समस्त शक्तियों का भंडार- हमारा मन

September 1968

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

हमारा मन एक उपजाऊ खेत है, जिससे जो वस्तु चाहो सीधे रास्ते से पैदा कर सकते हो। जो इसका उचित उपयोग करेगा वह लाभ पायेगा। जैसा बोएगा वैसा काटेगा।

किन्तु मन की यह क्षेत्रता प्राकृतिक नहीं है। इसे बनाना पड़ता है। जिस प्रकार उर्वरता का गुण होने पर भी हर भूमि में खेती नहीं होती, उसे खेत का रूप देने के लिए उपाय करने पड़ते हैं। उसी प्रकार मन में भी क्षेत्रता उत्पन्न करती है। तभी वह मनोवाँछित फल प्रदान करता है। अन्यथा अनिर्मित मन भी वन-भूमि की तरह ही घास-पात, कुश-कंटक और अनुपयोगी वनस्पति ही पैदा करता रहता है।

मन का निर्माण है- उसका परिमार्जन और उसकी उर्वरता है एकाग्रता। मन को एकाग्र-स्थिति में लाए बिना उसकी शक्तियों का लाभ नहीं उठाया जा सकता।

जीवन में किसी भी सफलता का समावेश करने के लिए मानसिक शक्तियों का अपरिहार्य महत्व है। प्राप्तियों, उपलब्धियों और सफलताओं का आधार है मनुष्य की क्रियाशीलता और इस क्रियाशीलता का सारा संचालन मन द्वारा ही होता है। जितना अधिक मानसिक शक्तियों का सहयोग मिलता जाएगा क्रियाशीलता उतनी ही तीव्र, प्रखर होती जाएगी। मन की शक्ति एकाग्रता में सन्निहित है। जीवन-विकास के लिए एकाग्रता की साधना करते ही रहना चाहिए। मनुष्य का एकाग्र मन उसकी उन्नति का एक मात्र आधार माना गया है। जो मनुष्य अपने मन को एकाग्र कर लेता है, वह किसी भी कार्य में उसकी सारी शक्तियों का एक साथ प्रयोग कर सकता है। जिस प्रकार एक आतशी शीशा सूर्य की किरणों को एकाग्र कर किसी को जला देने की शक्ति संपादित कर लेता है उसी प्रकार एकाग्र मन अपनी एकत्र शक्तियों द्वारा कोई भी प्रयोजन सिद्ध कर सकता है।

आज तक संसार में जितने व्यक्ति भी उन्नति के शिखर पर चढ़ सकने में सफल हो चुके हैं, उनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो सहसा ही उस स्थिति पर पहुँच गया हो। उन्नति कोई आकस्मिक घटना नहीं है। वह क्रमिक विकास और प्रगति की अविरल प्रक्रिया का परिणाम है। जिसको एकाग्रता पूर्वक ही पूरा किया जा सकता है। चंचल मन और बिखरी वृत्तियों द्वारा उसका पूरा कर सकना संभव नहीं। मानसिक चंचलता मनुष्य की सारी क्षमताएँ बिखेर कर उन्हें निर्बल एवं निरर्थक बना देती है।

मन को किसी एक निश्चित लक्ष्य पर केन्द्रित करना ही उसकी एकाग्रता है। सूर्य की किरणों में बड़ी भयानक आग होती है। किन्तु सारे संसार पर फैली होकर भी वे किसी चीज को गरम तो कर देती है पर जला नहीं पाती। इसका कारण यही है कि वे सूर्य की अग्नि का थोड़ा-थोड़ा अंश लेकर अलग-अलग छितरी रहती हैं। किंतु जब ये किसी उपाय द्वारा एकाग्र करके प्रयोग की जाती हैं, तो तुरन्त ही भयानक अग्नि का रूप धारण कर लेती हैं। वैज्ञानिकों का कथन है कि यदि किसी उपाय से सूर्य की बिखरी किरणों को किसी साधन द्वारा एक स्थान पर एकत्र कर उनको जिस दिशा में भी संधान कर दिया जाए तो वे उस दिशा की सारी वस्तुओं का खाक बना सकती हैं। किन्हीं शक्तियों का एकत्रीकरण ही उनकी एकाग्रता है जिसके सिवाय कोई भी प्रयोजन सिद्ध किया जा सकता है।

यह बात सही है कि मन स्वभावतः बड़ा ही चंचल और प्रमयनशील होता है। कठिनता से वशीभूत है। तथापि इसको एकाग्र करना असंभव कदापि नहीं। कतिपय उपायों द्वारा इसे वश में करके एकाग्र बनाया जा सकता है। इसका सरल-सा उपाय यह है कि इसको बहुमुखी न रखकर एकमुखी बनाया जाए। मनुष्य अपने मन को संसार की न जाने कितनी छोटी-मोटी बातों में उलझाए रहता है। उनमें से अधिकाँश बातें ऐसी ही होती हैं, जिनसे न तो कोई प्रयोजन होता है और न उनका जीवन के लिए उपयोग। मनुष्य को चाहिए कि वह संसार की तमाम निरर्थक और निरुपयोगी बातों को छोड़ कर अपने मन को किसी एक निश्चित लक्ष्य, प्रयोजन अथवा ध्येय में लगाए। मन एक ही होता है। वह किसी एक ही प्रयोजन में पूरी तरह लगाया जा सकता है। वह एक बार में एक ही काम कर सकता है। जिस एक काम पर मन को संपूर्ण रूप से नियोजित रखा जाएगा, वह कार्य निश्चित रूप से सफल होगा, इसमें जरा भी सन्देह नहीं।

एकाग्रता सिद्ध करने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि अपने मन को संसार की ऐसी बातों से दूर रखा जाए जिससे बेकार की उलझन और समस्यायें पैदा हों। उसे केवल ऐसी बातों और विचारों तक ही सीमित रखा जाए जिनसे अपने निश्चित लक्ष्य का सीधा सम्बन्ध हो। प्रायः लोगों का स्वभाव होता है कि वे घर, परिवार, मुहल्ले, समाज, देश, राष्ट्र आदि की उन बातों में अपने को व्यस्त बनाए रहते हैं जिनसे उनके मुख्य प्रयोजन का कोई सरोकार नहीं होता। इस स्वभाव का जन्म निरर्थक उत्सुकता द्वारा ही होता है।

इस निरर्थक उत्सुक-वृत्ति से बचने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी विचारधारा को विश्रृंखल अथवा विशीर्ण न होने दे। सारी विचार-धारा अपने ध्येय के चिन्तन में ही लगाना चाहिए। जो लोग अपने ध्येय से अलग अपनी विचारधारा को बहनें देते हैं उनका मन अस्त-व्यस्त चंचल ही बना रहता है। वह छिन्न-भिन्न होकर यहाँ-वहाँ भटकता रहता है जिससे उसकी वह शक्ति विकसित नहीं हो पाती जो जीवन की सफलता के लिए आवश्यक होती है।

विचारधारा का प्रकार संगति और साहित्य से निर्मित होता है। आदमी जिस तरह के लोगों के साथ रहता है और जिस प्रकार का साहित्य पढ़ता है उसकी विचारधारा उसी तरह हो जाती है। बातून, वाचाल और गप्पी लोगों का संग करने वाले भी बहुधा उसी प्रकार के हो जाते हैं। जासूसी कहानियाँ, उपन्यास अथवा कामोत्तेजक साहित्य पढ़ने वाले लोगों का मन एकाग्र नहीं हो पाता। बहुत से लोग अखबारों में छपने वाले सनसनीखेज और विचित्र समाचारों को पढ़ने में ही रुचि लेते हैं। ऐसे लोग भी अपना मन एकाग्र करने में सफल नहीं हो सकते। मन की एकाग्रता के लिए गम्भीर, शालीन और उच्च-कोटि के लोगों का ही साथ करना चाहिए और वैसा ही साहित्य पढ़ना चाहिए। सस्ता साहित्य और सस्ती संगति मनुष्य को स्वभावतः चंचल और हल्का बना देती है। जो विचार अथवा कार्य मन में उद्वेग या हलचल पैदा करने वाले होते हैं उनसे एकाग्रता के उद्देश्य को हानि पहुँचती है।

मन की एकाग्रता का दूसरा अर्थ है विचारों की एकाग्रता। विचार व्यर्थ की चीज नहीं हैं। बहुत से लोग इस बात की चिंता नहीं करते कि उनके मन-मस्तिष्क में किस प्रकार के विचार आते-जाते रहते हैं। गन्दे और निरुपयोगी विचार आने पर भी वे उनमें तृण की तरह बहते रहते हैं। वे नहीं समझ पाते हैं कि इससे उन्हें क्या और कितनी हानि होती है? विचार एक शक्ति है, अमोघ शक्ति। वे मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन पर अपना स्थायी प्रभाव डालते हैं अपने अनुरूप उसे हानि-लाभ की ओर ले जाया करते हैं।

जिनका मन-मस्तिष्क उत्साह और आशा पूर्ण विचारधारा से परिचित रहता है, जिनके विचार ऊँचे और डडडड होते हैं, जो सदैव आगे बढ़ने, ऊंचे उठने और जीवन डडडड कोई बड़ा काम करने की बात ही सोचते रहते हैं निश्चय ही वे एक दिन अपने इस उद्देश्य में सफल हो जाते हैं। जिस प्रकार निरर्थक, निरुद्देश्य और विविधतापूर्ण विचार मनुष्य को चंचल और उसके मन की शक्तियों को छिन्न-भिन्न कर देते हैं उसी प्रकार उसके ऊँचे, उद्देश्यपूर्ण व आदर्शवादी विचार उसमें गम्भीरता और एकाग्रता युक्त कर देते हैं। विद्वान् मनोवेत्ता सोलोमन ने एक स्थान पर लिखा है- मनुष्य चुपचाप मन में जैसे विचार लिए फिरता है वैसा ही वह बन जाता है, परन्तु बड़ी-बड़ी बातें कहते रहने से कुछ नहीं होता। हमारे कथन में हमारे डडडड का सत्य होना चाहिए। जिन विचारों में पूरी सच्चाई, दृढ़ता और आस्था होगी, उन्हीं विचारों के पीछे सृजन शक्ति निवास करती है।

विचारों की उच्चता और गम्भीरता पर डडडड एकाग्रता की साधना का बहुत-सा रहस्य निर्भर है। सारे के सारे महापुरुष उच्च और गम्भीर विचार वाले होते रहे हैं। इसलिये उनमें चंचलता अथवा विश्रृंखला का दोष देखने को नहीं मिलता, गम्भीर विचारों की गहराई स्वयं ही मनुष्य को अपने में डुबाए रहती है। मनुष्य ज्यों-ज्यों विचारों की गहराई में डूबता जाता है स्वभावतः वह अधिकाधिक एकाग्र और एकनिष्ठ बनता जाता है। उसकी सारी बाह्य चंचलता, वाचालता और विविधता नष्ट हो जाती है। वह दिन-दिन गम्भीर, गुरुतापूर्ण और एकाग्र होता जाता है। लोगों से बेकार में मिलना-जुलना, बात करना और घूमना-फिरना उसके स्वभाव से निकल जाता है। वह तो सारे समय अपने लक्ष्य और तत्सम्बन्धी विचारधारा में ही तल्लीन बना रहता है। ऐसे लोगों की मानसिक शक्तियाँ प्रबुद्ध होकर उनका साथ देती चलती हैं। ओछे-हल्के और निरुद्देश्य विचारों वाले लोगों की मानसिक शक्तियाँ क्षय होती रहती हैं और बिना किसी सार्थकता के नष्ट हो जाती हैं।

जीवन में सफलता पाने के लिए मनुष्य का चिन्तक और विचारशील होना नितान्त आवश्यक है। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि चाहे जिस तरह के विचार आ जाएँ, उनका ही चिन्तन-मनन करते रहा जाए। अपने मन और मस्तिष्क में आने वाले विचारों को सम्पादित करते रहना चाहिए। मनुष्य के मस्तिष्क में नित्य ही हजारों विचार आते-जाते रहते हैं, किंतु वे सबके सब ही उपयोगी और सार्थक हों यह आवश्यक नहीं। मस्तिष्क में प्रतिक्षण आने वाले विचारों को देखते-परखते रहना चाहिए और जो विचार अपने उद्देश्य और प्रयोजन के लिए आवश्यक और उपयोगी दिखें उन्हें तो रहने दिया जाए और बाकी के सारे बेकार विचारों को निकाल कर फेंक देना चाहिए।

यद्यपि विचारों को रोकने और निकाल फेंकने में थोड़ी कठिनाई जरूर होती है तथापि थोड़े-से अभ्यास द्वारा यह सरल बनाया जा सकता है। कुछ समय सावधान तथा सक्रिय रहने के बाद मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा बन जाएगा कि उसकी चिन्तनधारा में अनावश्यक विचार प्रवेश ही न करने पाएँगे। इस प्रकार जब मन में शुद्ध तथा सुन्दर विचार दृढ़ होने लगेंगे तो वे स्वयं भी अपने से विरोधी विचारों को अपने क्षेत्र में नहीं ठहरने देंगे। विचार विचारों को स्वयं भी बुलाते और भगाते रहते हैं।

जीवन की सफलता के लिए मानसिक एकाग्रता की नितान्त आवश्यकता है। इससे मानसिक शक्तियों का जागरण तथा परिवर्धन होता है। किन्तु इसकी सिद्धि सम्भव तभी है जब मनुष्य की विचारधारा शुद्ध प्रबुद्ध एवं उपयोगी हो। विचारों की यह विशेषता तभी प्राप्त होती है जब मनुष्य सच्चाई के साथ जीवन का कोई लक्ष्य लेकर चलता है। इस प्रकार सबसे पहले अपने जीवन का एक निश्चित लक्ष्य निर्धारित किया जाए। उसी के अनुरूप विचार, चिन्तन और मनन करत रहा जाए। इससे हृदय में एक गम्भीरता का समावेश होगा। बाहर की सारी चंचलताएँ और अन्दर की सारी चंचलताएँ नष्ट होती चलेंगी और तब मन में एकाग्रता का भाव आने लगेगा।

मन की एकाग्रता की उपलब्धि होते ही मनुष्य के अन्दर सोई सारी शक्तियाँ जाग उठेंगी जिनके बल पर वह असम्भव दिखने वाले कामों को भी सम्भव कर सकता है। बिखरे मन और विश्रृंखल शक्ति से संसार में कोई भी बड़ा काम नहीं किया जा सकता। अपनी शक्तियों का नियोजित उपयोग ही वह उपाय है जिससे किसी भी कार्य की सिद्धि प्राप्त की जाती है किन्तु इस उपाय का प्रयोग एकमात्र एकाग्र मन पर ही निर्भर है। अस्तु मनुष्य को अभ्यास अथवा साधना द्वारा मानसिक एकाग्रता प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118