मृदुल बयार प्रेम की बनकर तुम लहराओ (kavita)

August 1975

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मानव - मानस प्यासा है सौजन्य प्रेम का। मानव ! तुम सौहार्द्रय-स्नेह ने धन बन जाओ॥

आँख उठी जिस तरफ वेदना ही तो पायी। करक रही सपनों से दुखती सबकी आंखें॥ चिन्ता, ऊब, निराशा हर मन पर छायी है॥ सूख चली है मनचाही आशा की पाखें॥

मेटो यह मानसिक दैन्य की बढ़ती आंधी। मृदुल बयार प्रेम की बनकर तुम लहराओ॥ थककर बैठा बीच डगर में जीवन-रहा। टूट गया उत्साह, प्रेरणा विदा हो गया॥

कैसे पहुँचेंगे मंजिल तक थके पांव से। चार कदम चलने की भी तो चाहे सो गया॥ ऐसे हारे हुए व्यक्ति को भरो बांह में। और जगाकर साहस फिर नव शक्ति जगाओ॥

हर तन है घायल, हर आत्मा भी प्यासी है। टूट रहा है हर हृदय वेदना इतनी गहरी ॥ रोती है हर साँस, अधूरे सूखे है सबक। सिसक-सिसक सो गया अरे ! प्राणों का प्रहरी॥

तोड़ो गहन उदासी अपने सौ मनस्य से। प्राण-प्राण को प्रेमामृत आकण्ठ पिलाओ॥ रीति मिट चली है जीवन में प्रेम-प्यार की। अपने तक सीमित रहने है दुख पाये हैं।

पर होते इंसान, सही अर्थों में वे हो। जिनके नयन पराये दुख से भर आते हैं॥ मेरे साथ चलो तुम आज दुलार बांटने। संवेदन का कोष मुक्त हो आज लुटाओ॥

-माया वर्मा

*समाप्त*


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