन प्रकट कर दी जाय अथवा कोई ऐसा प्रसंग छेड़ दिया जाय जिससे उत्साहवर्धक एवं आशा की झलक दिखाने वाले प्रकाश, परामर्श मिल सकें। तनाव के रोगी यदि ऐसे सलाहकार, परामर्श दाता, सद्भाव सम्पन्न स्नेही प्राप्त कर सकें तो समझना चाहिए कि उन्हें बिना फीस का आधा डाक्टर मिल गया।

जिस समय खीज चढ़ रही हो उस समय मनोदिशा पलट देना उत्तम उपचार है। उठकर चल दें और किसी मनोरंजक वातावरण को ढूँढ़लें। जिस प्रसंग को लेकर मन उद्विग्न हो रहा था उसे जहाँ का तहाँ अधूरा छोड़ दिया जाय। उस स्थिति में जितना अधिक सोचा जायगा उतनी ही गुत्थी और उलझेगी। उत्तेजित मस्तिष्क कभी कोई सही निर्ष्कष नहीं निकाल सकता, सही निर्णय नहीं कर सकता। खीज भरी मनःस्थिति में प्रस्तुत प्रसंग पर अधिक सोचना अपने लिए गलत निर्णय से उत्पन्न और अधिक भारी विपत्ति को आमंत्रित करना है।

कई समस्याएँ एक साथ मन पर चढ़ जाती हैं और सभी जल्दी-जल्दी अपने संबंध में विचार किये जाने की माँग करती हैं। इस धमा चौकड़ी में अधूरी-एकाँगी उथली समझ ही काम करती है और कुछ निर्ष्कष निकलना तो दूर उलटे शिर चकराने लगता है। प्रतीत होता है जाने उलझनों के घटा टोप चढ़ आये हैं। इन विचारों के हुड़दंग को रोकना चाहिए और ‘एक समय में एक विचार को अपना कर बारी-बारी शान्त चित्त से प्रस्तुत समस्याओं पर विचार करना चाहिए। इस तरह अधिक आसानी से दिमाग का बोझ हलका होता चलेगा और क्या करना है क्या नहीं इसका सहज समाधान मिलता रहेगा।

कुछ लोग इस लिए भी खीजते पाये जाते हैं कि वे अपनी हर इच्छा को ऊँचे स्तर पर पूर्ण हुआ देखना चाहते हैं। मनोकामनाओं में विलम्भ या व्यतिरेक उन्हें असह्य होता है। प्रत्येक संबंधी कहना माने, हर परिस्थिति अनुकूल रहे, हर साधन अपनी मर्जी का जुटता रहे, हर घटना अपनी कल्पना के अनुरुप घटे, इस तरह सोचने वाले पाते तो कुछ नहीं खोते बहुत हैं। वे भूल जाते हैं यह दुनिया उन्हीं के लिए नहीं बनी है। वे भी अनेकों में से एक हैं। व्यक्ति अपनी मिट्टी को गठे हैं और घटना प्रवाह अपने क्रम से घटित होता है, इस सब के साथ तालमेल मिलाकर चलने में ही ठिकाना है। जो उपलब्ध हैं उस पर खुशी मनाई जाय और जो नहीं मिला है उसके लिए आशा रखी जाय। प्रयत्न और पुरुषार्थ को अपने प्रयास की सफलता मानकर चला जाय तो आदमी सन्तोषपूर्वक जीवन बिता सकता है। खीज से बचने के लिए मनःस्थिति को इसी पृष्ट भूमि पर परिपक्व करना चाहिए। वर्चस्व नहीं सहयोग हमारी नीति होनी चाहिए। अपने ऊपर बड़प्पन नहीं लादना चाहिए वरन् चल रहे प्रवाह की एक हलकी सी लहर जितनी ही अपनी स्थिति सोचनी चाहिए। इस प्रकार मन पर लदा हुआ वह भारी पत्थर हट जाता हैः जिसे मालिकी, बड़प्पन एवं अधिकारी के रुप में अपने ऊपर लाद लिया था। तनाव भारीपन का ही दूसरा नाम है। हम हलके रहें, हलकी फुलकी, संतोष और मस्ती की जिन्दगी जिये तो आज का गरदन तोड़ तनाव कल तेज हवा में उड़जाने वाले बादल की तरह तिरोहित हुआ प्रतीत होगा। अवाँछनीय चिन्तन से उत्पन्न तनाव को सहज सरलता की जादुई छड़ी से देखते-देखते गायब किया जा सकता है।

किन्हीं अप्रिय एवं अवाँछनीय घटनाओं से अथवा शारीरिक मानसिक विकृतियों से हलकी उद्विग्नता चढ़ आती है। इस स्थिति को खीज या परेशानी भी कहा जा सकता है। डाक्टरों की भाषा में इसे तनाव कहते हैं। नर्वस सिस्टम की कमजोरी वाले व्यक्ति इस स्थिति के जल्दी शिकार होते हैं। वे जो भी सामने आवे उसी अकारण झल्लाते हैं। चूँकि खीज भीतर भरी होती है और वह किसी न किसी को निमित्त बनाकर बाहर निकलना चाहती है। इसके लिए जो भी सामने आ जाय उसी पर कुछ न कुछ दोषारोपण करके उल्टी-सीधी कहने लग जाता है। न कहा जाय तो भी क्रोध या नाराजगी नहीं तो उपेक्षा अवज्ञा का व्यवहार तो बन ही पड़ता है। कई बार इस स्थिति में लोग खिन्नता, लाचारी एवं निराशा व्यक्त करते हुए दुखित बने, मुँह लटका कर बैठे भी देखे जाते हैं।

मानसिक रोग चिकित्सा की एक पद्वति है, ‘विहेवियर एण्ड थिरेपी’ जिसमें रोगी के साथ सदव्यवहार और सहानुभूति की समुचित मात्रा रखी जाती है और उसे स्नेह, दुलार, एवं सहयोग का अनुभव करने दिया जाता है। इस उपचार से रोगी क्रमशः ‘डिसेसिटाइज’ होता चलता है साथ ही मनोव्यथाओं से राहत भी अनुभव करता है।

मानसिक रोगियों के साथ मारपीट, भर्त्सना, तिरस्कार जैसे-निर्भय व्यवहार उसे और भी अधिक दुखी करते हैं और रोग की स्थिति बिगड़ती जाती है। शारीरिक रोगियों की तरह मानसिक रोगी भी दया के पात्र हैं उनके उपचार में स्नेह-सौजन्य और सुविधाओं का यदि समावेश किया जा सके, विक्षोभों को शान्त करने वाले वातावरण में उन्हें रखा जा सके तो औषधि उपचार की अपेक्षा उन्हें कहीं अधिक और जल्दी ही लाभ हो सकता है।


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