वृक्ष न रहेंगे तो मनुष्य भी न रहेगा

September 1975

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कुछ समय पूर्व इण्डोनेशिया में युनेस्को के तत्वावधान में 150 इन विशेषज्ञों की एक अन्तर्राष्ट्रीय गोष्ठी हुई थी, जिसमें विश्व की घटती हुई वन सम्पदा पर चिन्ता प्रकट की गई थी। आमतौर से लोग वृक्षों का महत्व नहीं समझते। लकड़ी का लोभ और खेती के लिए अधिक जगह मिलने के लालच में पेड़ों को काटते चले जाते हैं वे यह भूल जाते हैं कि इन तुच्द लाभों की तुलना में वृक्ष विनाश से होने वाली हानि कितनी अधिक भयंकर है। उपरोक्त प्री पैसिफिक साइन्स कान्फ्रेन्स ने संसार को चेतावनी दी कि वृक्ष सम्पदा विनाश का वर्तमान क्रम चलता रहा तो उसके भयानक परिणाम भुगतने पड़ेंगे।

उपरोक्त गोष्ठी में जापान, आस्ट्रेलिया, कनैडा, अमेरिका, जर्मनी, फ्राँस, इंगलैण्ड, नीदरलैण्ड, भारत आदि 20 देशों की वन विज्ञानी उपस्थित थे। गोष्ठी में कनाडा के प्रतिनिधि डा. ब्लादीमीर क्रजीना ने कहा-मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता साँस लेने के लिए शुद्ध वायु मिलना है। वृक्ष हमारी इस आवश्यकता को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं। संसार में बढ़ते हुए वायु प्रदूषण का समाधान करने के लिए वूक्षों की रक्षा की जानी चाहिए। यदि हम वन सम्पदा को गँवा बैठेंगे तो फिर शुद्ध साँस का अभाव इतना जटिल हो जायगा कि उसका समाधान अन्य किसी उपाय के सम्भव न हो सकेगा।

अन्य देशों के प्रतिनिधियों ने भी जो विचार व्यक्त किये उने स्पष्ट था कि वृक्ष रक्षा एवं अभिवध्रन का प्रश्न उतना उपेक्षणीय नहीं है जितना कि उसे समझा जा रहा है। उसे पशु पालन के स्तर पर रखा जाना चाहिए। सच तो यह है कि इससे भी अधिक महत्व उसे दिया जाना चाहिए। पशुओं को गँवाकर उनके द्वारा मिलने वाले श्रम, दूध, माँस, चमड़े से एवं गोबर से वंचित होना पड़ता है। वूक्षों को गँवाने की हानि उनसे भी अधिक है। वायु शोधन-वर्षा का सन्तुलन और पत्तों से मिलने वाली खाद, धरती के कटाव का बचाव, कीड़े खाकर फसल की रक्षा करने वाले पक्षियों के आश्रय के अभाव में सफाया आदि कितने ही ऐसे संकट हैं जो वृक्षों के घटने के साथ-साथ बढ़ते ही चले जायेंगे।

पिछले दिनों कल कारखानों की वृद्धि को-विकास का आधार माना जाता रहा है। खाद्य उत्पादन के लिए कृषि तथा सिंचाई पर भी जोर दिया जाता रहा है। बहुत हुआ तो यातायात के साधनों को बढ़ाने की बात भी आर्थिक प्रगति के लिए जोड़ दी गई। वन सम्पदा की महत्ता समझने की ओर जितना ध्यान देना आवश्यक था उतना दिया ही नहीं। सच तो यह है वनों को जमीन घेरने वाला माना जाता रहा और उन्हें काटकर कृपि करने की बात सोची जाती रही। जलाऊ लकड़ी तथा इमारती आवश्यकता के लिए भी वृक्षों को अन्धाधुन्ध काटा जाता रहा रहा और उनके स्थान पर नये लगाने की ओर उपेक्षा बरती जाती रही। आज हम वन सम्पदा की दृष्टि से निर्धन होते चले जा रहे हैं और उसके कितने ही परोक्ष दुष्परिणामों को प्रत्यक्ष हानि के रुप में सामने खड़ा देख रहे हैं।

‘सहारा कान्क्वेस्ट’ ग्रन्थ के लेखक सेन्टवार्व वेकर ने सहारा रेगिस्तान की 20 लाख वर्ग मील भूमि के सम्बन्ध में लम्बा और गहरा सर्वेक्षण करके लिखा है यह क्षेत्र किसी समय बहुत ही हरा-भरा था, पर लोगों ने नासमझी से उसे उजाड़ दिया। इससे क्रूद्ध हुई प्रकृति ने पूरा प्रतिशोधा चुकाया। तेज हवा, सूर्य की सीधी धूप और पाले ने अच्छीवासी उपजाऊ मिट्टी को रेत बना दिया। तेज हवाएँ उस धूल को भी इधर से उधर उड़ाने लगीं, सिर्फ ऊसर और पथरीली जमीन ही टिकी हुई है। रेगिस्तानी विशाल भूखण्ड अब निकटवर्ती हरी-भरी जमीन को भी महासर्प की तरह निगलता चला जा रहा है। हर साल तीस वर्ग मील हरी-भरी जमीन उस रेगिस्तान की चपेट में आकर सदासर्वदा क लिए मृतक बन जाती है।

द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् एक बार अमेरिकी राष्ट्रपति रुजवेल्ट हवाई जहाज से मिश्र की भूमि से गुजरे, उन्होंने लेवनान के इतिहास प्रसिद्ध सिडार वृक्षों के वन्य प्रदेश की बड़ी प्रशंसा पढ़ी थी। पर जब उन्होंने नीचे झाँक कर देखा कि वहाँ नंगे पहाड़ खड़े हैं और जहाँ-तहाँ दस-बीस वृक्ष दीख रहे हैंः तब उन्हें इसका बड़ा द़ुख हुआ। संसार में अन्यत्र भी ऐसी ही मूर्खता बरती जा रही है इसकी विस्तृत जानकारी प्राप्त करके उन्हें और भी अधिक वेदना हुई। उनके आदेश पर राष्ट्रसंघ पर अमेरिकी प्रतिनिधियों ने दबाव डाला कि विश्व खाद्य और कृषि संगठन में वन सम्पदा के संरक्षण को भी महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए वैसा हुआ भी। राष्ट्रसंघ के तत्वावधान में संसार में वन सम्पदा बढ़ाने के लिए जो प्रयत्न चल रहें हैं उन्हीं के अर्न्तगत एक बड़ी आर्थिक सहायता देकर लेवनान में नये सिरे से सिडार वन लगाये गये हैं और हजारों एकड़ जमीन फिर से हरी-भरी बनाई गई है। ऐसे ही प्रयास अन्यत्र भी हुए हैं।

इस्राइल में हरा-भरा क्षेत्र एक तिहाई और सूखा रेगिस्तानी दो तिहाई है। उन लोगों ने इस सूखे भूखण्ड को हरा-भरा बनाने का संकल्प किया है और इन दिनों इस दिशा में अथक परिश्रम किया जा रहा है। पिछले दिनों ही 10 करोड़ नये पौधे उन लोगों ने लगाये हैं।

आइसलैण्ड वाले बहुत दिनों से अपनी वन सम्पदा उजाड़ते चले आ रहे थे फलस्वरुप वे अपनी उपजाऊ भूमि से हाथ धो बैठे। सन् 1946 के बाद उनकी आँखें खुली और योजनाबद्ध रुप से 20 लाख नये पेड़ लगाये। टस्मानिया का भी यही हाल हुआ। उन लोगों ने वृक्ष सम्पदा गँवाई फलस्वरुप रेतीली आँधियों का सर्वनाशी सिलसिला आरम्भ हो गया। घास-पात तक को उनने अपने पेट में निगल लिया। जब जीवन-मरण का सवाल पैदा हुआ तो उन्होंने ऊँचे चीड़ और देवदारु के पेड़ लगाकर रेतीली हवाओं से रोकथाम की है और 1500 एकड़ जमीन रेगिस्तान के मुँह में से उगलवाई है। स्काटलैण्ड में कुल्विन सेन्डस नामक छै मील लम्बा और दो मील चौड़ा एक छोटा-सा रेगिस्तान था। उन लोगों ने इह्वस अजगर का मुँह कुचल कर रख दिया है और अब वहाँ हरे-भरे उद्यान लहलहा रहे हैं। लीबिया ने अपने रेगिस्तानों को छोटी झाड़ियों से पाट देने को निश्चय किया है और वे उस प्रयास में भली प्रकार सफल हो रहे हैं। आस्ट्रेलिया ने अपने 7 इंच जितनी स्वल्प वर्षा वाले क्षेत्र में संसार भर से 86 जाति के ऐसे पौधे मँगाकर वहाँ रोपे हैं जो सूखी आव हवा में भी पनप सकते हैं। आग की तरह तपने वाले बूमेटा रेगिस्तान का एक बड़ा भाग अब वृक्षारोपण के अभिनव प्रयासों से हरा-भरा बनाया जा चुका है। उस क्षेत्र के एक किसान डेस्माँड फाइलिस ने अपने एकाकी प्रयत्न से 6000 वृक्ष लगाये हैं जो अब 20 फुट से भी ऊँचे हो गये हैं। इन वृक्षों ने उस क्षेत्र की भंयकर खुश्की को मनुष्यों और पशुओं के रहने योगय बना दिया है।

मोरक्को ने अपनी कुम्भकर्णी नींद त्यागकर अपनी नष्ट होती वन सम्पदा को सँभाला है। इन्हीं दिनों उन लोगों में 65 हजार जैतून के 2700 बादाम के और 1,3100 सदा बहार के बड़े वृक्ष लगाये हैं। इस कार्य के लिऐ उन्हें राष्ट्रसंघ से भी अनुदान मिला है।

चीन अपनी उत्तरी पच्छिमी सीमा को सुरक्षित रखने के लिए फ्राँस की प्रसिद्ध लौह प्राचीर की तरह वृक्षों की हरी दीवार खड़ी कर रहा है यह दीवार 6000 मीटर लम्बी और कई मील चौड़ी होगी। वहाँ बंजर प्रदेशों के वृक्षों से पाट देने का कार्यक्रम चल रहा है।

अब संसार का हर देश समझ गया है कि मनुष्य जीवन के लिए पशु सम्पदा से भी बढ़कर वन सम्पदा का महत्व है इसलिए उसे राष्ट्रीय सम्पत्ति में उच्च स्थान दिया जा रहा है और इसे बढ़ाने के प्रयास को खाद्य उत्पादन स्तर का महत्व दिया जा रहा है।

स्काटलैण्ड के वनस्पति विज्ञानी राबर्ट चेर्म्बस ने लिखा है- वन नष्ट होंगे तो पानी का अकाल पड़ेगा। भूमि की उर्वरा शक्ति घटेगी और फसलों की पैदावार कम होती चलेगी। पशु नष्ट होंगे। पक्षी घटेंगे और मछली प्राप्त करना कठिन हो जायगा। वन विनाश का अभिशाप जिन पाँच पुराने प्रेतों की भयंकर विभीषिका बनाकर सामने खड़ा कर देगा वे हैं बाढ़, सूखा, गर्मी, अकाल और बीमारी। हम जान और अनजान में वन सम्पदा नष्ट करते हैं और उससे जो पाते हैं उसकी तुलना में कहीं अधिक गँवाते हैं।

धर्म शास्त्रों में वट, पीपल, आँवला आदि वृक्षों को देव संज्ञा में गिना है। उनके प्रति किसी समय कितनी गहरी श्रद्धा रही है इसका परिचय इस बात से मिलता है कि अभी भी वृक्षों के साथ लड़कियों का विवाह होने की, प्रथा जहाँ-तहाँ पाई जाती है।

तिरहुत में मंगली लड़कों का विवाह पीपल के पेड़ के साथ कर दिया जाता है। ताकि नक्षत्र दोष का अनिष्ट पीपल पर पड़े और मनुष्य वर को किसी विपत्ति का सामना न करना पड़े।

आन्ध्र के कुडप वंशी ग्रामीणों में कन्या का विवाह बारह वर्ष तक कर देने का रिवाज था, पर यदि किसी कारणवश विवाह न हो सका तो किसी फलदार पेड़ से उसका विवाह कर देते हैं और उसे सुहाग के सभी प्रतीक धारण करा देते हैं। इसके पश्चात् उसका ‘पुनर्विवाह’ किसी भी आयु में हो सकता है। यदि विवाह न हो तो भी उसे सुहागिन के सभी सामाजिक अधिकार मिल जाते हैं और बिरादरी के लोग विवाह ने होने का लाँछन नहीं लगाते।

नेपाल की नेवार जाति के लोग अपनी लड़कियों का विवाह विल्व वृक्ष के साथ करते हैं। इसके पश्चात् जब किसी पुरुष के साथ विवाह होता है तो वह उपपति कहलाता है। उपपति को कोई स्त्री कभी भी बहिष्कृत कर देती है, उसे भृत्य जितने भी अधिकार प्राप्त होते हैं।

हिसार जिले की घुमक्ड़ बावरिया जाति में और सरगुजा के भीलों में यह प्रथा है कि विवाह की अनिच्छुक लड़कियों का विवाह पीपल के वृक्ष से कर देते हैं और यह मान लेते हैं कि उसका कुमारी रहने का ‘दोष’ निपट गया।

हरियाली को मनुष्य जीवन सहचरी का स्थान मिलना चाहिए और उसके परिपोषण के लिए प्रत्येक नागरिक में व्यक्तिगत रुप से दिलचस्पी उत्पन्न की जानी चाहिए।

महाकवि अलेगजेण्डर स्मिथ प्रकृति को असीम प्यार करते थे और विचारशील लोगों को सम्बोधन करके कहते थे-अपनी स्मृति पीछे के लिए छोड़ जाना चाहते हो तो भवन बनाने और पदक प्राप्त करने की अपेक्षा वृक्ष लगाने पर ध्यान दो वे इन दोनों की अपेक्षा अधिक चिरस्थायी होते हैं।

संसार में सबसे पुराना वट वृक्ष ताइबान में ढूँढ़ निकाला गया है। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर अब उसकी आयु 4128 वर्ष है। वह 48 मीटर ऊँचा है। तने की मोटाई का व्यास 40 फीट से अधिक है। चिजायी प्रान्त के मिएन युएह ग्राम के पास की पहाड़ी पर यह उगा हुआ है। वहाँ के निवासियों ने उस महावृक्ष का नाम ‘चेनी पौरिस’ रखा है।

यह वृक्ष वृद्ध होने पर भी अभी सैकड़ों वर्षों तक मजे में अपना अस्तित्व बनाये रहने योगय सुदृढ़ है।

इससे अधिक सस्ता, अच्छा, ऊँचा, चिरस्थायी एवं अतीव उपयोगी स्मारक और क्या हो सकता है। मनुष्य अपना नाम चाहने की दृष्टि से ही सही वृक्षारोपण को महतव दे तो भी उससे बहुत हित साधन हो सकता है। बिहार के हजारी बाग जिले का नामकरण इसी आधार पर हुआ है कि उस क्षेत्र के हजारी किसान ने अनवरत श्रम करके उस क्षेत्र में हजार बाग लगवाने में सफलता प्राप्त की थी।

वृक्ष मनुष्य परिवार के ही अंग है। वे हमें प्राणवायु प्रदान करके जीवित रखते हैं। इतने अधिक मार्गो से हमारी सहायता करते हैं जिनका मूल्याँकन करना कठिन है। यह तथ्य स्मरण रखने योगय है कि यदि वृक्ष न रहेंगे तो मनुष्य का अस्तित्व भी इस पृथ्वी पर शेष न रहेगा।


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