नारी की आज जो स्थिति हैं, उसे किसी भी प्रकार न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। मनुष्य के कुछ जन्म सिद्ध अधिकार हैं। प्रत्येक मानव प्राणी को अपनी मर्जी का यौगिक जीवन जी सकने की स्वतन्त्रता रही है और रहनी चाहिये। मैत्री के आधार पर कोई किसी के लिये कुछ भी त्याग कर सकता है पर कैदी के अतिरिक्त अन्य किसी को बलात् बंधन में बाँधने का-उसको बलात् उपयोग करने का अधिकार नहीं है। पर नारी इस मूलभूत मानवी अधिकार से भी वंचित है। कन्या को उसके अभिभावक कहीं भी किसी के साथ मानकर कर सकते हैं या बेच सकते हैं। पति उसे बलपूर्वक अति अधिकार में रख सकता है और अनिच्छा होते हुए भी जा वाह सो अपनी मर्जी के अनुसार करा सकता है। उसके साथ चाहे जैसा व्यवहार कर सकता है, पशुओं जैसी मारपीट कर सकता है, लुक’-छिपकर जान भी ले सकता है, यह स्थिति मनुष्य के मूल अधिकारों के विपरीत हैं। स्वच्छ जीवन जीने पर इतने कड़े प्रतिबंधों का होना किसी भी दृष्टि से न्यायोचित नहीं हैं। पर्दा-प्रथा के अनुसार जिस स्थिति में नारी का रहना पड़ता है उसे मानवोचित नहीं कह जा सकता। किन्तु शताब्दियों से चल रही अवाँछनीय परम्पराओं ने इन्हीं विडम्बनाओं को “मर्यादा” के रूप में मान्यता देदी हैं। अब लोग इन बातों को अन्याय तक नहीं मानते वरन् उचित आवश्यक तक कहते हैं और उन्हीं तर्कों का-धर्म प्रचलनों का सहारा लेकर उन प्रतिबंधों का समर्थन करते हैं।
इस स्थिति में चिरकाल से रहती चली आ रही नारी धीरे-धीरे अपनी मानवी उपलब्धियों से वंचित होती चली गई और आज की दुखद स्थिति में आ पहुँची घर के छोटे से पिंजड़े में आजीवन कैद रहने के कारण उसका स्वास्थ्य चौपट हो गया। खुली हवा, खुली धूप, हाथ-पाँव हिलाने की स्थिति न मिलने पर स्वास्थ्य का सर्वनाश होता ही हैं। छोटी आयु में विवाह हो जाने पर किशोरावस्था और नव-यौवन के दिनों होने वाले शारीरिक विकास की जड़े ही कट जाती है। शरीर शास्त्र का स्पष्ट निष्कर्ष हैं कि बीस वर्ष से कम आयु में कामोपभोग और पच्चीस वर्ष की कम आयु में संतानोत्पादन नारी के स्वास्थ्य को मटियामेट करके रख देता है। उसे छोटी-बड़ी अनेकों बीमारियाँ आरम्भ से ही घेर लेती हैं और मरने दम तक साथ रहती है। पेडू का दर्द, कमर का दर्द, पेट दुखना, मासिक धर्म की अनियमितता, श्वेत-प्रदर, पेशाब में जलन, जैसे रोग स्पष्टतः शक्ति से अधिक मात्रा में ज्ञानेन्द्रिय का दुरुपयोग किये जाने के ही दुष्परिणाम हैं। छोटी आयु से ही कच्चे अंग अवयवों पर जब दाम्पत्य हलचलों का अमर्यादित भार पड़ेगा तो उससे स्वास्थ्य की जड़े खोखली होती ही हैं। स्त्रियों में से अधिकाँश को अपच, सिरदर्द, अनिद्रा, हाथ-पैरों में भड़कन, आँखों में जलन, मुँह में छाले, थकान, सुस्ती, बेचैनी, उदासी जैसी शिकायतें बनी रहती हैं। इसका कारण उनकी जीवनी शक्ति का क्षीण हो जाना ही होता है। जिन लड़कियों का अपना शरीर ही सुविकसित नहीं हो पाया उनके ऊपर समय से पहले बच्चे पैदा करने का भार पड़ेगा तो वह शक्ति जो अपना शरीर पुष्ट कर सकती है-महज ही समाप्त हो जायेगी। बच्चे का शरीर आखिर माता का शरीर काटकर ही तो बनता है। उसका रक्त मास, हड्डी आदि तो कुछ है वह स्पष्टतः माता के पास जो शरीर संपत्ति थी उसी का एक टुकड़ा अलग से टूट कर खड़ा हो गया है जो दूध बच्चा पीता है वह माता के रस रक्त के अतिरिक्त और क्या हैं ? उसे बच्चा पीता रहेगा तो माता के शरीर में उसकी कभी पड़ेगी ही। जो रक्त माँस लड़कियों के अपने स्वास्थ्य संवर्धन के लिए आवश्यक था, वही यदि सन्तान में निकलता चला जाय तो स्पष्ट है कि इस कारण उसे स्वास्थ्य की दृष्टि से दुर्बल, रुग्ण और गई-गुजरी स्थिति में रहना पड़ेगा। दुर्बल के पास न रूप बचता है, न यौवन, न सौंदर्य, न उत्साह, न स्फूर्ति, न ताजगी, न मुस्कान। लड़कियों को छोटी आयु से ही दाम्पत्य-जीवन के दबाव में जिस प्रकार पिसना पड़ता है वह उनकी अकाल मृत्यु का बहुत बड़ा कारण है। प्रसव पीड़ा से लाखों महिलाएँ हर साल बेमौत मरती है इसका कारण उनके प्रजनन अंगों का दुर्बल स्थिति होते हुए भी असह्य दबाव पड़ना ही एकमात्र कारण है। प्रसव काल में जितना रक्त जाता है, जितना कष्ट होता है उसे परिपुष्ट माता का स्वास्थ्य ही सहन कर सकता है। कमजोर शरीर वालों लड़कियों के लिए तो यह बेमौत मारे जाने जैसा अभिशाप है। स्वास्थ्य की दृष्टि से अविवाहिताएँ तथा विधवाएँ-सुहागिनों की तुलना में कहीं अच्छी पाई जाती है इसका कारण यही है कि उन्हें दाम्पत्य कर्म का बोझ नहीं सहना पड़ा।
यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि विवाह नहीं करना चाहिए-दाम्पत्य-जीवन अनावश्यक है और बच्चे उत्पन्न नहीं करने चाहिए। यह सब बाते सहज स्वाभाविक रीति से होने चाहिए। स्त्री का स्वास्थ्य जितना सहन कर सके उस पर उतना ही दबाव पड़ना चाहिए। किन्तु इस क्षेत्र में नारी सर्वथा असह्य है वह इस संदर्भ में मुंह नहीं खोल सकती। पति की इच्छा पूर्ति के लिए उसे विवश रहना पड़ता है। संतानोत्पादन के लिए शरीर में गुंजाइश न होने पर भी उसे वह भार बलात् उठाता पड़ता है। अपना स्वास्थ्य नष्ट होने-दुर्बलता, रुग्णता और अधिक बढ़ने, अस्वस्थ सन्तानें जनने, गर्भपात आदि होते रहने, असह्य प्रभव पीड़ा न सह सकने, अकाल मृत्यु को गले न बाँधने जैसे विचार उसके मन में उठते रह सकते हैं, पर वह कह कुछ नहीं सकती-कर कुछ, नहीं सकती। पराधीन की स्वेच्छा क्या ? उसकी अपनी मर्जी कहाँ ? बन्दी को मालिकों को मर्जी पर चलता पड़ता है। उसे अपने स्वास्थ्य की बात सोचने का अधिकार ही किसने दिया है।
सोने उठने का कोई समय नहीं। मर्द रात को 12 बजे आवें तो उसी समय चूल्हा फूँकना चाहिए। सब लोग खा जायँ उसके पीछे खाना चाहिए। सबसे पीछे सोना और सब से जल्दी उठना चाहिए। विश्राम के लिए समय की माँग न करनी चाहिए। रुग्ण रहते हुए दिन-रात पिसना चाहिए। यही आज को नारी का धर्म कर्तव्य बताया गया है। इससे कम में कोई ‘अच्छी बहू’ नहीं कहला सकती। यह सब धकापेल चलता रहे-चले-पर प्रकृति किसी को बख्शती नहीं। उसे अपने नियमों से काम। दुरात्मा हो या पुण्यात्मा बिजली के खुले तार जो भी छुएगा वही मारेगा। स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन निरन्तर करते रहने-पर प्रकृति दंड देगी ही। दुर्बलता, रुग्णता, अकाल मृत्यु के चक्र में उसे पिसना ही पड़ेगा। नारी ने यह व्यतिक्रम स्वेच्छा से किया या उसे विवशता में करना पड़ा यह सोचने की प्रकृति को फुरसत नहीं है। नारी नर की तुलना में शारीरिक दृष्टि से कितनी दीन, दुर्बल बनकर रह रही है यह सहज स्वाभाविक स्थिति नहीं है। सभ्य देशों की महिलाएं-हर क्षेत्र में-स्वास्थ्य से भी पुरुष के समतुल्य हैं। यह अभागा भारत ही है जिसने नारी को मानवोचित अधिकारों से वंचित किया। फलस्वरूप जो परिस्थिति उत्पन्न हुई उसने नारी के स्वास्थ्य को खा लिया। इसे भाग्य का-भगवान का दोष कहकर मन समझाया जा सकता है पर वस्तुतः यह हमारे ही अनाचार अत्याचार का दुष्परिणाम है जिसे रोते-कराहती नारी तो भुगतती है, पर इस स्थिति में नर भी कुछ अधिक प्रसन्न नहीं रह सकता है, इसमें उसे भी कुछ लाभ उठने का अवसर नहीं है। शोषित तो मिटता ही है-शोषक को भी विधि का विधान सुख की साँस नहीं लेने देता। नारी को अस्वस्थ बनाकर उसके मालिक-पालने हारे भी इस स्थिति में क्या सुख सन्तोष अनुभव कर रहे हैं। रोते-कराहते स्वर, आखिर उन्हें भी कुछ तो कष्ट देते हो। सहानुभूति समाप्त हो गई हो तो भी खोज और झूँझल तो सताती ही रहेगी-उनसे तो पीछा नहीं ही छूटेगा। शारीरिक स्वास्थ्य की तरह मानसिक स्वास्थ्य से भी नारी को वंचित रहना पड़ रहा है। जिसको अपनी कोई इच्छा, महत्वाकांक्षा, मर्जी, पसंदगी न हो-जिसे जन्म से मरण तक बिना उचित-अनुचित का अन्तर किये केवल आज्ञापालन ही करना है उसके लिए अपना भविष्य निर्माण करने की बात सोचना ही निरर्थक है। प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के विकास से स्वतन्त्र चिन्तन का, महत्वाकांक्षाओं का, कुछ कर सकने का, परिस्थिति का प्रधान योगदान होता है। वह न मिले तो खाद, पानी न मिलने वाले पौधे की तरह ज्वलंत संभावनाएं भी नष्ट हो जाती है। ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा कितनी ही क्यों न हो-पालने वालों की मर्जी के बिना उसका उपयोग कर सकने का नारी के लिए कोई अवसर नहीं। इच्छा तो आखिर हर किसी को कुछ न कुछ होती ही है। उन्हें फलवती करने का जब अधिकार ही नहीं तो आकांक्षाओं की चिता और राख मनः क्षेत्र में घुटने की दुर्गन्ध ही भरे रहेगी।
पग-पग पर प्रतिबन्ध, क्षण-क्षण में तिरस्कार जिसके भाग्य में लिखा हो, वह दुर्भाग्य के आंसू ही बहाता रह सकता है। नारी निष्प्राण मशीन रही होती तो अच्छा था। पर जानदार प्राणी होने के कारण उसका अपना निज का मन भी है और निज की कुछ इच्छाएँ भी। स्वभावतः वे फैलने, फूटने का-फूलने-फलने का अवसर चाहती है, पर इसके लिए अधिकार रहित नारी के लिए गुंजाइश कहाँ। चौबीसों घण्टे उसे मन को मारना पड़ता है और उस दुष्ट को देखो जो मरता तो है नहीं उल्टे विद्रोही बनकर नाना प्रकार के उपद्रव खड़े करता है। इन्हें तरह’-तरह के मनोरोगों के-मनोविकारों के रूप में देखा जा सकता है। मृगी-हिस्टीरिया से ग्रसित रोगियों में तीन चौथाई नारी और एक चौथाई मर्द होते हैं। तरह-तरह की सनकें, चिड़चिड़ापन, लड़-झगड़, अनुदारता, दुराव, असन्तोष, आशंका, दोषारोपण जैसी मानसिक विकृतियाँ उन्हें घेरे रहती है। सनकी, जिद्दी, अव्यवस्थित, नासमझ, बेवकूफ, स्वार्थी आदि न जाने कितने दोष उन पर लगाये जाने रहते हैं। जो किसी कदर ठीक भी होते हैं। निराशा चिन्ता, भय-भीरुता, आशंका, अविश्वास से ग्रसित उनमें से बहुतों को देखा जाता है। सन्तोषजनक मुस्कान किसी के चेहरे पर हर घड़ी खेलती हुई देखा जायेगा। यह आदत जिनमें बचपन से भी थी बस गृहस्थ की चक्की में पिसने के कुछ ही दिन बाद समाप्त हो जाती है। असन्तोष और क्षोभ से उद्विग्न और खिन्न मूल मुद्रा में ही प्रायः उन्हें देखा जाता है। मन कैसा छलिया है। उसे जहाँ उद्विग्न करता है वह खिलौने देकर पुचकारता भी है। शृंगार, सजधज, फैशन की भोंड़ी तरकीब बताकर कहता है कुछ न सही तो इस खिलौने से ही मन बहलाओ-अपना जी हलका करो! प्रायः विकृत मन वाली महिलाएँ ही शृंगार प्रसाधन अपनाकर अपना खोया सम्मान इस बनावट के सहारे किसी हद तक प्रयास कर लेने की बात सोचती है और उस तरह के आडम्बर बनाती है। इसमें सन्देह उन्हें मिलता कुछ नहीं। पैसा और समय तो गंवाती ही है मूर्ख, उपहासास्पद और छिछोरी भी बनती है। प्रशंसा पाने चली थीं, पर उपहास लेकर लौटती है। व्यंग रूप में ही कोई मसखरा उनके मुंह पर उस सजधज की शायद प्रशंसा भी कर देता होगा। यह विडम्बनाएँ वे स्वेच्छा से नहीं छलिया मन के विचित्र बहकावे में फँसकर रचती है। असन्तोष को सन्तोष में परिणत करने का कुछ भी औंधा-सीधा मार्ग वे खोजती हैं। इन्हीं में से एक शृंगारिक सजधज भी है। अन्यथा शालीन नारी का व्यक्तित्व तो स्वच्छ, सभ्य और सज्जनोचित सरलता के-सादगी के साथ ही जुड़ा रहता है। विवेक और उद्धत श्रृंगार का प्रत्यक्ष वैर है जहाँ एक रहेगा वहाँ से दूसरे को पलायन करना ही पड़ेगा।
स्मरण शक्ति की कमी, आवेश, ग्रस्तता, जिद्दीपन, शंकालु, अनुदारता, अदूरदर्शिता, मन्द बुद्धि आदि मानसिक त्रुटियाँ स्त्रियों में बहुधा अधिक होने की बात कही जाती है। यदि वह सच है तो इतना ही कहा जा सकता है कि यह उनकी आन्तरिक घुटन की प्रतिक्रिया है अन्यथा मानसिक बनावट और प्रखरता में वे नर से पीछे नहीं आगे ही रहती है। स्कूल, कालेजों के परीक्षा फल इसके प्रमाण में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। लड़के अधिक और लड़कियां कम फेल होती है। अच्छे डिवीजन लड़कियों के हिस्से में आते हैं। वे छुरे, चाकू, हाकी लेकर नकल के बल पर पास होने के उद्दंडता भी नहीं बरततीं, अपनी सहज प्रतिभा और स्वाभाविक श्रमशीलता के आधार पर अच्छे नंबरों से पास होना रहता है। अन्य क्षेत्रों में भी नारी को जब भी-जितना भी अवसर मिला है सदा उसने अपनी बौद्धिक प्रखरता का ही परिचय दिया है। न वे शरीर की दृष्टि से दुर्बल हैं और न मानसिक दृष्टि से पिछड़ी हुई हैं परिस्थितियों ने ही उन्हें दुर्दशा ग्रस्त बना दिया है। आज तो वे दुर्बल और रुग्ण ही नहीं मन्द बुद्धि और मानसिक रोगों की व्यथा भी बेतरह सहन कर रही है।
इस शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता ग्रसित स्थिति से नारी को उबारा जाना चाहिए। अन्यथा वह अपने लिए परिवार के लिए, समाज के लिए कुछ महत्वपूर्ण योगदान दे सकना तो दूर पिछड़ेपन के कारण भार भूत ही बनी रहेंगी। रुग्ण व्यक्ति अपनी बेकारी, पीड़ा, परिचर्या, चिकित्सा आदि के कारण स्वयं दुखी रहता है और अपने संबंधियों को दुखी करता है। नारी की शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता हर दृष्टि से-हर क्षेत्र के लिए दुखद दुष्परिणाम ही प्रस्तुत कर रही है।
राजनैतिक दृष्टि से पराधीन रहने वाला देश आर्थिक दृष्टि से ही शोषित नहीं होता वरन् साँस्कृतिक, मानसिक, चारित्रिक और बौद्धिक दृष्टि से पराधीन बनाई गई नारी भी अपनी प्रखरता और उपयोगिता खो बैठी है। तथ्य को समझा जाना चाहिए और विष वृक्ष के पत्ते तोड़ने की अपेक्षा उसकी जड़ काटी जानी चाहिए। नारी को हर क्षेत्र में विकास का अवसर मिलना चाहिए और उसके पिछड़ेपन को मिटाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न किया जाना चाहिए। अपहरणकर्ता के रूप में पुरुष का दोष अधिक हैं इसलिए प्रायश्चित, परिमार्जन, प्रतिकार की दृष्टि से उसी को आगे आना चाहिए। आयात पहुँचाने वाले को उसका हर्जाना भी देना चाहिए और क्षति पूर्ति के लिए प्रबल प्रयास करके कलंक कालिमा को धो डालने के लिए तत्पर होना चाहिए।