आज भौतिक प्रगति और वैज्ञानिक उन्नति के लिए जो सरंजाम खड़े किये गये हैं उनमें यह ध्यान नहीं रखा गया है कि मानव जीवन को समुन्नत स्तर को बनाये रखने के लिये वातावरण को कोलाहल पूर्ण न बनाया जाय। अन्यथा प्रगति के नाम पर जो कुछ हाथ जगेगा, वह बहुत महंगा पड़ेगा। घने शहर बसते जा रहे हैं और विशालकाय कल-कारखानों का विस्तार हो रहा है। रेलों का जाल बिछ रहा है और मोटरों की घुड़दौड़ अधिकाधिक विस्तृत होती जा रही है। इन सबको मिलाकर ऐसी विक्षुब्ध परिस्थितियाँ बन रही हैं जिन्हें एक प्रकार का आतंकवाद ही कह सकते हैं। धन और ठाठ-बाठ का विस्तार इससे भले ही होता है जीवन विकास की मूलभूत आवश्यकताओं का एक प्रकार से बेतरह विनाश ही होता चला जा रहा है।
शहरों में सड़कों के किनारे मोटरों की भगदड़ से प्रायः 70-80 डेसीबल का शोर उत्पन्न होता है बड़े कारखानों की मशीनें 100 डेसीबल तक का कोलाहल करती हैं। सामान्य हवाई जहाज भी इतने ही दहाड़ते हैं। जेट विमान तो गजब ही करते हैं उनका दहला देने वाली आवाज 150 डेसीबल तक जा पहुँचती हैं। इसका प्रसार इतना होता है मानो किसी ने तानकर घूँसा मारकर तिलमिला दिया हो।
दूरदर्शी देशों में यह प्रयत्न किया जा रहा है कि 100 डेसीबल से अधिक की आवाज पर तत्काल प्रतिबन्ध लगा दिया जाय और उसे अधिकाधिक नीचे लाने के लिये क्रमिक प्रयत्न किया जाय। लाउडस्पीकरों पर अनावश्यक शोर करने की किसी को भी छूट न हो। बिना संतोषजनक कारण बताये लाउडस्पीकरों का उपयोग करने की इजाजत किसी को भी न मिले। विशेषतया रात्रि को जबकि निद्रा के लिये कोलाहल रहित वातावरण की आवश्यकता रहती हैं।
शान्त जलाशय को ढेला फेंकने पर लहरे उत्पन्न होती है और वे किनारे की ओर बढ़ती चली जाती हैं। इसी प्रकार आकाश में भरे हुए ईथर तत्व में कोई आवाज होने पर ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं। पानी की लहरें केवल सतह पर बहती है पर ध्वनि तरंगें हर दिशा में गोल गेंद जैसा घेरा बनाकर बढ़ती चली जाती हैं। यह ध्वनि लहरें आन्दोलन या कंपन कहलाती है। पानी में बड़ा पत्थर अधिक जोर से फेंकने पर लहरें अधिक तथा प्रबल उठती हैं, यदि ढेला छोटा या हल्का हो तो लहरें भी हलकी होंगी। उसी के अनुसार ध्वनि तरंगों की शक्ति भी न्यूनाधिक रहेगी।
एक सेकेंड में कितनी ध्वनि तरंगें उठीं, इस आधार पर शब्द शास्त्री अपना लेखा-जोखा रखते हैं। मनुष्य के कानों की रचना इस प्रकार की है कि वे एक सेकेंड में 20 से कम और 20 हार से अधिक कंपन गति को नहीं सुन सकते। आमतौर से एक हजार और पाँच हजार के बीच की ध्वनि तरंगें ही आसानी से सुनी जाती हैं। कई पशु-पक्षी इससे न्यून तथा अधिक ध्वनि प्रवाहों को भी सुन सकते हैं। चमगादड़ 20 हजार से ऊँचे कंपन भी सुन सकता है। मछली के कान नहीं होते उसका मस्तिष्क बिना कानों के ही शब्द प्रवाह के आधार पर आवश्यक जानकारी प्राप्त कर लेता है।
मंद से मंद ध्वनि जो मनुष्य के कानों से सुनी जा सकती है उसे ‘शून्य डेसीबल’ इकाई माना गया है। कानाफूसी की घुसफुस प्रायः 10 से 20 डेसीबल तक ही होती है। 140 डेसीबल की ध्वनि मनुष्य के कान के पर्दे फाड़ सकती है और उसे बहरा कर सकती है। 150 पर तो शरीर में भारी विक्षोभ उत्पन्न हो सकता है और मृत्यु तक हो सकती है। यों शरीर 75 को ही असहाय मानकर उसके विरुद्ध विद्रोह करने लगता है। तेज शोर के बीच रहने वाले लोगों की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति मंद या तीव्र रोगों की ओर बढ़ती जाती है।
हवाई जहाज इतना शोर करते हैं कि यदि 100 फीट दूरी से उनकी आवाज सुनी जाय तो सिर चकराने लगेगा। हवाई जहाजों के भीतर बैठे यात्रियों और चालकों को यह शोर कष्ट न दे इसलिये भीतर ध्वनि अवरोधक यन्त्र लगे होते हैं, पर बाहर आकाश में तो वह शोर होता ही है। इस ध्वनि का प्राणियों पर क्या प्रभाव होता है यह जाँचने के लिये गिनीपिग चूहों को जेट इंजन के शोर में रखा गया। कुछ ही मिनट में वे सब झुलस कर मर गये। तेज ध्वनियों का मानव शरीर पर बुरा असर पड़ता है यह भली प्रकार अनुभव कर लिया गया है। वैज्ञानिकों ने अब इतनी तीव्र ध्वनियों का आविष्कार कर लिया कि उनके शोर मात्र से बारूद या पेट्रोल की तरह देखते-देखते भयंकर अग्निकाण्ड हो सकता है।
आस्ट्रिया के ध्वनि विज्ञानी डा0 ग्रिफिथ का कथन है कि कोलाहल में रहने वाले अपेक्षाकृत अधिक जल्दी बूढ़े होते हैं। इंग्लैंड को स्वास्थ्य रिपोर्ट में शोर वाले क्षेत्र में एक चौथाई लोगों को न्यूरोसिस, सनक की मस्तिष्कीय विकृति में ग्रस्त पाया गया। अमेरिका के आवाज करने वाले कारखानों में एक चौथाई के कान अपनी स्वाभाविक क्षमता गंवाते चले आ रहे हैं।
सुपर मगनक लड़ाकू विमानों की दहलाने वाली आवाज के केन्योन की ऐतिहासिक गुफाओं में दरारें डाल दीं। ब्रिटेन और फ्राँस के सहयोग से बने कनकार्ड जेट ने लन्दन के सेन्टपाल गिरजाघर और पार्लमेन्ट भवन तक के लिये खतरा उत्पन्न कर दिया था। फलतः उस क्षेत्र में उसके उड़ने पर प्रतिबंध लगाया गया। डाक्टरों ने उस विमान की भयंकर आवाज के संबंध में यह भी चेतावनी दी थी कि उसकी उड़ान मार्ग के इर्द-गिर्द 100 मील तक के हृदय रोगियों का जीवन संकट में पड़ जायेगा।
मनुष्य के कान 25-30 डेसीबल तक की आवाज को सहन कर सकते हैं। इससे अधिक कोलाहल जहाँ भी होगा वहाँ कान के जरिये अवाँछनीय तनाव मस्तिष्क पर पड़ेगा और फिर वह उत्तेजना शरीर के विभिन्न अवयवों पर बुरा असर डालेगी। सेना फ्राँसिस्को के कैलीफोर्निया मेडिकल कॉलेज द्वारा ध्वनि प्रवाह के विभिन्न परिणामों का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है-विषैली जलवायु की तरह ही कोलाहल युक्त वातावरण भी स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव डालता है।
सन् 1966 में रूस के गोर्की नगर में अनभ्यस्त शोर का प्रभाव पशुओं पर क्या पड़ता है इसका परीक्षण किया गया तो यही पाया गया कि वे कर्कश ध्वनियों को सुनने के कारण अपनी सामान्य दिनचर्या छोड़ बैठते हैं और उद्विग्न रहने लगते हैं। उनकी कार्य क्षमता घट जाती है और अस्वस्थता आ घेरती है। पालतू पक्षी भी शोर से घबराते हैं। जो पालतू नहीं हैं वे कोलाहल से हटकर अन्यत्र अपने घोंसले बनाने की तैयारी करते हैं।
टैक्सास के एक शोध संस्थान ‘कैलीयर हीयरिंग एण्ड स्पीच सेन्टर’ द्वारा की गई ध्वनि प्रतिक्रिया शोध का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए उसके निर्देशक डा0 ग्लोरिंग डलास ने बताया कि अधिक शोर करने वाले कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों में से अधिकाँश को आँशिक बहरापन आ घेरता है। साथ ही उनकी कार्यक्षमता एवं सहनशीलता घट जाती है। चैकोस्लोवाकिया में शोर करने वाले और शोर रहित व्यवस्था वाले कारखानों की उत्पादन शक्ति कास लेखा-जोखा लिया गया तो प्रतीत हुआ कि शान्ति के वातावरण में शारीरिक और मानसिक श्रम कहीं अधिक मात्रा में संभव हो सकता है।
हारवर्ड विश्वविद्यालय के प्रो0 वैरोल विलियम्स ने सुविस्तृत क्षेत्र में दीर्घकालीन पर्यवेक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला है कि मनुष्य की जीवनी शक्ति को नष्ट करने और उसे अकाल मृत्यु का ग्रास बनने के लिए बाध्य करने में कोलाहल का बहुत बड़ा हाथ हैं। बड़े शहरों में सड़क के किनारे बने हुए घरों में जो लोग रहते हैं दौड़ती हुई मोटरों की आवाजें उनके मस्तिष्क को क्षुब्ध करती रहती हैं। फलतः अन्य मुहल्लों में रहने वालों की अपेक्षा वे अनिद्रा, घबराहट, धड़कन, बधिरता, रक्त-चाप, अपच जैसे रोगों से कहीं अधिक अनुपात में बीमार पड़ते हैं।
जार्जिया विश्वविद्यालय के डा0 विलियम एफ॰ गेबर ने चूहों को कोलाहल भरे वातावरण में रखकर देखा तो वे दिन-दिन दुबले होते गये और उन दिनों गर्भ में आये लगभग सभी बच्चे किसी न किसी बीमारी से ग्रसित एवं अविकसित अंग लेकर जन्मे पाये गये।
ओहियो के शरीर शास्त्री लीस्टर डबल्यू0 सानताँग ने गर्भवती महिलाओं में से जो शोर ग्रस्त क्षेत्र में रहने वाली थी उन्हें दुर्बल और रुग्ण संतान को जन्म देने वाली पाया।
सन् 1963 में लेनिन ग्राड के निकटवर्ती क्षेत्र में बुलडोजरों की सहायता से ऊबड़-खाबड़ जमीन साफ की गई। इन दैत्याकार यन्त्रों का प्रभाव समीप के मुर्गी फार्मों पर बहुत बुरा पड़ा। इन पक्षियों के पंख इस बुरी तरह झड़े कि वह विचित्र तरह के कुरूप हो गये। उदास रहने लगे और अण्डे देना रुक गया। असहाय शोर से मुर्गियां घबराने लगी और उनकी सामान्य दिनचर्या अस्त-व्यस्त हों गई।
वातावरण का कोलाहल असंदिग्ध रूप से मनुष्य के लिए अत्यन्त हानिकारक हैं। उसमें निवास करते हुए मात्र पौष्टिक आहार-विहार के अथवा दवादारु के आधार पर सामान्य स्वास्थ्य संरक्षण भी संभव नहीं हो सकता है। जिन्हें धन ही सब कुछ प्रतीत होता है वे भले ही घने शहरों में या गहरे समुद्रों में रहने पर जिन्हें जीवन की समस्वरता से प्यार हैं उन्हें अपना निवास प्रकृति के सान्निध्य में-शान्त वातावरण में व्यतीत करना चाहिये। कोलाहल किसी को सहाय अथवा प्रिय ही क्यों न प्रतीत होता हो, पर वस्तुतः उसकी विषाक्तता इतनी घातक है कि उसके दुष्परिणामों से बचा नहीं जा सकता।
ठीक इसी प्रकार मानसिक उद्विग्नता का बुरा प्रभाव भुगतना पड़ता है। चिन्ता, भय, आशंका, निराशा, क्रोध, आदेश, ईर्ष्या, ललक, लिप्सा का कोलाहल जिनके मन मस्तिष्क में निरन्तर उद्विग्नता पैदा करता रहता है उन्हें चैन की-शान्ति ओर संतोष की सुखद घड़ियां कदाचित ही मिल सके। वातावरण का कोलाहल शरीर और मन को विक्षुब्ध करता है। चिंतन क्षेत्र का कोलाहल मनुष्य को एक प्रकार से विक्षिप्त ही बनाकर रख देता है। ऐसा जीवन जीकर भला क्या कोई सुखी रह सकता है।