बुढ़िया की सीख (kahani)

September 1975

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

शिवाजी उन दिनों मुगलों के विरुद्ध छापा मार युद्ध लड़ रहे थे। रात को थे माँदे वे एक वनवासी बुढ़िया की झोपड़ीं में जा पहुँचे और कुछ खाने-पीने की याचना करने लगे।

बुढ़िया के घर में कोदों थी सो उसने प्रेमपूर्वक भात पकाया और पत्तल पर उसके सामने परसो दिया।

शिवाजी बहुत भूखे थे। सो सपाटे से भात खाने की आतुरता में उँगलिया जला बैठे और उन्हें मुँह से फूँककर जलन शान्त करने लगे।

बुढ़िया ने आँखें फाड़कर उसे देखा और बोली-सिपाही तेरी शकल शिवाजी जैसी लगती है और साथ ही यह भी लगता है कि तू उसी जैसा मूर्ख भी है।

शिवाजी स्तब्ध रह गये उनने बुढ़िया से पूछा-भला शिवाजी की मूर्खता बताओ और साथ ही मेरी भी।

बुढ़िया ने कहा-तू ने किनारे-किनारे से ठण्डी कोदों खाने की अपेक्षा बीच के गरम भात में हाथ सारा और उँगलियों जलालीं। यही वेअकली शिवाजी करता है, वह दूर किनारों पर बसे छोटे किलों को आसानी से जीतते हुए शक्ति बढ़ाने की अपेक्षा बड़े किलों पर धावा बोलता है और मार खाता है।

शिवाजी को अपनी रण नीति की विफलता का कारण विदित हो गया। उन्होंने बुढ़िया की सीख मानी और पहले छोटे लक्ष्य बनाये और उन्हें पूरा करने की रीति-नीति अपनाई। छोटी सफलताएँ पाने से उनकी शक्ति बढी और अन्नतः बड़ी विजय पाने में समर्थ हुए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118