आत्मा क्या है? वह परमात्मा सत्ता का प्रतीक कैसे है? इन प्रश्नों का समाधान करते हुए केनोपनिषद में बड़ी मार्मिक चर्चा की गई है। जिज्ञासु पूछता है-
केनेषितं पतितं प्रेषितं मनः? केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः? केनेषिताँ वाचमिमाँ वदन्ति? चक्षुः श्रोत्रं क उ देवोयुनक्ति॥
अर्थात्- मन किसकी प्रेरणा से दौड़ाया हुआ दौड़ता है? किसके द्वारा प्रथम प्राण संचार सम्भव हुआ? किसकी चाही हुई वाणी मुख बोलता है? कौन देवता देखने और सुनने की व्यवस्था बनाता है?
मन अपने आप कहाँ दौड़ता है। आन्तरिक आकाँक्षाएं ही उसे जो दिशा देती है, उधर ही वह चलता है, दौड़ता है और वापिस लौट आता है। यदि मन स्वतन्त्र चिन्तन में समर्थ होता तो उसकी दिशा एक ही रहती। सबका सोचना एक ही तरह होता, सदा सर्वदा एक ही तरह का चिंतन बन पड़ता; पर लगता है पतंग ही तरह मन का उड़ाने वाला भी कोई और है, उसकी आकाँक्षा बदलते ही मस्तिष्क की सारी चिन्तन प्रक्रिया उलट जाती है। मन एक पराधीन उपकरण है- वह किसी दिशा में स्वेच्छा पूर्वक दौड़ नहीं सकता। उसके दौड़ने वाली सत्ता जिस स्थिति में रह रही होगी, चिन्तन की धारा उसी दिशा में बहेगी। मन को दिशा देने वाली मूल सत्ता का नाम ‘आत्मा’ है।
दूसरे प्रश्न में जिज्ञासा है कि माता के गर्भ में पहुँचने पर प्रथम प्राण कौन स्थापित करता है? उसमें जीवन संचार के रूप में हलचलें कैसे उत्पन्न होती है। रक्त-माँस तो जड़ है। जड़ में चेतना कैसे उत्पन्न हुई? यहाँ भी उत्तर वही है- वह आत्मा का कर्तृत्व है। भ्रूण अपने आप में कुछ भी कर सकने में समर्थ नहीं। माता-पिता की इच्छानुसार सन्तान कहाँ होती है? पुत्र चाहने पर भी कन्या गर्भ में आ जाती है। जिस आकृति-प्रकृति की अपेक्षा की उससे भिन्न प्रकार की संतान जन्म लेती है। इसमें माता-पिता का प्रयास भी कहाँ सफल हुआ। तब भ्रूण को चेतना प्रदान करने का कार्य कौन करता है? उपनिषद्कार इस प्रश्न के उत्तर में आत्मा के अस्तित्व को प्रमाण रूप में प्रस्तुत करता है।
मृत शरीर में प्राण संचार न रहने से उसके भीतर वायु भरी होने पर भी साँस को बाहर निकालने की सामर्थ्य नहीं होती। श्वांस-प्रश्वांस प्रणाली यथावत् रहने पर भी प्राण स्पन्दन नहीं होता। प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान प्राणों द्वारा शरीर और मन के विभिन्न क्रिया-कलाप संचालित होते हैं, पर महाप्राण के न रहने पर शरीर में उनका स्थान और कार्य सुनिश्चित होते हुए भी सब कुछ निश्चल हो जाता है। अंडों की स्थिति यथावत रहते हुए भी जिस कारण मृत शरीर जड़वत् निःचेष्ट हो जाता है वह महाप्राण का प्रेरणा क्रम रुक जाना ही है। इस सूत्र संचालक महाप्राण को ही ‘आत्मा’ कहते हैं।
तीसरा प्रश्न उत्पन्न होता है किसकी चाही हुई प्राणी मनुष्य बोलते हैं। निस्सन्देह यह कार्य मुख का नहीं है। शरीर और इन्द्रियों का भी नहीं है। यदि ऐसा होता तो भूखा होने पर पात्र-कुपात्र के आगे समय-कुसमय का ध्यान रखे बिना भोजन याचना की जाती है। कामुक आवश्यकता की पूर्ति के लिए किसी शील संकोच को आड़े न आने दिया गया होता। पर शरीर और मन की आवश्यकताओं को बहुधा रोककर रखा जात है। अन्तःकरण क्षुब्ध होने पर मुख से कटु वचन निकलते हैं और उत्कृष्ट स्थिति में अमृतोपम वाणी निसृत होती है। यदि वाणी स्वतंत्र होती तो वह तोता की तरह अभ्यस्त शब्दों का ही उच्चारण करती रहती। वाणी से विष और अमृत, ज्ञान और अज्ञान निसृत करने वाली अन्तःचेतना उससे पृथक और स्वतन्त्र है- उसी का नाम ‘आत्मा’ है।
आंखें किसकी प्रेरणा से देखती है, कान किसकी इच्छानुसार सुनते है? यह प्रश्न उपस्थित करते हुए यह देखा जा सकता है कि क्या आँखों में देखने की या कानों में सुनने की स्वतंत्र शक्ति है। निश्चित रूप से वह नहीं ही है। यदि होती तो मृतक या मूर्च्छित स्थिति में भी आंखें देखती और काम सुनते। ध्यान मग्न होने की स्थिति में आँखों के आगे से गुजरने वाले दृश्य भी परिलक्षित नहीं होते और कानों के समीप ही बात-चीत होते रहने पर भी कुछ सुना नहीं जाता। अनेक दृश्यों में से आंखें अपने प्रिय विषय पर ही टिकती है। कई तरह की आवाजें होते रहने पर भी काम उन्हीं पर केन्द्रित होते हैं जो अपने को प्रिय है। इन ज्ञान प्रधान काम और चक्षु इन्द्रियों में अपनी निज की क्रियाशीलता नहीं है, जिसकी प्रेरणा से वे सक्रिय रहते हैं वह सत्ता “आत्मा” की ही है।
दूसरे मन्त्र में ऋषि ने इन प्रश्नों का समुचित उत्तर स्वयं ही प्रस्तुत कर दिया है-
“श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्धाचो हवाज स उ प्राणस्य प्राणश्चक्षुषंतिमुच्य धीराः। प्रेत्यास्माल्लोकादंमृता भवन्ति।”
अर्थात्- कान में जो सुनने की शक्ति है, मन में जो मनन करने की शक्ति है, वाणी में जो बोलने की शक्ति है, प्राण में जो संचालन शक्ति है, आंखों में जो देखने की शक्ति है, वह देवात्मा ही जीवन का संचार करती है।
जब प्रश्न उत्पन्न होता है यह आत्मा आखिर है क्या? उसके उत्तर में ऋषि कहता है-
‘छायातपौ वेदविदो वदन्ति’।
अर्थात्- यह आत्मा धूप के साथ जुड़ी हुई छाया की तरह है। उसको अस्तित्व परमात्मा सत्ता पर अवलम्बित है। सूर्य की धूप चन्द्रमा को प्रकाशित करती है। चन्द्रमा की चाँदनी से धरती प्रकाशवान होती है। उसी तरह परमात्मा की सत्ता आत्मा पर प्रतिबिंबित होती है और फिर उसकी ज्योति इन्द्रियों को आलोकित करके उन्हें सम्वेदनाएँ अनुभव करने योग्य बनाती है।
यथार्थ ज्ञान के शोधकर्ता इन्द्रिय ज्ञान से ऊपर उठकर आत्म ज्ञान का प्राप्त करते हैं और फिर उससे ऊंची परमात्मा सत्ता में अपने आपको विलीन करते हुए ऊपर उठते हैं और अमृत को प्राप्त करते हैं। इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए उपनिषद्कार कहता है-
‘अतिमुच्य धीरा प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति’।
अर्थात्- आत्म-ज्ञानी, धीर पुरुष इन्द्रियों के प्रेरक जीवात्मा का अतिक्रमण करके इस लोक से अर्थात् जन-साधारण के द्वारा अपनायें गये निष्कृष्ट स्तर से ऊपर उठ कर अमृतत्व को प्राप्त करते हैं।
यहाँ अमृतत्व का अर्थ है अनन्त जीवन को मान्यता और तद्नुरूप दृष्टिकोण अपनाकर तद्नुरूप चिन्तन एवं कर्तृत्व का निर्धारण। लोग अपने का मरणधर्मा मानते हैं, तात्कालिक लाभों को अवाँछनीय होते हुए भी उन्हें ही सब कुछ समझ कर टूट पड़ते हैं और भविष्य को भूलकर उसे अन्धकारमय बनाते हैं। खाओ, पियो मौज उड़ाओ। कर्ज लेकर मद्यपान करते रहो की नीति अपना कर लोभ, मोह में ग्रसित वासना, तृष्णा के लिए आतुर मनुष्यों का दृष्टिकोण मरणधर्मा है। उसे अपनाने वाले जीवित मृतक है। इसके विपरीत जो अनन्त जीवन का भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिए आज कष्ट उठाने की तपश्चर्या का स्वागत करते हैं वे दूरदर्शी विवेकवान् अमर कहलाते हैं अमृतत्व को प्राप्त होना इसी परिष्कृत दृष्टि-कोण को अपनाने के साथ जुड़ा हुआ है।
ऊपर धीर शब्द का उपयोग हुआ है। अध्यात्म शास्त्र में ‘धीर’ शब्द निर्विकारी के लिए और ‘मूढ’ सविकारी के लिए प्रयुक्त होता है। धृति को धर्म का प्रथम चरण इसीलिए माना गया है कि मनुष्य निर्विकार रह सकने की अपनी अविचल अध्यात्म निष्ठा का परिचय देता है। इसके विपरीत विकारों को अपनाने में उतावली करने वाले अधीर कहलाते हैं। उन्हीं अदूरदर्शियों को ‘मूढ’ संज्ञा दी गई है। “विकार हेतौ सति विक्रियन्ते येषाँ न चेताँसि त एव धीराः”।
अर्थात्- विकारग्रस्त होने की परिस्थितियाँ रहने पर भी अविचल बने रहते हैं वे ही ‘धीर’ है।
धीर व्यक्ति आत्मबोध प्राप्त करते हुए जिस परमात्म सत्ता में प्रवेश करते है; उसे इन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता। आत्मानुभूति ही उसे उपलब्ध करने का एकमात्र साधन है। यदि इन्द्रियों से उसे देखने का प्रयत्न किया जाय तो निराशा अथवा भ्रान्ति ही हाथ लगेगी। इस संदर्भ में केनेपनिषद का अगला प्रतिपादन है-
‘न नत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो न विद्यो न विजानीमो यथैतदनु शिष्यादन्य देव तद्धिदितादयों अविदितादधि। इति शुश्रुम पूर्वेषाँ ये न स्तद्वया चचक्षिरे”।
अर्थात्- उसे आंखें नहीं देख सकती, वाणी नहीं कह सकती, मन नहीं जान सकता। हम नहीं जानते कि उसे जिज्ञासाओं को किस प्रकार समझाया जाय। हमने जो सुना जाता है उससे वह ब्रह्म विलक्षण है। वह इन्द्रियातीत होने पर भी नहीं है ऐसा नहीं कहा जा सकता।
वृहदारण्यक उपनिषद् में इसी तथ्य को दूसरे शब्दों में कहा गया है-
‘विज्ञातारं अरे किम् विजानीयात्’
अरे, उस जानने वाले को किसके सहारे जताया जाय?
सूर्य को दीपक से कैसे देखे? वह तो स्वयं ही प्रकाशवान है। प्रकाश को प्रकाश से देखने की क्या आवश्यकता? दृष्टि की सत्ता अनुभव करने के लिए नई बुद्धि कहाँ से लाई जाय? अंधेरे को देखने के लिए दीपक और अन्यान्य पदार्थों को जानने के लिए बुद्धि की आवश्यकता रहती है, पर दीपक और बुद्धि तो स्वयं ही प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष को फिर किस प्रत्यक्ष से जाने?
हम है और इन्द्रियों को प्रेरणा देने वाले है- इन्द्रियों के कारण हम चैतन्य नहीं, वरन् हमारे कारण इन्द्रियों में चेतना है, यह जान लेने पर आत्मा का अस्तित्व प्रत्यक्ष हो जाता है। आत्मा पर मल आवरण विक्षेप के कषाय कल्मष चढ़ जाने से वह मलीन बनता है और दीन दयनीय दुर्दशाग्रस्त परिस्थिति में पढ़ा जकड़ा दुख भोगता है। मलीनता की इन आवरण परतों को उतार फेंकने पर उसका निर्मल स्वरूप प्रकट होने लगता है। दर्पण पर जमी हुई धूलि हटा देने से उसमें अपना प्रतिबिम्ब सहज ही देखा जा सकता है।
आत्म-साक्षत्कार इसी का नाम हैं- इसे ही परमात्मा का दर्शन एवं परब्रह्म की प्राप्ति कहते हैं। आँखों से किसी देवावतार के स्वरूप को देखने की लालसा एक भ्रान्ति मात्र है- जिसका पूरा हो सकना सम्भव नहीं। ईश्वर को धर्म चक्षुओं से नहीं, ज्ञान चक्षुओं से ही देखा जा सकता है। आंखें पंच भौतिक पदार्थों की बनी होने के कारण अपने सजातीय जड़ पदार्थों को ही देख सकती है। उनके लिए चेतन को उसकी गतिविधियों को देख सकना सम्भव नहीं न अन्य इन्द्रियों से उसकी अनुभूति हो सकती है। आत्मा को देख सकना तो दूर उसकी अनुभूतियों को प्रसन्नता-अप्रसन्नता, आशा-निराशा, स्नेह-द्वेष, संतोष-असन्तोष तक की इन्द्रियों से अनुभव नहीं किया जा सकता तब सर्वव्यापी नियामक सत्ता को-परमात्मा को इन्द्रियों से सहारे कैसे देखा सुना या जाना जा सकेगा?
आत्मा का परिष्कृत रूप ही परमात्मा है। जीवात्मा वह जो लोभ, मोह से- वासना, तृष्णा से प्रभावित होकर स्वार्थ-परता एवं संकीर्णता के बन्धनों में जकड़ा पड़ा है। अपना चिन्तन, कर्तृत्व शरीर और कुटुम्ब के भौतिक लाभों तक सीमित रखने वाला भव-बन्धनों में जकड़ा जीव है। मुक्त उसे कहा जायगा जिसने अपनेपन की, आत्म-भाव की परिधि को अधिकाधिक विस्तृत बना लिया है। जिसके लिए समस्त विश्व अपना परिवार है। समस्त प्राणी जिसके अपने कुटुम्बी है। औरों के सुख को अपना दुख मानकर जो उसके निराकरण का प्रयास करता है। औरों को सुख देकर सुखी होता है। अपने और औरों के बीच की दीवार तोड़कर सर्वत्र एक ही आत्मा का विस्तार देखता है वह दिव्यदर्शी ही दूसरे शब्दों में परमात्म दर्शी कहा जाता है। आत्मा का परिष्कृत एवं विकसित रूप ही परमात्मा है। परमात्मा स्तर को प्राप्त करना ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है।