हमें संकटों का भी सामना करना होगा

September 1968

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जो इस भय से प्रगति के पथ पर पैर नहीं बढ़ाता कि ऐसा करने पर किसी संकट का सामना करना पड़ सकता है तो उस मनुष्य और साधारण जीव-जन्तु में क्या अन्तर है? उनके बीच का अन्तर केवल प्रगति-भावना है। मनुष्य में इच्छा, आकाँक्षा और उन्नति करने की भावना होनी ही चाहिए। प्रगति-भावना से रहित होना मानवेत्तर प्राणियों का लक्षण है। हम सब मनुष्य हैं। अप्रगति की भावना से निकल कर हमें उस उत्साह, उस जिज्ञासा और उस आकाँक्षा का वरण करना ही चाहिए जो उन्नति और प्रगति की संराधिका होती है।

जो व्यक्ति संकट के भय से प्रगति करने का साहस नहीं करते उन्हें सोचना चाहिए कि क्या इस जड़ता से वे सर्वथा बच जायेंगे? माना किसी महत्वपूर्ण कार्य में हाथ डालने पर तत्सम्बन्धी कठिनाइयाँ और प्रतिकूलताएं आ सकती हैं। निश्चय ही वे आएँगी। क्योंकि संसार का कोई भी महत्वपूर्ण कार्य संकट और विघ्न से रहित नहीं होता। उसकी महत्ता ही इसलिए होती है कि वह संकट और विघ्नों की सम्भावनाओं से भरा होता है। जिस कार्य में संकट का सामना न करना पड़े और वह आसानी से पूरा हो जाए तो उसका महत्व कम ही रहेगा फिर वह काम देखने में कितना ही बड़ा क्यों न हो। तो क्या इस सहज सम्भावना के भय से संसार में महत्वपूर्ण कार्य न किए जाएँ? यदि संसार के सारे लोग संकट की सम्भावना से डर कर कोई महत्वपूर्ण कार्य करना छोड़ दें, तो इस संसार की क्या दशा हो जायेगी? इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।

संसार का सारा विकास, सारी उन्नति, जिसे देखकर आज हम खुश हो रहे हैं और जिसका लाभ उठाकर अधिकाधिक आनन्द अनुभव कर रहे हैं सब उन्हीं पुरुषार्थियों की कृपा और उनके साहस का ही फल है जिन्होंने संकट की सम्भावना का भय तक में रख कर अपना जीवन महान और उपयोगी कामों को समर्पित कर दिया। प्रगति की ओर बढ़ना केवल अपना व्यक्तिगत नियम नहीं है उसका सम्बन्ध संसार और समाज के विकास से भी है। जो अप्रगतिशील है वह परोक्ष रूप से समाज का विरोधी है।

वैज्ञानिकों, अन्वेषकों और समाज-सुधारकों को ले लीजिये। यद्यपि संसार के लिए उपयोगी महान कार्यों के क्षेत्र और भी होते हैं तथापि यह तीन क्षेत्र ऐसे हैं जिनके कार्य समाज के लिए बहुत उपयोगी होते हैं। इन तीन वर्गों के संसार-सेवियों ने संसार के विकास और उसकी प्रगति में, सदा से सराहनीय योगदान किया है। संसार की सेवा के यह तीनों क्षेत्र अन्य क्षेत्रों से अपेक्षाकृत अधिक संकट से भरे हैं। विघ्न, असफलताएँ और विरोध इन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा सामने आते हैं। इन क्षेत्रों में साधारण संकटों के साथ प्राणों का संकट तक बना रहता है। तब भी संसार का उपकार करने वाले वैज्ञानिकों, अन्वेषकों और सुधारकों की कभी कमी न रही है। बड़े-बड़े भयंकर संकट उठाकर इन लोगों ने संसार की सेवा की है। यदि यह लोग संकटों की सम्भावना से भयभीत होकर अपना कर्तव्य न करते तो क्या यह संसार आज जैसा उन्नत और विकसित दिखलाई देता। और यदि आज डडडड यह लोग संकटों के भय से अपने महान कर्तव्यों से विरत हो जाएँ तो क्या कल से ही संसार अधोगति की ओर तेजी से न चल पड़े? अपनी और समाज की प्रगति के लिए पुरुषार्थ करना हर मनुष्य का कर्तव्य है। संकटों से डरकर अगति में पड़ा रहना अशोभनीय वृत्ति है।

संसार में संकट कहाँ और किस स्थिति में नहीं है? संसार संकटों का आगार कहा गया है। यहाँ संकट उसके लिए भी है जो एक स्थान पर पड़ा रहता है। यह संसार संपत्ति-विपत्ति और सुख-दुःख के दो सूत्रों से निर्मित हुआ है। जिसने इस संसार में जन्म लिया है वह केवल अनुकूलता की ही अपेक्षा नहीं कर सकता उसे प्रतिकूलता का भी अपना भाग ग्रहण करना होगा। संसार में केवल सुख-सुविधा पूर्ण आसान जिन्दगी जीते रहने का कोई अवसर नहीं है। हर शरीरधारी दुःख-सुख की द्वन्द्वमयी जिन्दगी स्वीकार करने के लिये बाध्य हैं। इस प्रतिबन्ध के रहते हुए इस बात में कोई बुद्धिमानी नजर नहीं आती कि संकट के भय से प्रगति के पथ पर न बढ़ा जाए। जब प्रगति के पथ पर बढ़ने पर भी संकट की सम्भावना है और प्रगति की दशा में भी संकटों से बचा नहीं जा सकता, तो कौन ऐसा नासमझ होगा जो प्रगति पथ के संकटों को तरजीह न दे, यदि वह पूरी तरह से मनोमृत होकर जड़ नहीं हो गया है?

मानिए कि आदमी के पास प्रगति करने के साधन हैं और वह व्यापार द्वारा उन्नति की ओर बढ़ सकता है। लेकिन घाटे के भय से व्यापार नहीं करता। यह सोचता है कि यदि मैं व्यापार करूं और उसमें घाटा हो जाए तो उसे गहरी आर्थिक विपत्ति में पड़ जाना पड़ेगा। चुपचाप बैठे रहने से उस पर आर्थिक संकट आने की सम्भावना नहीं रहेगी। किन्तु उसका यह विचार सही नहीं है। प्रगति के उद्योग में यदि उस पर घाटे का संकट आ सकता है तो अगति की दशा में भी लूट, चोरी अथवा आग द्वारा भी उस पर संकट आ सकता है। यदि इससे बच सकता है तो बीमारी अथवा नालायक सन्तानों के द्वारा भी उस पर आर्थिक संकट आ सकता है। संकट के लिए न तो कोई क्षेत्र निश्चित है और न कार्य। वह किसी पर किसी भी स्थिति में आ सकता है। उससे भयभीत होना अथवा उसकी संभावना से प्रगति पथ का त्याग कर देना किसी प्रकार भी उचित नहीं है।

मनुष्य जीवन उन्नति और प्रगति के लिए ही मिला है। यदि इसका यह उद्देश्य न होता तो इस शरीर के साथ विद्या, बुद्धि, विवेक और चिन्तन-मनन आदि की विशेषताओं की सुविधा न होती, मनुष्य भी सीधा-सादा अन्य प्राणियों की तरह ही एक निकृष्ट प्राणी होता। मनुष्य को अपने जीवन-लक्ष्य के लिये एक लम्बी प्रगति परम्परा पूरी करनी है। उसका जीवन लक्ष्य मोक्ष है। जो अगति पूर्ण स्थिति में पड़े रहने से कभी नहीं पाया जा सकता। मनुष्य को अपना वह लक्ष्य पाने के लिये प्रगति-प्रति-प्रगति करते हुए ही बढ़ना होगा। यदि वह साधारण जीवन ही प्रगति से मुख मोड़ बैठेगा तो उस आत्मिक उन्नति का प्रयत्न किस प्रकार कर सकता है जो जीवन-लक्ष्य के लिये आवश्यक है? छोटी-छोटी प्रगतियों के अभ्यास द्वारा ही बड़ी प्रगति की क्षमता प्राप्त की जा सकती है।

अपना वास्तविक जीवन-लक्ष्य पाने के लिये मनुष्य को सामान्य जीवन से ही प्रगति का उद्योग प्रारम्भ कर देना चाहिए। जो स्थूल उन्नति के क्षेत्र में अपना पुरुषार्थ और पराक्रम नहीं दिखला सकता वह अध्यात्म के सूक्ष्म क्षेत्र में तो और भी कुछ नहीं कर सकता है। उन्नति और प्रगति की दिशा में सफलता अर्जित करना मनुष्य का शोभनीय कर्तव्य संकटों के भय से उसे अपने इस कर्तव्य से विरत होकर न बैठ रहना चाहिए। संकटों अथवा विघ्न-बाधाओं के भय से मुक्त होकर उठिए और आज ही प्रगति की ओर पग बढ़ाने का उपक्रम प्रारम्भ कर दीजिए। दुःख उठाकर ही सुख और संकट उठाकर ही सफलता मिलती है। इसी में उसका महत्व भी है। जो सफलता जितना अधिक संघर्ष और संकट सहन करने के बाद मिलती है उसका आनन्द उतना ही अधिक, यथार्थ और स्थायी होता है। यह बात इस छोटे-से उदाहरण से इस प्रकार समझी जा सकती है। एक सम्पन्न व्यक्ति को विविध प्रकार के व्यंजनों की प्रचुर सुविधा है। जरा-जरा-सी देर में उसके सामने खाने-पीने की विविध वस्तुएँ बिना कुछ किए आती रहती हैं लेकिन उसमें उसे उतना आनन्द कभी नहीं मिलता जितना आनन्द एक श्रमजीवी को दिनभर कड़ी मेहनत करने के बाद मिली सूखी रोटी में मिलता है। इसी प्रकार उस आलसी और विलासी धनवान को आराम अथवा नींद का वह स्वर्गिक सुख नहीं मिलता, जो दिनभर आराम ही करता रहता है, जो उस मेहनतकश इंसान को मिलता है जो दिन में दस घंटे मेहनत करता और थकान से चूर होकर सोता है। आनन्द की पूरी और सच्ची अनुभूति उसी उपलब्धि में होती है जो कठिनाइयों और कष्टों के बीच से अर्जित की गई है। ऐसी उपलब्धि में सन्तोष भी होता है और आत्म-गौरव भी।

सफलता एक उपलब्धि है और उसमें आनन्द भी होता है। इसलिए कि उसको पाने में दुःख, तकलीफ और संकटों का सामना करना पड़ता है। आनन्द वास्तव में उस सिद्धि में नहीं होता बल्कि उस कष्ट का मूल्य होता है जो पुरुषार्थी हंसता-खेलता उठाया करता है। कोई सफलता श्रेय अथवा सराहना का विषय इसीलिये बनती है कि उसे पाने में उद्योगी को कष्ट और संकट उठाकर अपने पुरुषार्थ का परिचय देना होता है। पुरुषार्थ नाम सिद्धि का नहीं बल्कि उसके मार्ग में आने वाले संकटों की सहनशीलता का है। जीवन की सफलता और महत्वपूर्ण कार्यों के मार्ग में यदि संकट और कष्ट न आएँ और उनकी पूर्ति आसानी से हो जाया करे तो उनका कोई महत्व ही न रह जाए? सर्व सुलभ सफलताएँ यदि आसानी से मिलने लगें तो उनमें और सामान्य दैनिक कार्यों में क्या अन्तर रह जाए और क्या अन्तर रह जाए एक सामान्य और महापुरुष में। सफलताओं का श्रेय संकटों के कारण ही है और विशेष पुरुषार्थ के कारण ही आकार-प्रकार में कोई अन्तर न होने पर भी एक साधारण मनुष्य असाधारण पुरुष माना जाता है। दुर्लभता तथा दुःसाध्यता के कारण ही सफलता में एक अनिवर्चनीय आनन्द प्राप्त होता है। सोना स्पृहणीय क्यों है? इसीलिये कि वह कठिनता से मिलता है और दुर्लभ होता है। यदि वह भी अन्य खनिज पदार्थों की तरह आसानी से प्रचुर मात्रा में सबको मिलने लगे तो उसका क्या मूल्य महत्व रह जाए? मनुष्य को कष्ट और संकटों की सम्भावना से निरपेक्ष रहकर जीवन में उन्नति और विकास में सफल होने का प्रयत्न करना ही चाहिए।

उन लोगों को पुरुष नहीं कापुरुष ही माना जाएगा जो संकटों के भय से प्रगति पथ पर अग्रसर होने का प्रयत्न नहीं करते। सच्चे पुरुषार्थी तो सत्पथ पर आने वाली विपत्तियों का अपने धैर्य, सहिष्णुता और पुरुषार्थ की परीक्षा से अधिक कुछ नहीं मानते। वे तो हँस-हँसकर उनका स्वागत करते हैं, खेल-खेल की तरह सहन करते और विश्वासपूर्वक उन पर विजय प्राप्त करके श्रेय के अधिकारी बनते हैं। संकट और आपत्तियों का अस्तित्व जितना बाहर नहीं होता उससे कहीं अधिक कायर मनुष्य के हृदय में होता है। कष्ट और संकट मनुष्य जीवन की सामान्य घटनाएँ हैं। यदि कष्टों, संकटों तथा दुःखों का सर्वथा अभाव हो जाए तो मनुष्य की बुद्धि, विवेक और कार्य-क्षमता का कोई महत्व ही न रह जाए और एक रसता के कारण संसार के सारे सुख, सारे आनंद और सारे कार्य नीरस होकर बोझिल बन जाएँ। तब उस दशा में मनुष्य का जीना तक कठिन हो जाए। कठिनाइयाँ और संकट ही मनुष्य जीवन का सक्रिय तथा सरस बनाए रखने में सहायक होती हैं। एक रस सुख मृत्यु की तरह जड़ और शीतल होता है। उसमें रुचि तथा आनन्द की ऊष्मा का संचार संकटों तथा कठिनाइयों का राही होता है। संकट के भय से प्रगति पथ पर न बढ़ना, केवल जीवन को जड़ता की ओर ले जाना है बल्कि उसे नीरस, शीतल और निरुपयोगी बनाना भी है। अस्तु संकट की भावना का त्याग कर अपनी-अपनी स्थिति-परिस्थिति के अनुसार सबको प्रगति तथा उन्नति का प्रयत्न करना चाहिए, श्रेय पथ पर संकट का भय हृदय क्षुद्र दुर्बलता के सिवाय और कुछ नहीं। वह तो मानव-जीवन की सामान्य घटनाएँ ही होती हैं। जिनका कोई मूल्य महत्व नहीं होता।


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