शिवाजी उन दिनों मुगलों के विरुद्ध छापा मार युद्ध लड़ रहे थे। रात को थके माँदे वे एक वनवासी बुढ़िया की झोंपड़ी में जा पहुँचे और कुछ खाने-पीने की याचना करने लगे।
बुढ़िया के घर में कोंदों थी सो उसने प्रेमपूर्वक भात पकाया और पत्तल पर उसके सामने परस दिया।
शिवाजी बहुत भूखे थे। सो सपाटे से भात खाने की आतुरता में उंगलियां जला बैठे और तुम्हें मुंह से फूँककर जलन शान्त करने लगे।
बुढ़िया ने आंखें फाड़कर उसे देखा और बोली-सिपाही तेरी शकल शिवाजी जैसी लगती है और साथ ही यह भी लगता है कि तू उसी जैसा मूर्ख भी है।
शिवाजी स्तब्ध रह गये उनने बुढ़िया से पूछा-भला शिवाजी की मूर्खता तो बताओ और साथ ही मेरी भी।
बुढ़िया ने कहा-तू ने किनारे-किनारे से ठण्डी कोंदों खाने की अपेक्षा बीच के गरम भात में हाथ सारा और उंगलियों जलालीं। यही बेअकली शिवाजी करता है, वह दूर किनारों पर बसे छोटे किलों को आसानी से जीतते हुए शक्ति बढ़ाने की अपेक्षा बड़े किलों पर धावा बोलता है और मार खाता है।
शिवाजी को अपनी रण नीति की विफलता का कारण विदित हो गया। उन्होंने बुढ़िया की सीख मानी और पहले छोटे लक्ष्य बनाये और उन्हें पूरा करने की रीति-नीति अपनाई। छोटी सफलताएँ पाने से उनकी शक्ति बढ़ी और अन्ततः बड़ी विजय पाने में समर्थ हुए।