माहिष्मती के प्रतापी सम्राट नृपेन्द्र का यश पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति सर्वत्र फैल रहा था। राजकोष, सेना, स्वर्ण, सौंदर्य, शक्ति किसी वस्तु का कोई अभाव न था। महाराज नृपेन्द्र प्रजावत्सल और न्यायकारी थे। सम्पूर्ण प्रजा भी उन्हें बहुत श्रद्धा की दृष्टि से देखती थी।
समय बीता। शक्तियाँ घटीं। शरीर टूटा। वृद्धावस्था बढ़ने लगी और उसके साथ ही नृपति के अन्तर में उद्वेग और क्षोभ छाने लगा। उन्होंने बोलना-चालना बन्द कर दिया। किसी से मिलते भी नहीं थे। उदास, बेचैन राजा न जाने किस चिन्ता में डूबे रहते।
एक दिन बड़े सवेरे सम्राट राज-उद्यान की ओर निकल गये। एक स्फटिक शिला पर पूर्वाभिमुख अवस्थित नृप अब भी कोई वस्तु खोज रहे थे। धीरे-धीरे प्रातः रवि उदित हुआ। राजसरोवर में उनकी बालकिरणें पड़ीं और सहस्त्र दल-कमल खिलने लगा। धीरे-धीरे कमल पूर्ण रूप से खिल गया और अपना सौरभ सर्वत्र बिखेरने लगा।
आत्मा से आवाज फूटी- क्या तुम अब भी रहस्य नहीं जान पाये कि सूर्य का प्रकाश कहाँ से आता है? प्रकाश उनकी अन्तर स्फुरणा नहीं है क्या? कमल का सौरभ उसके भीतर से ही फूटता है। यह जो सर्वत्र जीवन दिखाई देता है वह सब विश्व-आत्मा के भीतर से ही फूटता है। आनन्द का स्रोत तुम्हारे भीतर है उसे तुम्हें ही जगाना पड़ेगा। उसके लिए आत्मोन्मुख बनना पड़ेगा और साधना करनी पड़ेगी।