सन् 1874 की बात है। आयरलैंड की राजधानी डब्लिन नगर में मिस्टर पिम नामक सज्जन रहते थे। उनकी मिस शारलोट नामक एक कन्या थी। एक दिन उसे खबर मिली कि मिस्टर बेली नामक एक पादरी भारत से लौटे हैं। शारलोट ने उक्त पादरी महाशय को अपने घर बुलाकर उनसे भारत के बारे में उनके अनुभव पूछे। मि. बेली अम्बाला में ईसाई चर्च के संचालक थे और छुट्टियों में घर लौटे थे। उन्होंने अपने कार्य सम्बन्धी बात-चीत के दौरान बतलाया कि अम्बाला में उनके बँगले में कुछ ही दूरी पर कोढ़ी लोगों की झोपड़ियां हैं। जिनकी दशा अत्यंत दयनीय है। मिस शारलोट का हृदय भारतीय कोढ़ियों की दुर्दशा का हाल सुनकर अत्यंत द्रवित हुआ और उसने कहा- अधिक तो नहीं पर मैं हर साल 30 पौण्ड (450 रु.) इकट्ठा कर कुष्ठ रोगियों की सेवा के लिये आपको भेजती रहूँगी। मिस शारलोट पिम अत्यंत संकोचशील स्वभाव की लड़की थी और उसे लगता था 30 पौण्ड जमा करना भी उसके लिए मुश्किल काम होगा पर वह तन-मन से अपने कार्य में जुट गई और वर्ष के अन्त में उसने 500 पौण्ड (7500 रु.) इकट्ठा कर भारत भेजे और बाद में प्रति वर्ष हजारों पौण्ड लगातार भेजती रही।
आज से 93 वर्ष पहले जो सेवा रूपी बीज इस बहन ने बोया था, वह आज हरे-भरे उपवनों के रूप में लहलहा रहा है। भारत में कुष्ठाश्रम के आरम्भ का यही इतिहास है। आज भारत में ईसाई मिशन के लगभग 50 कुष्ठाश्रम जिनमें हजारों कुष्ठ रोगी चिकित्सा का लाभ प्राप्त कर निरोगी हो रहे हैं।