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September 1975

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छान्ति-कुञ्ज, हरिद्वार की स्थापना एक ऐसे ‘आरण्यक’ के रुप में की गई है जिसमें व्यक्तित्वों को सुधारा, ढाला और परिपक्व किया जा सके।

प्राचीन काल में सामान्य छात्रों की शिक्षा के लिए गुरुकुल होते थे और विशिष्ठ छात्रों के लिए ‘आरण्यक’। गुरुकुलों में भौतिक जीवनयापन के आवश्यक क्रिया-कलापों के साथ-साथ मानवी गरिमा के अनुरुप दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा मिलती थी। दस वर्ष की आयु से लेकर पच्चीस वर्ष के होने तक पन्द्रह वर्ष का शिक्षण क्रम वहाँ चलता था और छात्र शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक क्षेत्रों में अभीष्ट सफलताएँ प्राप्त करने योगय होकर निकलते थे। यह गुरुकुल पद्धति हुई।

आरण्यकों का एक ही निर्धारित विषय होता है-आत्म बोध, आत्म-विकास और आत्म-बल का संचय। इसके लिए उन्हें तत्व-दर्शन पढ़ना होता है-जीवन के साथ आदर्शों का समन्वय करने का लोक-व्यवहार जानना पड़ता है औ साथ ही आत्म-बल संचय करने के लिए साधनात्मक तपश्चर्याओं की आग में तपना पड़ता है। इन त्रिविधि पुण्य-प्रक्रियाओं से संस्कारित छात्र दीप्तिमान र्स्वण की तरह तपे हुए निकलते थे। वे आत्म-कल्याण का जीवन लाभ लेते थे और असंख्यों को अपनी नाव में बिठा कर भव-सागर पार कराते थे।

शान्ति-कुञ्ज का आरम्भ इसी ‘योजन विशेष के लिए आरण्यक शिक्षा प्रक्रिया की तरह हुआ है। उसे एक ऐसी शिक्षण संस्था कहना चाहिए जिसमें व्यक्तित्वों को परिष्कृत करना और उनमें प्रखरता उत्पन्न करने का लक्ष्य रखा गया है। अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्य-युग निर्माण अभियान के सृजन सैनिक उसके लिए उपयुक्त पात्र समझे गये। उन्हें प्रयत्न पूर्वक खोज-खोजकर एक ऐसी माला में पिरोया गया है जिसे पहनकर मानवता पुन गौरवास्पद बन सकती है।

अच्छा तो यह होता कि कुछ थोड़े से छात्र यहाँ रहते और दीर्घकालीन साधना करके अपनी प्रतिभा विकसित करते ओर उसका लाभ समस्त समाज को देते। पर समय की आवश्यकता ने दूसरी माँग की और अधिक लोगों का अधिक लाभ देने की नीति अपनानी पड़ी। इसे आपत्ति धर्म कहा जा सकता है। सम्भव है आगे चलकर इस आरण्यक का स्वरुप वही बन जाय कि थोड़े से परखे हुए छात्र यहाँ रहे और दीर्घकालीन एकान्त साधना करके विशिष्ठ आत्म-बल प्राप्त करें और उस सम्पदा को डडडड दिशाओं में बिखेर कर विश्व में चिरस्थायी सुख-शान्ति की भूमिका सम्पादित करें। पर अभी तो आज की आवश्यकता ही प्रधान है। संस्कृति की सीता को, लंका बन्दीगृह से छुड़ाने के लिए योगयता की दृष्टि से पिछड़े रीछ, वानरों को स्वल्पकालीन शिक्षा देकर युद्ध के मोर्चे भेजना है। इन दिनों शान्ति-कुञ्ज की गतिविधियाँ ऋत मूक पर्वत बन रही योजनाओं और तैयारियों के में ही समझी जा सकती है। अपने छोटे बानर परिष्कृत को लंका की ओर ले चलने के आतुर हैं। डडडड की गुँजाइश नहीं। सुयोगय सेनाध्यक्षों को प्रशिक्षित करने में जितना समय लगता है उतने की प्रतीक्षा नहीं की जा सकती। आज तो बूढ़े जामवन्त, जरठ जटायु, दुर्बल गिलहरी और वनवासी रीछ, बानर ही युग धर्म निवाहने का साहस एकत्रित करेंगे।

शान्ति-कुञ्ज में गत ढाई वर्षों से जो सत्र शिक्षण प्रक्रिया चल रही है उसकी प्रगति पर दृष्टिपात करने से आशातीत सन्तोष होता है। शिक्षार्थियों की पूर्व भूमिका को देखते हुए कम ही आशा थी कि वे कुछ अधिक लाभ प्राप्त कर सकेंगे फिर भी प्रयत्न तो आरम्भ कर ही दिया गया था। परिणाम आर्श्चयजनक निकला है। विभिन्न स्तर के शिक्षण सत्रों में विभिन्न वर्ग के लोग आते रहें हैं। उनकी पात्रता एवं अन्तः स्थिति के अनुरुप जो मिला है उसे स्वल्पकालीन प्रयास को देखते हुए ‘आशातीत’ कहा जाय तो तकिन भी अत्युक्ति नहीं होगी। अब तक के शिक्षार्थियों पर हमारी पैनी दृष्टि है। उनकी प्रगति पर ध्यान रखा है और जानकारी प्राप्त की है। जो विवरण उपलब्ध है उससे स्पष्ट है कि ऐसे लोग बहुत ही कम हैं जिनने अपनी तमिस्रा को तनिक भी नहीं हटाया। ऐसों को अपवाद ही कह सकते हैं। शेष को न्यूनाधिक मात्रा में ऐसी अन्तःचेतना की उपलब्धि हुई है जिसके सहारे उनकी आत्मिक प्रगति सन्तोषजनक रीति से अग्रगामी बनी है। उनके दृष्टिकोण में-क्रिया-कलाप में ऐसा परिवर्तन हुआ है जिसके सत्परिणाम सामने आने ही चाहिए थे। वे स्वयं अपने परिवर्तन पर प्रसन्न हैं और उनके सहचर अनुभव करते हैं कि व्यक्तित्व का काया-कल्प करने वाली यह प्रेरक प्रक्रिया कितनी सरल-कितनी सफल और कितनी सुखद है।

आत्मिक प्रगति कोई ऐसा रहस्य नहीं है जिसकी अपने को प्रतीति न हो, या जिसका फल देखने के लिए परलोक की प्रतीक्षा करनी पड़े। वह नकद धर्म है। थोड़े धन, विद्या, बल, पद आदि का जितना लाभ होता है उसी अनुपात से मनुष्य की स्थिति पहले की अपेक्षा ऊँची उठी दिखाई पड़ती है। ठीक इसी प्रकार आत्मिक सम्पदा थोड़ी भी बढ़े तो उसका प्रभाव शारीरिक स्फूर्ति, मानसिक प्रफुल्लता, पारिवारिक सौजन्य, अर्थ सन्तुलन दूसरों द्वारा सहयोग सम्मान का उपहार, चेहरे पर मुसकान, स्वभाव में माधुर्य, आदर्शवादी चिन्तन में अभिरुचि, उत्कृष्ट क्रिया-कलाप में उत्साह, उज्ज्वल भविष्य की आशा, निर्भीक तेजस्विता का उदय, अन्तरंग और बहिरंग क्षेत्र में संव्याप्त अनौचित्य से संघर्ष जैसी अनेक विभूतियाँ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती हैं। शान्ति-कुञ्ज के शिक्षण सत्रों में सम्मिलित होने वाले शिक्षार्थियों ने ऐसी विभूतियाँ क्या कुछ कम पाई? इस दिशा में सूक्ष्म अन्वेषण से जो जाना गया है, उससे यही पता चला है कि वे अपने प्रयास एवं साहस की तुलना में अनेक गुना लाभ प्राप्त कर सकने में सफल हुए हैं। वे अनुभव करते हैं कि इन सत्रों में सम्मिलित होने में जितना समय लगा वह सच्चे अर्थों में सार्थक हुआ और अविस्मरणीय बना। किराये भाड़े में जो पैसा लगा उससे बढ़कर सन्तोष देने वाला खर्च जीवन भर में कभी किसी दान पुण्य में उनसे नहीं बन पड़ा। इन सत्रों की सार्थकता का अनुमान उनमें सम्मिलित होने वालों को मिले लाभ को देखकर ही लगाया जा सकता है। इस दृष्टि से एक शब्द में अब तक के इस प्रयास को पूर्ण सफल कहने में किसी प्रकार का संकोच अनुभव नहीं होता।

प्रशिक्षण सत्रों का निर्धारण एक वर्ष के लिए करने का क्रम चल रहा है। अगले वर्ष क्या होगा, इसकी घोषणा सामयिक परिस्थितियों के अनुसार आगे की जायगी वर्तमान स्थिति में इतना ही सम्भव है कि एक वर्ष की कार्य-पद्धति निश्चित की जाय और आगे जैसा आवश्यक हो वह आगे फिर बता दिया जाय। प्रस्तुत एक वर्ष में शान्ति-कुञ्ज की प्रशिक्षण व्यवस्था इस प्रकार बनी है।

कन्या प्रशिक्षण

1 जुलाई 75 से कन्या प्रशिक्षण सत्र आरम्भ हो गया है यह 11 महीने चलेगा। 31 मई 76 को यह पूर्ण हो जायगा। इसमें 80 कन्याओं के लिए स्थान बन सका है। शेष आवेदन-पत्र अगले वर्ष के लिए रोक लिये गये हैं। पाठय-क्रम में संगीत, अभिनय, रामायण प्रवचन, वक्तृत्व कला, हवन संस्कार, पर्व आदि धर्मकृत्यों का अभ्यास, प्रेस उद्योग, रबड़ की मुहरें, बिस्कुट, डबल रोटी बनाना, खिलौने, साबुन, मोमबत्ती, स्याहियाँ, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई आदि उद्योगों को सम्मिलित रखा गया है। स्वास्थ्य विज्ञान, जीवन-कला, गृह-व्यवस्था, शिशु-पालन, पारिवारिक स्नेह-सहयोग, नारी जागरण अभियान का नेतृत्व आदि विषयों का भी समावेश है। आशा की जानी चाहिए कि इस प्रशिक्षण को प्राप्त करके जाने वाली लड़कियाँ जहाँ भी रहेंगी वहाँ स्वर्गीय वातावरण का सृजन करेंगी।

महिला प्रशिक्षण

जिन्हें घर गृहस्थी का उत्तरदायित्व सँभालना पड़ता है वे अधिक समय घर से बाहर नहीं रह सकतीं। उन्हें अपने व्यक्तित्व का परिष्कार, परिवार की सुव्यवस्था, नारी जागरण अभियान में उपयुक्त भूमिका निभा सकने की क्षमता का विकास जैसी आवश्यक क्षमताएँ विकसित करने लायक अवसर इन तीन महीनों में ही मिल जाता है, संगीत, भाषण, गृह-उद्योग आदि की जितनी शिक्षा इस थोड़ी अवधि में सम्भव है उसका समावेश भी रखा गया है।

इस वर्ष मात्र दो ही सत्र महिला प्रशिक्षण के चलेंगे (1) अक्टृबर, नवम्बर, दिसम्बर (2) जनवरी, फरवरी, मार्च 76। युग-निर्माण परिवार के सदस्यों को अपने घरों से एक-एक महिला इस प्रशिक्षण में भेजनी चाहिए ताकि उन्हें अपना निजी परिवार आदर्श स्तर का बनाने तथा लोक-मंगल के कार्यों में कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाला एक नया सुयोगय साथी मिल सके। इन सत्रों में भेजकर पुराने ढर्रे की पत्नी को प्रगतिशील सहयोगिनी के रुप में बदला जा सकता है। महिला जागरण शाखाओं को भी अपनी एक प्रतिनिधि भेजनी चाहिए ताकि उसके सहयोग से शाखा का कार्य अधिक अच्छी तरह सम्पन्न हो सके। अक्टूबर से दिसम्बर वाले सत्र की संख्या पूरी हो चुकी, अब जनवरी, फरवरी, मार्च 76 के एक सत्र की ही भर्ती शेष है, जिन्हें इच्छा हो वे जल्दी ही अपना स्थान सुरक्षित करा लें।

जीवन साधना सत्र

सन् 75 में अब अक्टूबर, नवम्बर ही में दस-दस दिवसीय दो जीवन साधना सत्र होंगे। अक्टूबर पूरा हो गया। नवम्बर में कुछ सीटें बाकी हैं। इनके पूरे होते ही सन् 75 की भर्ती पूरी हो जायगी। इसके उपरान्त सन् 76 में जनवरी, फरवरी, मार्च में दस-दस दिन के हिसाब से मात्र नौ सत्र होंगे। इसके बाद पूरे 76 में और कोई जीवन साधना सत्र नहीं होगा। सीटें पूरी हो जाने पर नौ महीने बाद 77 के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। पाँच-पाँच दिन के प्रत्यावर्तन सत्रों में जो लोग आ चुके हैं उन्हें इन सत्रों में प्राथमिकता दी जायगी। वस्ततः जीवन साधना सत्रों को प्रत्यावर्तन सत्रों का उत्तरार्ध ही कहना चाहिए। दोनों को मिला देने से ही एक पूरा प्रशिक्षण बनता है।

योग एवं तपश्चर्या सत्र

अगले वर्ष के यह नये सत्र हैं। यह एक-एक महीने के होंगे। पहला सत्र दिसम्बर 75 में, दूसरा अप्रैल 76 में, तीसरा अगस्त 76 में होगा।

इन सत्रों में सवा लक्ष गायत्री पुश्चरण, अस्वाद व्रत, पाप प्रायश्चित्य के लिए विशिष्ठ तपश्चर्याएँ करने के विशेष विधान पालने पडे़ंगे। बीच-बीच में मौत तथा दूसरे आत्मानुशासनों का निर्वाह करना होगा। जपयोग, ध्यानयोग, बिन्दुयोग, नादयोग, प्राणयोग के अतिरिक्त योगाभ्यास की साधनाएँ पात्रता के अनुरुप साथ-साथ चलेंगी। गंगा स्नान, गंगाजल पान इन सत्रों में अनिवार्य रहेगा।

घर रहकर एक वर्ष की साधना से जो उपलब्धि हो सकती है उतनी शान्ति-कुञ्ज के दिव्य वातावरण एवं प्रखर संरक्षण में एक माह रहकर मिल सकेगी। योगाभ्यास एवं तप साधना में जिन्हें रुचि हो उनके लिए यह सत्र एक प्रकार से अलभ्य अवसर है।

लोक साधना सत्र

भगवान बुद्ध ने अपने समय में लाखों धर्म चक्र प्रवर्तक उत्पन्न किये थे और उन्हें देश देशान्तरों में भेज कर युग परिवर्तन का महान प्रयोजन पूरा किया गया था, आज भी समय की वैसी ही माँग है। साठ करोड़ की आबादी के भारत का हमें भावनात्मक नव निर्माण करना है और इससे आगे प्रवासी भारतीयों से लेकर संसार के कोने-कोने में मानव धर्म की, विश्व धर्म की, पुनः प्राण प्रतिष्ठा करनी है। इसके लिए हजारों लाखों धर्म प्रचारकों की आवश्यकता पड़ेगी। उसकी पूर्ति के लिए विचार शील चरित्र निष्ठा एवं प्रतिभावान ऐसे लोक सेवी तैयार करने पड़ेंगे जो अपनी पूँछ में आग लगा कर आसुरी-अनीति की लंका को भस्मपात करने में समर्थ हो सकें।

अगले दिनों व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण का, बौद्धिक नैतिक एवं समाज क्रान्ति का, अभियान रामचरित्र और कृष्ण चरित्र को माध्यम बना कर चलाया जायगा। इसके लिए रामायण और भागवत की लोक प्रियता का उपयोग करना आवश्यक समझा गया है। तुलसी कृत रामायण के साथ बाल्मीकि रामायण और भागवत के साथ महाभारत जोड़कर रखे गये हैं, ताकि अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए उपयुक्त सामग्री उपलब्ध हो सके। अपना कार्य क्षेत्र 80 प्रतिशत आबदी के 82 प्रतिशत अशिक्षत लोगों के बीच है। उनमें, मानसिक पृष्ठ भूमि में धार्मिकता का कुछ अंश मौजूद है। राजनीति अर्थशास्त्र, समाज विज्ञान जैसे जटिल विषयों का आधार लेकर उन्हें कुछ समझाया जाय तो सफलता न मिलेगी। रामायण भागवत में वह बहुत कुछ मौजूद है जिससे युग की आवश्यकत के अनुरुप लोक मानस ढालने में सफलता प्राप्त की जा सके।

भारतीय संस्कृति में वे सभी बीच मौजूद है जिनको अंकुरित, पल्लवित और फलित करके उज्ज्वल भविष्य के सभी साधन जुटाये जा सकते हैं। नैतिक पुनरुत्थान एवं सामाजिक परिवर्तन के साथ साथ हमें उस संस्कृति की पुनः प्राण प्रतिष्ठा भी करनी है, जो मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर र्स्वग के अवतरण में पूरी तरह समर्थ हो। भारतीय धर्म वस्तुतः विश्व धर्म है, अपनी संस्कृति ही अगले दिनों विश्व संस्कृति बनने जा रही है, उसे युग के अनुरुप ढाँचे में ढालकर इस योगय बनाना है कि अनास्था वानों में भी पुनः आस्था का संचार कर सकना संभव हो सके।

इसके लिए भारतीय धर्म एवं संस्कृति में प्रचलित सभी कर्म काण्डों, को धर्म कृत्यों को प्रेरणाप्रद शैली में सर्वसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत करना होगा। अपने पर्व त्यौहारों में सामाजिक समस्याओं के समाधान और डडडड संस्कारों में परिवार निर्माण के सभी तथ्य पूरी तरह सन्निहित हैं। जन्म दिन यदि प्रेरक ढंग से मनाये जान लगें तो उन उत्सवों के सहारे व्यक्ति निर्माण के सभी प्रमुख सिद्धान्त अन्तःकरण में प्रविष्ट कराये जा सकते हैं।

संगीत की उपयोगिता सर्व विदित है। अन्तःकरण तब प्रवेश कर जाने की क्षमता उसमें विद्यमान है। बाल वृद्ध, नर-नारी शिक्षित-अशिक्षित सभी उसके द्वारा आनन्द और प्रकाश का दुहरा लाभ प्राप्त कर सकते हैं। अस्तु प्रचारकों का यदि कंठ थोड़ा भी साथ दे और मस्तिष्क ताल स्वर की जरासी भी पकड़ हो तो फिर संगीत अवश्य ही सीखना चाहिए और सहगान कीर्तनों के माध्यम जन मानस को झक-झोरने में आशाजनक सफलता प्राप्त करनी चाहिए।

उपरोक्त सभी तथ्यों का समावेश करके युग धर्म लोक नायकों के लिए एक वर्षीय पाठ्यक्रम तैयार किया गया है। इसमें (1) रामायण कथा तथा रामचरित्र सहारे युगान्तर कारी प्रवचन, (2) भागवत कथा तथा कृष्ण चरित्र के आधार पर युग परिवर्तन के बीजारोपण (3) जनमानस को भाव-विभोर कर सकने योगय संगीत (4) पर्व, संस्कार, यज्ञ, आदि धर्म कृत्यों के सहारे पारिवारिक एवं सामाजिक छोटे बड़े उत्सव आयोजनों सूत्र संचालन (5) युग की प्रमुख उलझनों के स्वरुप और उनके समाधान का तत्वदर्शन (6) लोक सेवी के डडडड व्यक्तित्व ढालने योगय जीवन साधना एवं तपश्चर्या अभ्यास।

उपरोक्त छहों तथ्यों को अभ्यास में लाने और उसके प्रवीणता प्राप्त करने के लिए न्यूनतम अवधि एक ही हो सकती। इससे कम में उपरोक्त प्रशिक्षण किसी प्रकार संभव नहीं हो सकता। यह शुभारंभ इसी वर्ष किया जा रहा है। एक जनवरी से 30 दिसम्बर 76 तक यह शिक्षण चलेगा। जिनमें उपरोक्त शिक्षण्एा के सभी प्रतिभा हो वे ही इसके लिए आवेदन करें। भावी डडडड में जिन्हें धर्म प्रचारक की भूमिका निभानी हो उन्हीं के लिए यह प्रशिक्षण उपयुक्त पड़ेगा।

रामायण सत्र

पिछले दिनों डेढ़-डेढ़ महीने के तीन रामायण सत्र चल चुके है। इस स्वल्प काल में भी शिक्षार्थी अपने परिवार तथा समीपवर्ती क्षेत्र में रामायाण के माध्यम से नव जीवन संचार कर सकने की क्षमत प्राप्त करके गये हैं। रामायण कथा, रामचरित्र के सहारे युग धर्म की प्रेरणा देने वाले प्रवचन इस थोड़ी अवधि मं भी सिखा दिये जाते हैं। साथ ही पर्व, संस्कार, यज्ञ आदि कर्म काण्डों का भी इतने ही दिनों में अभ्यास हो जाता है। यह शिविर उन लोगों के लिए है जो कृषि, व्यवसाय, नौकरी आदि आजीविका उपर्जान में व्यस्त होने के कारण अधिक समय तो नहीं निकाल सकते पर अपने समीपवर्ती क्षेत्र में नव निर्माण का आलोक उत्पन्न करने के इच्छुक हैं। स्वल्प सभय के शिक्षण को देखते हुए वे भी आर्श्चय जनक योगयता प्राप्त करके जाते हैं।

यह सत्र अगले वर्ष दो ही चलेंगे, (1) एक मई से 15 जून तक (2) 16 जून से 30 जुलाई 76 तक,

उपरोक्त सद्ध श्ऱंखला को यदि महीनों के हिसाब से देखा जाय तो वह इस प्रकार होगी-

(1) अक्टूबर 75-कन्या प्रशिक्षण सत्र, महिला सत्र, जीवन साधना सत्र, (2) नवम्बर 75-कन्या प्रशिक्षण, महिला सत्र, जीवन साधना (3) दिसम्बर 75-कन्या प्रशिक्षण, महिला सत्र, योग तप साधना सत्र (4) जनवरी 76-कन्या सत्र, लोक साधना सत्र, जीव साधना सत्र, (5) फरवरी 76-कन्या सत्र, लोक सेवा सत्र, जीवन साधना सत्र, (6) मार्च-76 कन्या सत्र, लोक सेवा सत्र, जीवन साधना सत्र, (7) अप्रैल 76-कन्या सत्र, लोक सेवा सत्र, योग तप साधना सत्र, (8) मई 76-कन्या सत्र, लोक सेवा सत्र, रामायण सत्र (9) जून 76-लोक सेवा सत्र, रामायाण सत्र, (10) जुलाई 76-कन्या सत्र, लोक सेवा सत्र, रामायण सत्र। डडडड सत्र जुलाइ्र से आरम्भ होकर फिर एक साल डडडड। लोक सेवा सत्र दिसम्बर तक चलता रहेगा। अगस्त 76 से दिसम्बर 76 तक की अवधि में जीवन साधना और महिला सत्रों की व्यवस्था फिर होगी जिनकी सूचना अगले वर्ष दी जायगी। अभी अगले 10 महीनों की ही सुनिश्चित कार्यक्रम घोषित किया जा रहा है।

उपरोक्त सत्रों में अधिकारी व्यक्ति ही प्रवेश पा सकेंगे। सैलानी पर्यटक और कष्ट निवृत्ति का आशीर्वाद पाने की इच्छा से आये लोग भी कभी-कभी स्त्री बच्चों समेत सत्रों में घुस पड़ते हैं और सारी व्यवस्था ही गड़बड़ा देते हैं। इसकी रोकथाम अतीव आवश्यक हो गई है। इसलिए अलग=अलग सत्रों के अलग-अलग आवेदन पत्र छपा दिये गये है। इच्छुकों को अपने सत्र का छपा आवेदन पत्र माँग लेना चाहिए और उसे भरकर भेजने के उपरान्त स्वीकृति की प्रतीक्षा करनी चाहिए। बिना स्वीकृति पाये किसी को भी ऐसे ही नहीं चल पड़ना चाहिए। व्यवस्था की दृष्टि से इस प्रकार का अनुशासन अब और भी अधिक कठोर बना देना आवश्यक हो गया है। इससे अवाँछनीय भीड़ बढ़ने से अव्यवस्था उत्पन्न न होगी और सत्पात्रों पर अधिक शक्ति खर्च करके उन्हें अधिक लाभान्वित कर सकना संभव होगा।

प्रशिक्षण का यह सुअवसर कब तक उपलब्ध रहेगा कहा नहीं जा सकता, इसलिए जिन्हें यह सब उपयोगी प्रतीत हो उन्हें यथा सम्भव अगले ही वर्ष इनमें सम्मिलित होने का प्रयत्न करना चाहिए। अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य को इसके लिए इन पक्तियों द्वारा आमंत्रित किया जा रहा है।


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