एन्टीबायोटिक्स दवाओं के द्वारा होने वाला कत्लेआम

September 1975

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समझा जाता है कि बीमारियाँ, विषाणु उत्पन्न करते हैं। इसलिए उन्हें मारने का उपाय खोजना चाहिए और इन रोग उत्पादक शत्रुओं से छुटकारा पाना चाहिए। औषधि विज्ञान का महत्वपूर्ण पक्ष इसी क्षेत्र में काम कर रहा है। पौष्टिक औषधियाँ तो खोजी नहीं जा सकीं पर मारक दवाओं के निर्माण में बहुत हद तक सफलता मिल चुकी है। यदि बलवर्धक कोई रसायन बन सका होता तो धनी वर्ग में से एक भी दुर्बल अथवा रुगण न रहता। कम से कम चिकित्सक लोग तो अक्षय स्वास्थ्य का लाभ प्राप्त कर ही रहे होते।

हाँ मारक औषधियाँ ऐसी बनी हैं जो विषाणुओं के मारने में अपना चमत्कारी प्रभाव दिखाती हैं। पर उस जादू से भी कुछ बना रहीं। कीटाणु नाशक औषधियों से कैमिस्टों के तीन चौथाई गोदाम भरे रहते हैं, वे ही बिकती भी अधिक है, पर विषाणु मरते रहने पर भी असर ही बने रहते हैं। जिन बिमारियों को मारने के लिए वे मारक दवाएँ बनी हैं वे घटने के स्थान पर बढ़ ही रही हैं। उनके त्रास से मनुष्य को तनिक भी छुटकारा नहीं मिल सका।

इस असफलता का कारण खोजते हुए हमें अपनी मान्यताओं में आमूल चूल परिवर्तन करना ही पड़ेगा और यह सोचना होगा कि बीमारियों के जनक विषाणु नहीं हैं वरन् वे विकृत-शरीर-स्थिति में स्वतः भीतर से ही पैदा होते हैं। बाहर से वे तभी प्रवेश कर सकते है जब भीतर उनकी जड़ें जमाने और फलने फूलने की उपजाऊ परिस्थिति उत्पन्न हो चुकी हो। ऐसी परिस्थिति आहार-बिहार की अवाँछनीयता और चिन्तन में आवेश ग्रस्तता घुस पड़ने पर ही विनिर्मित होती है। यह स्थिति न सुधारी जायगी तो कीट नाशक दवाएँ कोई बड़ा प्रयोजन पूरा न कर सकेंगी।

विषाणु अकेले नहीं मरते। उस ‘कत्ले आम’ में वे सुरक्षा प्रहरी भी धराशायी हो जाते हैं जिनके ऊपर स्वास्थ्य रक्षा का सारा उत्तरदायित्व है। यह क्षति कीटाणु मरने के लाभ की तुलना में अधिक बड़ी है। फिर उनकी उत्पादन गति इतनी तीव्र है कि यदि पाँच प्रतिशत भी किसी कोने में बचे रहे तो अवसर पाते ही आँधी तूफान की तरह फिर बढ़ जाते हैं और साथियों के मरण से खाली हुआ मोर्चा फिर ज्यों का त्यों संभाल लेते हैं। बाहर से भी हवा, धूलि, अन्न जल के साथ शरीर में प्रवेश करना रोका नहीं जा सकता। सफाई एवं रोक थाम के हजार उपाय करने पर भी वे किसी न किसी मार्ग से भीतर घुस पड़ने में सफल हो ही जायेंगे। रोकथाम का उपाय तो एक ही है कि रक्त स्वस्थ, और समर्थ रहे ताकि कोई विषाणु उसमें प्रवेश करने पर बच ही न सके। ऐसी स्थिति स्वास्थ्य मर्यादाओं का कड़ाई के साथ पालन करने पर ही बनी रह सकती है।

यह कोई ऐसे नये तथ्य नहीं है जिन्हें किसी न जाना न हो फिर भी जल्दी विषाणुओं को मारकर रोग मुक्ति पाने का लालच छूटता नहीं और आहार बिहार को सन्तुलित सात्विक रखने का झंझट उठाते बनता नहीं। अस्तु कृमि नाशक दवाओं के निर्माण और उपयोग पर भी निरन्तर जोर दिया जा रहा है और उस नीति की उपेक्षा की जा रही है जिसे अपनाने पर विषाणुओं के प्रवेश करने और पनपने की संभावना की समाप्त होती है।

गैरहार्ड डोमाक ने सन् 1932 में ‘सल्फा ड्रग‘ जाति की औषधियों की एक श्रं़खला प्रस्तुत की। उन दिनों यह आविष्कार बहुत उपयोगी माना गया। इसके बाद भी उस दिशा में खोजें जारी रहीं और अधिक शक्तिशाली ‘एण्टीबायोटिक्स जाति की औषधियाँ सामने आई।

एन्टीबायोटिक्स जीवित कोषों में उत्पन्न होने वाले रासायनिक पदार्थ हैं। जो शरीर में घुसे हुए विषाणुओं का संहार करते हैं ओर बढ़ती हुई विपत्ति को रोकते हैं। इस वर्ग की औषधियों प्रायः सीजो माइटीस एक्टीनो, माइसीटीज मोल्ड जाति के पौधों से भी विनिर्मित होती हैं। इसी वर्ग की एक औषधि ‘पेनिसिलीन’ प्रकाश में आई। यह फफूँदी से विनिर्मित होती है। इसके बाद इसी जाति की और भी प्रभावशाली औषधियाँ बनाई गई। स्ट्रैप्टोमाइसीन, क्लोरो माइसिटीन, टेट्रा साइकिलीन ओरियो माइसीन, एकरो माइसीन, लीडर माइसीन, टेरा माइसीन, सिनर, माइसीन, टेट्राम्माइसीन, होस्टाड साइकिलीन, आदि औषधियों का आविष्कार हुआ। यह विभिन्न जाति के विषाणुओं पर अपने-अपने प्रभाव दिखाने में बहुत प्रख्यात हुई हैं। इनका प्रयोग कई रुपों में होता है, केपस्यूल, ड्राप्स, सिरप, टेवलेट, ट्रासी, स्पर सायड मरहम, ससपेनशन्, इण्ट्रा मस्कुलर और इन्ट्राबीन से इन्जेक्शन इनमें मुख्य हैं।

इन औषधियों के प्रयोग से जो कत्लेआम मचता है उनसे रोगकीट भरते हैं और बीमारी का बढ़ा चढ़ा उपद्रव घट जाता है। इस चमत्कारी लाभ से सभी प्रसन्न है। रोगी इसलिए कि उसका बढ़ा कष्ट घटा। डाक्टर इसलिए कि उन्हें श्रेय मिला। विक्रेता इसलिए कि उन्हें धन मिला। निर्माता इसलिए कि उन्हें यश मिला। रोग भी प्रसन्न है कि हमारा कुछ नहीं बिगड़ा। हम जहाँ के तहाँ बने रहे और अपना विस्तार करने के लिए उन्मुक्त क्षेत्र पाते रहे। लाभ वस्तुतः रोग कीटकों के मरने का नहीं वरन् स्वस्थ कणों के दुर्बल हो जाने के कारण जो संघर्ष चल रहा था वह शिथिल पड़ जाने के कारण मिलता है। यह तत्काल का लाभ पीछे स्वास्थ्य की जड़ें ही खोखली कर देता है। फलतः नित नये रोगों का घर रोगी का शरीर बन जाता है।

वी.सी.जी. के विशेषज्ञ डा. नोबेल इरबिन ने अपनी पुस्तकें वी.सी. वोक्सिनशन थ्योरी एण्ड प्रेक्टिस में इस टीके से उत्पन्न होने वाली हानिकारक प्रतिक्रियाओं तथा उससे उत्पन्न होने वाली बीमारियों का विस्तारपूर्वक वर्णन और भण्डाफोड़ किया है। उस पुस्तक के पढ़ने से उस माहात्म्य पर पानी फिर जाता है जो इन दिनों वी.सी.जी. के टीके लगाकर तपैदिक की रोकथाम के बारे में बताये जाते हैं।

जो देश इन मारक औषधियों में जितने अग्रगामी है वे स्वास्थ्य की दृष्टि से उतने ही दुर्बल होते जा रहे हैं। एक के बाद एक रोग की फसल उनके पूरे समाज में उगती कटती रहती है। इंगलैण्ड में इन दिनों खाँसी की फसल पूरे जोश पर है यद्यपि उसकी निवारक औषधियों की भी भरमार है।

ब्रिटेन में खाँसी एक बहुप्रचलित रोग बन गया है। ‘प्रेक्टीश्नर’ पत्रिका के अनुसार संसार का सबसे अधिक खाँसी ग्रस्त देश ब्रिटेन है जहाँ व्रोकाहिस के रोगी सभी अस्पतालों में सबसे अधिक इलाज कराने आते हैं। उस देश में दस लाख पीछे 559 व्यक्ति इसी रोग से मृत्यु को प्राप्त होते हैं। बीमा कम्पनियों को इस रोग के रोगियों को 70 लाख पौण्ड का भुगतान करना पड़ता है।

भोजन पचाने के लिए आमाशाय से जो रस निकलते हैं, इन्हें एन्जाइम्स कहा जाता है। यह कई प्रकार के होते हैं। इनमें पेप्सिन, ट्रिप्सिन, अमाइलेज आदि मुख्य हैं। जब इन स्रावों की कमी हो जाती है तो अपच की शिकायत पैदा होती है और गैस बनने लगती है। आँतों में कुछ खास किस्म के बेक्टीरिया जीवाणु होते हैं जो भोजन पचाने में सहायता करते हैं। लम्बे समय तक ऐन्टीबायटिक दवाएँ खाने या दूसरे कारणों से जब इनमें कमी पड़ जाती है तो भी अपच के साथ-साथ गैस की शिकायत रहने लगती है। कई अन्य विषैले दृश्य या अदृश्य हुक बार्म, जियारडिया कीड़े भी पानी के साथ पेट में पहुँच जाते हैं और वहाँ कई प्रकार की गड़बड़ी पैदा करते हैं।

कारबोहाईड्रेट पदार्थ का जब फारमन्टटेशन ठीक प्रकार नहीं होता तो भी अपच की शिकायत रहने लगती है।

सिर दर्द क्यों होता है इसके मोटे कारण कितने ही गिनाये और बताये जाते हैं। यथा, बद हजमी, रक्त चाप, स्नायु दौर्बल्य, मानसिक तनाव, चोट या व्रण, सर्दी-गर्मी का प्रकोट आदि। भूखे रहने, अधिक खाने, कम सोने, अधिक श्रम करने, नशेबाजी, भय, चिन्ता, आशंका, क्रोध जैसे मनोविकार आदि। चिड़चिड़ें, क्रोधी और आवेश ग्रस्त व्यक्तियों को अक्सर सिर दर्द रहता है।

डाक्टरों के पास इसके गिने गिनाये उपचार हैं। बदहजमी, गैस बनने जैसे कारणों का अनुमान लगाकर कैस्टोफीन जैसी कोई हलके जुलाब की दवा दे देते हैं। एस्प्रीन जैसी शामक औषधि से भी तत्काल कुछ राहत मिलती हैस्त्र शरीर में ‘हिस्टेमाइन’ नामक विष की अधिकता हो जाने पर ‘विषस्य विष मौषधम् के सिद्धान्तानुसार उसी विष को इंजेक्शन द्वारा और भी रक्त में प्रवेश करा देते हैं। यह सभी सामायिक उपचार है। तत्काल कुछ राहत मिल सकती है, पर जड़ कटने की आशा नहीं की जा सकती।

एक जर्मन औषध निर्माता ने ‘थैलिडोमाइड’ नामक अनिद्रा नाशक चमत्कारी औषधि बनाई। कुछ ही दिनों में उसकी लोक प्रियता आकाश चूमने लगी, पर पीछे पता चला कि वह गर्भस्थ शिशुओं पर घातक असर डालती है। उसके कारण एक लाख से अधिक बच्चे जन्म से पूर्व अथवा जन्म के बाद काल के गाल में चले गये, जो बच गये वे अपंग होकर जिये।

इसे एक दुर्भागय ही कहना चाहिए कि रोग निवारण की धुरी अब मारक औषधियों के साथ जुड़ गई है जब कि प्रत्येक ईमानदार चिकित्सक का कार्य यह होना चाहिए कि रोगी को अप्राकृतिक गतिविधियों से विरत होने और सरल सौम्य जीवन-यापन करने की प्रक्रिया अपनाने के लिए जोर दें और उसे समझायें कि स्थायी रुप से रोग मुक्ति पा सकना इतना परिवर्तन किये बिना संभव हो ही नहीं सकता।

एक रोग हलका करने के लिए दस नये रोग आमंत्रित करना, एक समय का कष्ट घटाने के लिए सदा के लिए चिरस्थायी रुगणता को शरीर में प्रश्रय देना यदि बुद्धिमत्ता हों तो ही मारक औषधियों की प्रशंसा की जा सकती है। यदि शरीर को समर्थ बनाने एवं शुद्ध रक्त की, नाड़ियों में अभिवृद्धि करके निरोगिता एवं दीर्घ जीवन अभीष्ट हो तो चिकित्सा विज्ञानियों को एन्टीबायोटिक्स दवाओं के गुणगान करने की अपेक्षा सात्विक जीवन की गरिमा समझानी पड़ेगी और संयत आहार विहार अपनाने के लिए जन मानस तैयार करना होगा। इस उलट-पुलट में बढ़े-चढ़े चिकित्सा विज्ञान को बढ़ा-चढ़ा अज्ञान मान कर चलना होगा और उसके नित नये विकास का जो उन्माद छाया हुआ है उसे नियन्त्रण में लाने की बात सोचनी पड़ेगी।

आज के चिकित्सा विज्ञान में ऐसे अनेक विषयों का समावेश है, जिनका विशेषज्ञ होने की दृष्टि से तो कुछ उपयोग भले ही हो पर स्वास्थ्य रक्षा और स्वास्थ्य संवर्धन के लिए उनका सामान्यतः कुछ विशेष उपयोग नहीं है।

मेकेनो थेरैपी, इलेक्ट्रो थेरैपी, थर्मोथेरैपी, रेडियो थेरैपी, बाइव्रोथेरैपी, थल्योथेरैपी, एम्व्रियोलाँजी, फिजियोलाजिकल केमिस्ट्री, टाक्सिकोलाजी, पथोलाजिकल हिस्टालाजी, वैक्टीरियालाजी, गायनोकोलाजी, वायोकेमिस्ट्री आदि इतने अधिक विषयों का डाक्टरी शिक्षण में समावेश करने से शिक्षार्थी का मस्तिष्क उन्हीं उलझनों में फँसकर रह जाता है। वह प्रकृति के अनुसरण और सौम्य आहार-विहार की उपयोगिता एवं रीति-नीति जैसे सामान्य किन्तु अति महत्वपूर्ण विषय के समझने से वंचित रह जाता है।


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