सन्त-रैदास ने कहा- भाई मनुष्य को उतना लेना चाहिये जितना वह परिश्रम करता है, परिश्रम से अधिक ग्रहण करना अनैतिक है। मुझे इस बात पर विश्वास है इसलिये आपकी सहायता स्वीकार नहीं कर सकता। वह सज्जन सन्त-रैदास की निर्धन स्थिति से बहुत दुःखी थे। इसलिये मना करने पर भी 500 चाँदी के रुपये एक पोटली में बाँधकर रख गये। रैदास ने बहुत कहा भी पर वे नहीं माने और चुपचाप वहाँ से उठकर चले गये।
रैदास उठे और पोटली उठाकर छप्पर से खोंस दी। उन सज्जन ने यह देखा भी तो भी रुके नहीं। काफी समय बीत गया तो वे सज्जन फिर उनके घर पहुँचे तो रैदास को उसी स्थिति में जूता गांठते पाया। वे आश्चर्यपूर्वक बोले महात्मन्! आपकी निर्धनता अभी तक दूर नहीं हुई, उन रुपयों का क्या हुआ?
रैदास ने छप्पर की ओर संकेत किया। रुपयों की पोटली ज्यों की त्यों खोंसी देखकर दंग रह गये। उन्होंने कहा- आश्चर्य है कि आपने इतना धन पाकर भी अपनी गरीबी दूर नहीं की। इस पर रैदास हँसकर बोले- भाई असली धन- ईश्वर-भक्ति- ईमानदारी और परिश्रम की कमाई से संतुष्टि मेरे मन में है। फिर बिना परिश्रम किये दूसरों के श्रम के लाभ उठाकर अपनी आदत क्यों बिगाड़ूं?