आँधी टिकती नहीं, विटप तो फिर भी रहते हैं, लिये फलों की भेंट थपेड़े अनगिन सहते हैं। जन-हित का हो भार, साधना रत मेरे साधक, धरो न उस पर ध्यान कि जो निष्क्रिय जन कहते हैं। सहो वार पर वार मगर तन्मयता भंग न हो, उड़ जायेंगे बात-बवण्डर, सुख सौगात नहीं! झंझावात रहेंगे हरदम ऐसी बात नहीं!
निर्माणों की नींव पड़ रही गहरी गहरी है, कृत्य कर रहा नृत्य, लग रहा गति ही ठहरी है। जन मन की व्यग्रता मधुर फल पाने को आकुल, जब कि प्रात की किरण उगी है, नहीं दुपहरी है। गढ़ो सलोनी मूर्ति शिल्पियो पियो नहीं पानी, छैनी चलती रहे, करें विचलित आघात नहीं। झंझावात रहेंगे हरदम ऐसी बात नहीं!
कार्य माँगता समय, कथन में क्या लगता बोलो! वाणी को कृत्तित्व-तुला पर रख कर तो तोलो। निज सपने साकार देखने के चिर अभिलाषी, लिखो स्वप्न का रूप क्रिया की आँखों को खोलो। खिलो प्राण जलजात, किरण किन्नरियाँ नाच रही, भरा तुम्हारा कोष कौन कहता अब प्रात नहीं? झंझावात रहेंगे हरदम ऐसी बात नहीं!
धीमी गति को देख धैर्य का साथ नहीं छोड़ो। लेकर क्रान्ति मशाल शान्ति का हाथ नहीं छोड़ो। कुरुक्षेत्र में खड़ा राष्ट्र के अर्जुन का रथ है- तुम सारथी सुजान, जिधर चाहो रथ को मोड़ो। जिससे मिटे कुहासा उन्मन अर्जुन के मन का, वह विराट् झाँकी दिखलाओ काँपे गात नहीं। झंझावात रहेंगे हरदम ऐसी बात नहीं।
*समाप्त*