माँसाहार मनुष्य के लिये नितान्त अवाँछनीय

August 1975

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शरीर रचना के आधार पर जाना जा सकता है कि कौन प्राणी शाकाहारी है, कौन मांसाहारी। यों माँसाहारी प्राणी भी सृष्टि में है और वे उसी आहार पर गुजारा करते हैं पर उनकी शरीर रचना एवं प्रकृति शाकाहारियों से भिन्न होती हैं।

भोजन करने के प्रधान माध्यम दाँत हैं। उन्हीं से वह कुचले और चबाये जाने के उपरान्त पचने योग्य बनता और पेट में जाता है। प्रकृति में निर्धारित आहार के अनुरूप दाँतों की संरचना की है। बाघ, चीते, कुत्ते, बिल्ली आदि के दाँत माँस को नोंच-नोंच कर खाने योग्य नुकीले बनाये गये हैं और चीड़-फाड़ के लिये दो दाँत अधिक बड़े और अधिक मजबूत बनाये गये है। इसके विपरीत शाकाहारी गाय, बकरा, घोड़े गधे आदि के समतल, और छोटे होते हैं। मनुष्य की दन्त रचना भी शाकाहारी वर्ग की है।

माँसाहारी जानवरों के बच्चे जन्मते समय आँख बन्द किये हुये पैदा होते हैं। कई दिन बाद उनकी आँखें खुलती है। शाकाहारी के बच्चे आँख खोले पैदा होते हैं। मनुष्य ऐसा ही हैं।

मांसाहारी जीवों के शरीर से पसीना नहीं निकलता इसलिये उससे तेज गंध आती रहती है। शाकाहारी के शरीर से पसीना निकलता है।

मांसाहारी जीभ लपलपाते हुये चप-चप करके पानी पीते हैं। इसके विपरीत शाकाहारी घूँट भरकर पीते हैं।

शाकाहारी रात में सोते और दिन में जागते हैं। इसके विपरीत माँसाहारी सोते बेखबर प्राणियों को पकड़ने के लिये रात में विचरते हैं अस्तु उनकी आँखें अंधेरे में देख सकने योग्य चमकीली होती हैं। शाकाहारियों की आँखें दिन में और माँसाहारियों की रात में काम कर सकने योग्य बनी होती है। मनुष्य की आँखें दिवाचरों की तरह ही बनी है।

मांसाहारी शिकार के शरीर को अपने दाँतों और पंजों से दबोच सकते हैं, फाड़ चीर करके खा सकते हैं। ऊपर से चमड़ी बाल आदि उतारने की जरूरत नहीं पड़ती, भेड़िये तो हड्डी तक पचा जाते हैं। शाकाहारी वैसा नहीं कर सकते। मनुष्य के लिये बिना पका माँस पचाना संभव नहीं। हड्डी आंतें, बाल, चमड़ी आदि अनेक भाग हटाकर वह केवल माँसपेशियाँ ही पका कर खा पाता है उसकी मूल प्रकृति मांसाहारियों जैसी है ही नहीं।

मांसाहारी जीवों की आँतें छोटी होती हैं और शाकाहारियों की बड़ी। मनुष्य बड़ी आँतें वालों में से हैं।

माँस में जो प्रोटीन पाया जाता है वह बहुत ही घटिया दर्जे का है। पाचन में जटिल है। उसकी तुलना में मूँग, सोयाबीन आदि के प्रोटीन अधिक उच्च कोटि के तथा पाचन में सरल हैं। पालतू पशुओं के शरीरों में भी अब मनुष्यों की तरह ही कई प्रकार के विषाणुओं की भरमार रहने लगी है। वे माँस के साथ खाने वाले के पेट में पहुँचते हैं और उसे तरह-तरह की बीमारियों का शिकार बनाते हैं।

मांसाहारी प्राणी क्रूर, निष्ठुर और छली प्रकृति के होते हैं। वैसी ही प्रकृति माँस खाने वाले मनुष्यों की बन जाती है। दया और करुणा मनुष्य की सर्वोत्कृष्ट प्रवृत्तियां हैं। प्राणी का माँस रोमाँचकारी पीड़ा देकर ही प्राप्त किया जा सकता है। यह क्रूर कर्म वधिक की ही तरह खाने वाले की आत्मा को भी निर्दय बनाता है और वह अपने स्वजनों संबंधियों से भी वैसा ही व्यवहार करता है। समाज में अनेकानेक दुष्प्रवृत्तियां निष्ठुरता से ही जन्मती हैं और उसे मानवी स्वभाव में सम्मिलित करने का बहुत कुछ उत्तरदायित्व माँसाहार का है।

मांसाहार करने वाले यदि उपरोक्त नो तथ्यों पर विचार करे तो उन्हें इस कुटेब को छोड़ना ही श्रेयस्कर प्रतीत होगा।


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