उदास न रहें- सरसता न खोयें

August 1975

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

उपनिषद्कार का वचन है-’आत्मानंनावमन्येत, आत्मानंनावसादयेत्’ अर्थात् अपने आपकी अवमानना, अवज्ञा, मत करो। अपने को अवसदित मत करो, उदास न रखो।

उत्साह रहित स्थिति का नाम उदासी है। यह स्थिति प्रज्ञ, परमहंस जीवन मुक्त की अत्यंत उच्च कोटि की अध्यात्म स्थिति प्राप्त होने पर भी हो सकती है। साक्षी, दृष्टा, निरपेक्ष है। उसी स्तर पर पहुँचे हुए ब्रह्म वेत्ता, संसार में प्रभु की क्रीड़ा विनोद की हलचलें देखते हैं और कमल पत्र निर्मित भाव से उसके उस कौतुक को देखते हैं। अपने को आत्म चेतना की सुविस्तृत शृंखला की एक कड़ी मानकर नियत निर्धारित कर्म प्रयोजन में लगे रहते हैं। इस व्यवस्था संचालन के एक नट अभिनेता की तरह कर्म निरत रहते हुए न उन्हें हर्ष होता है न विषाद। इतने पर भी उनकी कर्म निरति के लिए आवश्यक स्फूर्ति एवं तत्परता में कोई कम नहीं होती। यदि उस तरह की कमी हो जाय तो शरीर काम करेगा और न मस्तिष्क। अवसादग्रस्त होकर वे जीवित मृत बन जायेंगे और मनुष्य जीवन के साथ जुड़ी हुई अनिवार्य कर्मनिष्ठ पूरी न करने के पाप-भागी बनेंगे। वह उच्च अध्यात्म स्थिति की बात हुई जिसमें जीवन अन्तः भूमिका में दृष्टा अथवा उदासीन रहता है, मनः स्थिति को अनासक्त रखता है किन्तु इससे उसकी शारीरिक मानसिक तत्परता में कोई अन्तर नहीं आता। भौतिक जगत में उदासी जिस स्थिति को कहते हैं उसे परिभाषा के अंतर्गत तत्वज्ञानी की मनोभूमि को नहीं ही रखा जा सकता। सन्त मत का ‘उदासीन’ सम्प्रदाय ‘अवसाद’ की निर्जीवन से भिन्न है।

जीवन का अमृत उत्साह है उसी से सजीवता और सरसता उत्पन्न होती है। इंद्रियों की तृप्ति उनके भोग पाकर भी सकती हैं किन्तु अन्तःकरण का उल्लास सरसता का निर्भर है। दाम्पत्य जीवन का प्राण उसकी सरसता है। पति पत्नी एक दूसरे को देखकर चन्द्र-चकोर जैसी प्रसन्नता अनुभव करते हैं-एक दूसरे के लिए उमगते रहते हों तो समझना चाहिए उन्हें इन्द्र और शची के काम और रति के जोड़े से अधिक आनन्द मिल रहा होगा, भले ही उनका शरीर रुग्ण अथवा कुरूप ही क्यों न हो, भले ही वे दरिद्रता और कष्टकर कठिनाइयों से ग्रसित ही क्यों न रहे हों। यही बात अन्य स्वजनों, मित्रों के संबंध में है उनके बीच उमंगे विद्यमान हों तो ‘मिलन’ का जो भाव मरा माहात्म्य गाया जाता है वह पूरी तरह सार्थक हो रहा होगा।

उदासी को दूसरे शब्दों में भावनात्मक मृत्यु कहना चाहिए। शरीर नित्य कर्म करता रहता है, मस्तिष्क को भी सामने प्रस्तुत समस्याओं को हल करना पड़ता है, पर यह सब होता मशीन की तरह है। नीरसता एक अन्य मनस्कता के कारण उत्साह चला जाता है और साथ ही उल्लास भी। इस भाव शून्यता को एक प्रकार से जड़ता ही कहा जा सकता है। किसी घड़ी उपलब्धि की आशा इस स्थिति के रहते हो ही नहीं सकती। उदासी जीवन को असफलताओं को श्मशान बनाकर रख देती है। उसे एक प्रकार का अभिशाप ही कहना चाहिए। इस विपत्ति में जो ग्रसित हो गये हैं उन्हें अपने उद्धार का शक्ति भर प्रयत्न करना चाहिए।

मनः शास्त्र वक्ता उदासी को एक मानसिक रोग गिनते और कहते हैं। छोटा दीखने पर भी वह अत्यन्त भयावह है। इस स्थिति में कोई तेजस्वी, ओजस्वी और मनस्वी बन ही नहीं सकता। इस प्रकार की चमक रही भी हो तो उसे स्थिर नहीं रखा जा सकता। उदासी को मनोविज्ञानी तीन भागों में विभक्त करते हैं-(1) ट्राँशिएन्ट डिप्रेशन अथवा ‘द ब्लूज’ इसे अस्थिर उदासी कह सकते हैं जो कभी भी आ जाती है और कभी भी चली जा सकती है। (2) पीरियाडिग डिप्रेशन अथवा ‘मूड स्विग्स’ इसमें कई कारण जुड़े रहते हैं अमुक ऋतु में, अमुक परिस्थितियों में उसका उभार आता है और स्थिति में परिवर्तन होने पर वह चला भी जाता है। (3) मेलेकोलिया अर्थात् ऐसी स्थिर उदासी जो प्रायः बनी ही रहती हो। अनुकूलताएं, प्रसन्नता एवं सुविधा के पर्याप्त साधन रहने पर भी उसमें कमी नहीं आती।

अस्थिर उदासी अमुक शारीरिक अथवा मानसिक कारणों से उत्पन्न होती है। जिगर की खराबी, कब्ज, आंतों की सूजन, स्नायु संस्थान की गड़बड़ जैसे शारीरिक कारण एवं प्रियजनों की उपेक्षा, प्रिय वस्तुओं का अभाव, प्रयत्नों में असफलता, अपमान आदि मानसिक कारण उदासी की स्थिति पैदा करते हैं। चिन्ता, भय, शोक, निराशा, आशंका, जैसी व्यथाएँ देर तक घेरे रहें तो भी कुछ समय बाद मनुष्य हतप्रभ होकर उदास रहने लगता है परिस्थिति बदल जाने पर, ध्यान उन बातें से हट जाने पर, कोई सुखद प्रसंग सामने आ जाने पर इसमें परिवर्तन भी हो जाता है। उदास रहने वाला व्यक्ति प्रसन्न रहता दीखने लगता है और उसमें फिर से उत्साह जागृत होता है।

सामयिक उदासी में मन का अमुक परिस्थितियों से डर जाना और उनमें विपत्ति की आशंका अनुभव करना प्रधान कारण होता है। अमुक ऋतु, अमुक व्यक्ति, अमुक स्थान, अमुक गृह दशा, अपने लिए विपत्ति उत्पन्न करती है यह विश्वास आरंभ में मनुष्य को उद्विग्न, भयभीत करते हैं पीछे जब उस दबाव से मन टूट जाता है तो कातरता आती है और उसे भी सहन कर सकने पर भाव क्षेत्र की उर्वरता चली जाती है। ऊसर भूमि की तरह उसमें भला बुरा कुछ भी नहीं उपजता।

स्थिर उदासी अधिक भयंकर है। उसमें परिस्थितियाँ कम और आत्म अवमानना प्रधान कारण होती है। आत्म हीनता, आत्म प्रताड़ना, आत्म अवमानना एक प्रकार से हल्के किस्म की आत्म हत्याएँ ही है। उद्विग्न मनुष्य अपने हाथों अपना आत्म हनन करते देखे जाते हैं। शरीर से प्राण को सर्वथा पृथक कर देने का नाम आत्म हत्या है। स्थिर उदासी उस स्तर तक तो नहीं पहुँचती पर उमंगों की वह उर्वरता नष्ट कर देती है जिसके आधार पर किसी दशा में प्रगति कर सकना एवं रसानुभूति का आनन्द पा सकना संभव होता है। ऐसे व्यक्ति अपने को अक्सर दुर्भाग्य ग्रस्त, दैवी प्रकोप के शिकार मानते हैं और कई बार दार्शनिकता की आड़ लेकर दुनिया को माया, मिथ्या, स्वप्न, भव बन्धन आदि बताकर उससे दूर भागने का उपक्रम रचते हैं। यद्यपि वे रहते इसी दुनिया में हैं और गुजारा भी इसी से पाते हैं, पर कहते यही है-दुनिया छोड़ दी या छोड़ रहे है। कलियुग और उसमें उत्पन्न होने वाली बुराइयों का वर्णन चाहे कितना ही भ्रामक क्यों न हो स्थिर उदासीनता की दशा में वही सुनिश्चित तथ्य प्रतीत होता है। भवितव्यता तो भवितव्यता ही है, उसे बदलना-पलटना संभव नहीं यह मान कर वे खिन्नता और निराशा युक्त उदासीनता में डूबे रहते हैं।

उदासी की व्यथा और उसकी निवृत्ति के संबंध में श्रीमती मारजोरे वोल्टन ने अपने शोध और उपचार प्रयत्नों का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है कि उस स्थिति से उबरने के लिए अवसाद ग्रसित को स्वयं ही उसकी हानियों को समझने और उससे पीछा छुड़ाने के लिए प्रयत्न करने पड़ते हैं। दूसरे लोग तो वैसी सुविधा जुटाने में थोड़ी सहायता भर कर सकते हैं।

वोल्टन कहता है-उदासी ग्रस्त मनुष्यों को अपने सोचने की दिशा बदलनी चाहिए और यह मानकर चलना चाहिए कि जीवन में आती रहने वाली कठिनाइयों में से कोई भी असह्य नहीं है। हर संकट या अभाव का सामना किया जा सकता है। यदि उन्हें बदलना संभव न हो सके तो भी उनके साथ तालमेल बिठाकर गयी ढर्रा चलाया जा सकता है। असह्य तो केवल वह भीरुता है जो कठिनाई का सामना न कर सकने की अक्षमता का समर्थन करती है। वस्तुतः ग्लानि और भीरुता ही असली विपत्ति है घटना क्रम की विपन्नता नहीं, अपनी भीरुता से लड़ सकना हर किसी के लिए सरल और संभव है। यह मान्यता यदि सुदृढ़ की जा सके तो आत्मा हीनता और आत्म प्रताड़ना का दबाव घट सकता है और उदासीनता से पीछा छुट सकता है।

संगीत, साहित्य, शिल्प, कला, शोध, बागवानी, खेल कूद, पर्यटन आदि के नये शोक या कार्यक्रम बना लेने से भी अर्थ मनस्कता को बदलने का अवसर मिलता है। लोक सेवा के सार्वजनिक कार्यों में रुचि लेना भी आत्म संतोष और आत्म गौरव जगाने में सहायता करता है।

एकान्त वासी होने से उदासी पनपती और बढ़ती है। इसलिए लोगों के साथ घुलने मिलने की, हँसने-खेलने की, अपनी कहने और दूसरों की सुनने की आदत डालनी चाहिए। मिलनसार बनने और व्यस्त रहने के प्रयत्न करने चाहिए अनावश्यक संकोच शीलता को सज्जनता या बड़प्पन का चिन्ह मान बैठना गलत है। गंभीर होना अलग बात है और गीदड़ों की तरह डर कर कोने में छिपे बैठे रहना और संकोच के कारण मुँह खोलने का साहस न जुटा पाना दूसरी। संकोची मन ही मन घुटता है और उसकी घुटन प्रकारान्तर से व्यक्तित्व का गला घोंटती चली जाती है। उदासी इसी प्रकार की गिरी-मरी मनोदशा से सड़ी गली अभिव्यक्ति है। उसे बदलने का साहस न करने से तो दुर्भाग्य का सर्वतोमुखी दबाव बढ़ता ही जायेगा।

भूत काल की अप्रिय घटनाओं का चिन्तन भुला देना चाहिए और उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं के आशा भरे चित्र बनाने चाहिएं जो बीता सो गया। अब उसे लौटाया नहीं जा सकता। अतीत में जो दुखद घटनाएं घटित हो चुकी उनको बदलना किसी भी प्रकार संभव नहीं। जो लौटाया नहीं जा सकता उसके बारे में सोचना भी निरर्थक है। भविष्य को उज्ज्वल बनाना अपने हाथ में है और उसी की तैयारी में लगा जा सकता है। जिस भी स्थिति में है-उसी में प्रगति की दिशा में एक कदम आज ही बढ़ाया जा सकता है और वह यह है कि उज्ज्वल संभावनाओं पर विचार करना उसका ढाँचा बनाना तत्काल आरंभ कर दिया गया। अतीत की कटुता को भुलाया जाना और भविष्य की आशंकाओं को निरस्त करना उचित कठिन नहीं है जितना कि उदासीनता ग्रसित मनःस्थिति में प्रतीत होता है।

जिन कारणों से उदासीनता उत्पन्न होती है उनमें यथा संभव सुधार करना चाहिए। संभव हो तो परिस्थितियों को बदलने और कुछ समय के लिए स्थान परिवर्तन करने की व्यवस्था बनाना चाहिए। मित्रों और कुटुम्बियों को उदासीन व्यक्ति का कुकल्पनाओं का झूठी सहानुभूति दिखाने के लिए समर्थन नहीं करना चाहिए अन्यथा व्यथा की जड़ें और गहरी बन जायेंगी। उनका कर्तव्य है कि उज्ज्वल भविष्य के सामने दिखायें और वर्तमान में सरसता उत्पन्न करने वाले जो भी प्रयत्न बन पड़े उन्हें कार्यान्वित करने की चेष्टा करें। हँसने-हँसाने हल्की-फुलकी बातें करने, खेल विनोद का वातावरण बनाने के लिए यदि कुछ किया जा सके तो उसे उपचार का उपयुक्त प्रयास माना जायेगा।

उदासी का आक्रमण परिस्थितियों के कारण मनःस्थिति की दुर्बलता के आधार पर होता है इसलिए उसके निराकरण में बाह्य उपचार क्रम और रोगी के निजी प्रयास अधिक सफल हो सकते हैं। आत्महीनता अनजाने ओढ़ ली गई अब जान बूझ कर आत्मोत्कर्ष का साहस करना चाहिए। उदासी को, हानियों को समझना, उसे दूर करने की आवश्यकता अनुभव करना, चिंतन की दिशा और अवांछनीय परिस्थितियों को बदलने में संलग्न होना, जैसे उपाय अपना कर इस घातक मनोविकार से पीछा छुड़ाया जा सकता है जो देखने में छोटा दीखता है किन्तु जीवन की सरसता और सफलता को नष्ट भ्रष्ट करके रख देता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118